राजेश्वर वशिष्ठ
सुनेत्रा,
आज सुबह क्वीन विक्टोरिया ने कहा-
आसमान में कोई खिड़की खुली छूट गई होगी
बहुत ठंड रही रात भर
इतने कपड़े पहन कर भी मुझे
ठिठुरना पड़ा कोलकाता में
इस अपने ही इतने अद्भुत घर में!
सूरज ने धीरे से दस्तक दी
हरे पत्तों को चूमा और
विक्टोरिया की गोद में पसर गया
रानी साहिबा ने
नज़र उठा कर नहीं देखा उसे
वह नाराज़ थीं।
1901 की जनवरी ही थी
जब मैंने विदा ली इस दुनिया से
ठंड से ठिठुर रहा था ग्रेट ब्रिटेन
कब्र की मिट्टी को
कोई नहीं करता गरम
चाहे दफनाया जा रहा हो
किसी सम्राट को ही
लिहाज़ा ठंड से काँपती रही मैं भी
उस सबसे कीमती लकड़ी के ताबूत में!
मेरी आत्मा ने
पूरी दुनिया का चक्कर लगाया
और इत्मिनान किया
कि वाकई सूरज नहीं डूबता
इंग्लैंड के सिंहासन का!
मैं आखिर में ठहर गई
इंडिया के इस कैल्कटा शहर में
जहाँ हुगली का बहता पानी था
हरी घास का मैदान था
चिड़ियों की चहचहाहट थी
और सबसे वफादार बाबू थे
जिन्हें हमने कभी बैबून कहा था
और उनमें होड़ लग गई बाबू बनने की
ज़रूरत से उपजी आस्था तो
शब्दों के अर्थ ही बदल डालती है!
मुझे याद थी ब्रिटेन की सर्दी
जो राजाओं को भी महसूस होती थी
मुझे रश्क था ताजमहल से
जो इंडिया में ही आगरा में था
दिल करता था मेरे लिए भी बने एक ताजमहल
और मैं यहीं रह गई कैल्कटा में
यहाँ बन सकता था मेरा भी ताजमहल!
1906 से लेकर 1921 तक
पहरा देती रही मेरी आत्मा
अपने इस महल का
जिसे कम शानदार नहीं बनाया गया था।
विश्व युद्ध आया
कितनी ही सर्दी-गरमियाँ आई
पर मैं बैठी ही रही
इस शानदार ऊँचे सिंहासन पर!
आज़ादी के बाद भी यह मेरा ही देश है
कॉमनवेल्थ का सदस्य है
अंग्रेज़ी बोलता है और बिछ जाता है
गोरी चमड़ी के सामने
अब भी छोड़ना नहीं चाहता
मैकाले की शिक्षा पद्धति
और ब्रिटिश कानून का मोह!
अभी भी ज़िंदा बचे हैं ऐसे लोग
जो गर्व से कहते हैं
इन काले अंग्रेज़ों से तो गोरे अंग्रेज़ अच्छे थे
मेरा सीना चौड़ा हो जाता है सुन कर!
अब तपने लगा है सूरज
कुछ ही देर में खुल जाएंगी
जमी हुई बूढ़ी हड्डियाँ
बहुत मज़ेदार लगती है मुझे
तुम्हारे इस कोलकाता की ठंड ।
पर सुनो,
तुम ठण्ड से बचो
बाबुओं को ठंड जल्दी लगती है
नए साल में,
नई छुट्टियाँ जो खाते में आगई हैं!
मेरा क्या
मैं तो ठंडे मुल्क की पैदायश हूँ!