Sanjay Jothe
ऐसे में स्थिति बदलने की जो तीव्र इच्छा पैदा होती है उसके दो कारण हैं.
कहानी आगे बढती है. पित्रसत्ता, पुरुषसत्ता, जातीय दंभ को परम्परा और पवित्र शास्त्रों, भगवानों के उद्धरण से जायज ठहराते हुए यह स्थापित किया जाता है कि ये शोषण जो हो रहा है वह असल में आ कहाँ से रहा है.
इसके बाद शोषित लोगों की बुरी हालत को भी समझाया जाता है. ‘औकात’ शब्द बार-बार आता है जो असल में भारत के धार्मिक राजनीतिक और सामाजिक चिन्तन की धुरी है. शोषण का मूल आधार ‘औकात’ का होना या न होना ही है लेकिन ये जब अभिव्यक्त होता है तो आर्थिक आधार पर होता है. ‘औकात’ भारत के धर्म और शास्त्रों ने पहले ही तय कर दी है और औकात तय करने के बाद स्वाभाविक रूप से उभरने वाली सामाजिक व्यवस्था का पालन करना और करवाना हर जाति की अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी बन जाति है.
इस जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए अपने से नीची जाति का अपमान करना, मजदूरी कम देना, पिटाई करना, बलात्कार करना, गंदे कामों में लगाए रखना, भयभीत कुपोषित बनाए रखना इत्यादि इत्यादि धर्म और शास्त्रों के अनुसार जायज काम हैं जो कि व्यवस्था को बनाये रखने के लिए स्वयं इश्वर या ब्रह्म ने बताये हैं.
अपने देश, समाज या धर्म को इस नायक ने गलती से जिस रूमानियत में कुछ और ही समझ लिया था, वो जमीन पर हकीकत में कुछ और ही निकलता है. इससे उसे और उसकी प्रेयसी को चोट लगती है. पूरी फिल्म में यह चोट बार बार शोर मचाती है. साथ ही अछूत या अस्पृश्य जातियों से आने वाले गरीब और असहाय लोगों का रुदन और विलाप भी इसमें बहुत कलाकारी और सावधानी से उभारा गया है.
इस फिल्म में कई सारे उल्लेख प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से आते हैं. भीम आर्मी के चंद्रशेखर रावण, रोहित वेमुला प्रकरण, खैरलांजी काण्ड, अतीत के महाकाव्यों से उभर रहे पात्र और इन सबके साथ ही उत्तर प्रदेश की वर्तमान राजनीती के कई सारे बिंब एकसाथ समानांतर बहते हैं और इस देश और इसके समाज के बारे में बहुत कुछ कह जाते हैं.इन समानांतर बह रहे बिंबों के बीच यूरोप के सभ्य समाज से सभ्यता और ज्ञान की सुगंध लेकर अचानक भारतीय समाज की सडांध में आ गिरने वाले नायक को अपने गर्व और नैतिकता को बचाने के लिए एकमात्र उम्मीद भारत के संविधान में नजर आती है. मेरे लिए यही इस फिल्म का केन्द्रीय बिंदु है जहाँ से फिल्म में और फिल्म के बाहर भी सब कुछ बदल जाता है.
इस फिल्म में कुछ कमजोरियां भी हैं जिन्हें नजरअंदाज करना ठीक नहीं. एक सबसे बड़ी कमजोरी इसकी कहानी में है. शोषित वर्ग के अर्थात दलितों वंचितों के नायकों और मुक्तिकामियों को यहाँ कमजोर और असहाय बताया गया है. वे हमेशा रोते सिसकते रहते हैं जैसे कि यूरोप अमेरिका से आने वाले किसी सवर्ण द्विज मसीहा का इंतज़ार कर रहे हैं. उनके अपने संघर्ष का कोई परिणाम तभी निकल सकता है जब कि शोषक अर्थात सवर्ण द्विज तबके या जातियों में ही जन्मा कोई मसीहा यूरोप से सभ्य होकर भारत आएगा और उनकी मदद करेगा. एक तरह से दलितों वंचितों की मुक्ति की संभावना सवर्ण द्विजों के प्रयासों और सदिच्छा पर ही निर्भर है.
