महलों का घर

Mukesh Kumar Sinha देखी है मैंनेऊँची चहारदीवारियों के बीच बड़े गेट के पीछे छिपा बिन खिड़कियों का घर चहारदीवारी में छिपके सांस थामेंबिना हिले डुले आहिस्ते से अपने टांगों परटिका हुआ घर इंटरकॉम औरस्क्रीन वाले फोन के साथधुंधले पड़े गेट पे लगेडोर आईज से पूरा पता लेकर बताता है सन्तरीकोई आया है।फिर भी, ऐसे घरों मेंबना रहता है डर बिन बच्चों के खिलखिलाहट के भीहवाओं के सहारे झूलते झूले उनींदी सी खोयी रहती है किसी अनजाने के आने के उम्मीद मेंजबकि शेर… Continue reading

गाँव – स्मृतियों की पोटली — Mukesh Kumar Sinha

Mukesh Kumar Sinha पहुंचा हूँ गाँव अपने….जाने कितनी भूली बिसरी सुधियों की पोटली सहेजता..अब ज़रा सा आगे ही रुकेगी बस और, दूर दिखाई दे रहा है वो ढलान चौक कहते थे सब ग्रामवासीकूद के बस से उतरा और निगाहें खोजने लगीं वो खपरैल जिसमें चलता था “चित्रगुप्त पुस्तकालय” कहाँ गया वो .? कहाँ गयी वो लाईब्रेरी जिसने हमें मानवता का पहला पाठ पढ़ाया हमें मानव से इंसान बनाया थाबचपन के ढेरों अजब-गजब पलखुशियां-दर्द-शोक, हार-जीतसहेजा था इसके खंभे की… Continue reading

महलों सा घर

Mukesh Kumar Sinha देखी है मैंनेऊँची चहारदीवारियों के बीच बड़े गेट के पीछे छिपा बिन खिड़कियों का घर चहारदीवारी में छिपके सांस थामेंबिना हिले डुले आहिस्ते से अपने टांगों परटिका हुआ घर इंटरकॉम औरस्क्रीन वाले फोन के साथधुंधले पड़े गेट पे लगेडोर आईज से पूरा पता लेकर बताता है सन्तरीकोई आया है।फिर भी, ऐसे घरों मेंबना रहता है डर बिन बच्चों के खिलखिलाहट के भीहवाओं के सहारे झूलते झूले उनींदी सी खोयी रहती है किसी अनजाने के आने के उम्मीद मेंजबकि शेर… Continue reading

खिलखिलाती पहचान

Mukesh Kumar Sinha खिलखिलाहट से परे रुआंसे व्यक्ति की शायद बन जाती है पहचान, उदासियों में जब ओस की बूंदों सेछलक जाते हों आंसू तो एक ऊँगली पर लेकर उनकोये कहना, कितना उन्मत लगता है ना कि इस बूंद की कीमत तुम क्या जानो, लड़कीखिलखिलाते हुए जब भी तुमने कहा मेरी पहचान तुम से है बाबू मैंने बस उस समय तुम्हारेटूटे हुए दांतों के परे देखा दूर तक गुलाबी गुफाओं सा रास्ता ये सोचते हुए कि कहीं अन्दर… Continue reading

खून का दबाव व मिठास

Mukesh Kumar Sinha जी रहे हैं या यूँ कहें कि जी रहे थे ढेरों परेशानियों संग थी कुछ खुशियाँ भी हमारे हिस्से जिनको सतरंगी नजरों के साथ हमने महसूस करबिखेरी खिलखिलाहटें कुछ अहमियत रखते अपनों के लिए हम चमकती बिंदिया ही रहेउनके चौड़े माथे की इन्ही बीतते हुए समयों में कुछ खूबियाँ ढूंढ कर सहेजी भी कभी-कभी गुनगुनाते हुए ढेरों कामों को निपटाया तो, डायरियों में कुछ आड़े-तिरछे शब्दों को जमा कर लिख डाली थी कई सारी कवितायेँ जिंदगी चली जा रही थी चले जा… Continue reading

समय

Mukesh Kumar Sinha 1.मिट्टी हो रहे हैं समय के साथ भूल जाना तो नियति हैपर याद रखना, अंकुर फूटेंगे फिर कभी बस मन को नम रखनाताकि सहेजे पल, खिलखिला पड़े, तुम्हारे होंठो पर !! 2.प्रेमसिक्त ललछौं भोर से डूबते गुलाबी सूरज तक का बीता हुआ समय पाँव भारी कर गया उन्मुक्त जवां दिलों को कि अब रिश्ता उम्मीद से है ! 3.दस्तक समय की बताने को आतुर, किचूक चुके हो तुम याद रखना नहीं होता कोई अपना! 4.जिंदगी की धूप छाँव मेंकुछ तो हरियाली होगी ही बहती… Continue reading

घिसी हुई चप्पल

Mukesh Kumar Sinha घिसी हुई चप्पल पड़ी थी पायताने में थी एक उलटी पड़ी एक थी सीधी औंधा पडा था चेहरा मेरा तकिये में दबी पड़ी थी आँखे था आँखे मीचे सोच रहा था देखूं कोई हसीं सपना पर बंद आँखों के परिदृश्य में नीचे पड़ी घिसते चप्पल की बेरुखी दिख ही जा रही थी बता दे रही थी, अपने तलवे के प्रति बेरुखापन तभी खुल गयी आँख खुद से खुद ने कहा लगता है जाना है किसी यात्रा पर तभी तो दिख रही है चप्पल पर… Continue reading

पिता के जूते

Mukesh Kumar Sinha जूता पिता का पहली बार पहना था तीन दशक पहलेजब उन्होंने कहा था -टाइट है, काटने लगा है पैरतुम ही पहन लो पापा का संवाद था बड़े होते बेटे के साथ अधिकार को कमी की पैकिंग में लपेट कर कहा गया था शायदपर सुन ही नहीं सका था ‘मैं’ पहली बार बांधते हुए जूते दिल कह रहा था मर्द वाली फ़ीलिंग के लिए ज़रूरी है 4 नंबर के सैंडल के बदले 7 नंबर के लेस वाले पिता के या… Continue reading

अव्यवस्थित सुनहरी भावनाओं को समेटती- मेरी प्रेम कविताएं

Mukesh Kumar Sinha[divider style=’right’] अव्यवस्थित सुनहरी भावनाओं को बेवजह समेटने की कोशिश भर हैं मेरी प्रेम कविताएं जिसकी शुरूआती पंक्तियां गुलाबी दबी मुस्कुराहटों के साथ चाहती हैं हो जाएं तुम्हें समर्पित पर स्वछंद हंसते डिंपल से जड़ी मुस्कान और तुम्हारे परफेक्ट आई क्यू के कॉकटेल में कहीं खोती हुई ये कविता प्रेम की चाहत को जज़्ब करती है जैसे जींस के पीछे के पॉकेट में बटुए को दबाये तुमसे कहना… Continue reading

प्रेम – असहमति

Mukesh Kumar Sinha असहमतियां नही होती हर समय सहमति का विपरीत असहमति कई बार बस ये जताने के लिए भी होती है कि समझ पाए अहमियत । विरोध वक़्त बेवक्त किया जाता है सबसे अपनों का विरोध में छिपा होता है सुझाव कि समझा करो या, ऐसे तो समझोगे न ! प्रेम में भी कई बार करना पड़ता है ‘न’ का सामना प्रेम का उत्सव सरीखा किस डे/ हग डे… Continue reading