ये निर्भरता पीड़ित करती है. इसका कारण समझना भी आसान है. असल में यह फिल्म उन लोगों के लिए बनाई गयी है जो स्वयं जातिगत शोषण की इस डिजाइन में फायदा उठा रहे हैं. ये फिल्म उनके ह्रदय परिवर्तन कि दृष्टी से बनाई गयी है. इसीलिये शोषकों के जातीय अहंकार को इतनी भी चोट न लगे जाए कि हृदयाघात ही हो जाए. हृदय परिवर्तन के लिए सच्चाई को उजागर करते हुए उसे सुरक्षित सीमाओं में रखना होता है ताकि हृदयाघात ही न हो जाए. शोषकों के ह्रदय परिवर्तन की उम्मीद और इंतज़ार करने का यह आग्रह इस फिल्म की कहानी में एक ऐसी मजबूरी बनकर उभरता है जो बहुत निराश करती है. इतिहास में जाकर अगर हम गांधी और अंबेडकर की अप्रोच के बीच के तनाव को देखें तो यह वाही तनाव है. गांधी ह्रदय परिवर्तन चाहते हैं और अंबेडकर व्यवस्था- परिवर्तन और धर्म परिवर्तन चाहते हैं.
ये सुरक्षित सीमा बनाये रखना बिजनेस और मार्केटिंग के नजरिये से भी जरुरी है. सीधी सी बात है आपके प्रोडक्ट को खरीदने वाले लोगों की नैतिकता और धर्म पर बेरहम चोट नहीं पहुंचाई जा सकती. एक सुरक्षित सी 'चपत' लगाकर प्यार से आग्रह करना फायदेमंद है. यही इस फिल्म में भी किया गया है. अंत में इस फिल्म को देखने वाला ‘कास्ट ब्लाइंड’ तबका अगर अपनी विरासत धर्म और समाज पर रत्ती भर भी गर्व न कर सके तो वो सिनेमा हाल में बैठे बैठे ही टूट जायेगा. नायक और नायिका तो संविधान में गर्व करते हुए स्वयं को बचा लेते हैं लेकिन आम सवर्ण भारतीयों से इतनी उम्मीद नहीं की जा सकती. उन्हें अंतिम रूप से गर्व करने के लिए संविधान नहीं दिया जा सकता. वे जिस एकमात्र चीज में गर्व कर सकते हैं वो बात ये है कि “चलो अतीत में हमने जो भी गलत किया लेकिन वर्तमान में या भविष्य में इसे ठीक भी हम ही करेंगे”.
यही वो केन्द्रीय बात है जो मुझे पीड़ित करती है. शोषित की ‘एजेंसी’ या ‘कर्ता होने की संभावना’ को व्यवस्था या ‘स्ट्रक्चर’ फिर से निगल लेता है. यहाँ दलितों शोषितों को सन्देश ये दिया जा रहा है कि शोषण भी हम ही करेंगे और तुम्हे मुक्त भी हम ही करेंगे. तुम बैठकर रामलीला देखते रहो.अभी भी भारत का समाज इतना सभ्य नहीं हो सका है कि वो स्त्रीयों की आजादी का श्रेय किसी स्त्री को दे सके. या दलितों- ट्राइबल्स की मुक्ति का श्रेय खुद दलितों या ट्राइबल नेताओं को दे सके. भारत का सवर्ण द्विज पुरुष आज भी स्त्रीयों का मुक्तिदाता खुद बनना चाहता है, साथ अवर्णों, दलितों और वंचितों को मुक्त करने का श्रेय स्वयं ही लेना चाहता है. इसका एक गहरा कारण है. जब शोषक तबके से आने वाले लिबरल नायक वंचितों को मुक्त करने वाली इबारत लिखते हैं तो वे व्यवस्था में कोस्मेटिक बदलाव कर आपद धर्म निभाते हैं.
वे शोषण के कील मुहांसों का फौरी इलाज करके निकल जाते हैं ताकि इस समाज की शिराओं में बह रहा जहरीला और दूषित रक्त ही पूरी तरह न बदल जाए. स्मृति शास्त्रों में दी गयी व्यवस्था कोई पूरी तरह न उखाड़ दे, इसके लिए पहले ही आगे दौड़कर चलताऊ बदलाव कर दीजिये. इस तरह महान बनने का श्रेय भी मिल जाएगा और प्राचीन व्यवस्था भी जस की जस बनी रहेगी. फिर जब समय अनुकूल होगा तो स्मृतियों को कानून की तरह लागू करने का कोई रास्ता निकाल लेंगे.
इस तरह ये चलताऊ सुधार असल में शोषण की पीड़ा से भी अधिक खतरनाक होता है. कील मुहांसों का इलाज करके सामाजिक व्यवस्था के मूल आधार, उसके रक्त अर्थात उसके धर्म और नैतिकता को न बदलते हुए चलताऊ सुधार ले आना एक षड्यंत्र है. इसके जरिये धर्म, शास्त्र और नैतिकता की मूल प्रस्तावनाओं को तात्कालिक चोटों से बचाया जाता है. ये भारतीय द्विजों का सबसे बड़ा षड्यंत्र है.
राजा राममोहन रॉय, ईश्वरचंद विद्यासागर, केशव चन्द्र या गांधी जैसे सुधारकों ने आज तक भारत में यही किया है. वे इस देश के धर्म दर्शन और नैतिकता पर उतनी ही चोट लगाते हैं जितनी कि यूरोपीय सभ्यता को एकोमोडेट करने के लिए जरुरी हो. वे उससे एक इंच भी आगे नहीं जाते. इसके विपरीत अंबेडकर, कबीर, फूले, पेरियार और ललई सिंह यादव जैसे क्रांतिकारी इससे कहीं आगे जाकर इस धर्म और इसकी नैतिकता पर ही चोट करते हैं ताकि जहरीले पेड़ की जड़ ही सूख जाए. द्विज क्रांतिकारी जहरीले पेड़ के पत्ते और फल नष्ट करते हैं लेकिन उसकी जड़ पर प्रहार नहीं करते.
Sanjay Jothe
लीड इंडिया फेलो हैं। मूलतः मध्यप्रदेश के निवासी हैं। समाज कार्य में पिछले 15 वर्षों से सक्रिय हैं। ब्रिटेन की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन में परास्नातक हैं और वर्तमान में टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी कर रहे हैं।
निष्पक्ष और संतुलित समीक्षा,जल्द ही फ़िल्म देखने जाऊंगा
बेहतरीन समीक्षात्मक आलेख।
फ़िल्म की समीक्षा को इतनी बारीकी से सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर किया गया है जैसे कोई sociological theory की समीक्षा हो।इससे फ़िल्म देखने का नज़रिया ही बदल दिया। बहुत सी समीक्षाएँ पढ़ा इस मूवी की लेकिन सबसे अलग स्तर की समीक्षा है ये। आर्ट की क्या सीमा होती है और किस तरह से आर्ट किसी एजेंडे को जटिल तरीके से समाज को परोसती है, यह समीक्षा इस सारे पहलुओं को बिना किसी भेद भाव के कहती है। ऐसी समीक्षा न्यूटन फ़िल्म की पढ़ा था, लेकिन फ़िल्म देखने के बाद टैब लगा था कि कित्ता कुछ देख ही नहीं पाया। यह मूवी भी देखूँगा, लेकिन ऐसा लग रहा इस बार बहुत कुछ देखने को मिलेगा। धन्यवाद।
भारतीय फिल्म इंडस्ट्री मे शोषित तबको के लोगो के कम होने की वजह से फिल्म मे वह खामी आई है. शोषितो मे नागराज मंजुळे जैसे गिने चुने लोग ही है जो फिल्म बनाते है लेकिन बाकी सब तो सवर्ण ही है। फिल्म समाज का आईंना होती है इसिलीये इसे बनाने वाले लोगो मे समाज के हर तबको मे से लोगो का होना जरुरी है ताकी समाज की सच्चाई को इमानदारी से दिखाया जा सके.
सटीक विश्लेषण।
बहुत अच्छे से समीक्षा की है सर।
बढ़िया।
भारत सच में इतना बड़ा नही हुआ है कि स्त्री की आज़ादी का श्रेय स्त्री को दे।