दलित चेतना 

आलोक नंदन वेदों-शास्त्रों के खिलाफ विषवमन करके मुटाती है दलित चेतना मनुस्मृति को मुंह में डालकर पघुराती है दलित चेतना अपने पूर्वजों के खिलाफ वर्णवादी व्यवहार पर कसमसाती है दलित चेतना एकलव्य के कटे हुये अंगूठे में अपना अक्स निहारती तर्कों का फन फैलाकर कभी राम पर कभी कृष्ण पर फुंफकारती है दलित चेतना। बाबा साहेब के कंधों पर सवार हो संविधान में जगह पाती है फिर भी प्रतिशोध की… Continue reading

एक लंबी कविता

आलोक नंदन झाड़ियों में उगती है, कंटीली झाड़ियों में और उनके संग खुद भी कंटीली हो जाती है चुभे तो लहू टपक पड़े, ऐसी है लंबी कविता। धरती के कोख में उस जगह पलती है जहां होता है पानी का अभाव । पुस की रात में सड़क पर ठिठुरते हुये बुढ़े के नींद में ऊंघती है लंबी कविता ! गंगा की मौजों पर सुबह कि सुर्खीली किरणों के फैलाव में… Continue reading

डंडा-झंडा

आलोक नंदन हाथ में होना चाहिए डंडा-झंडा और जुबां पर नारा फिर कियादत की कतारों में हो गये शामिल। भ्रम पैदा करके यदि दूर तक चल सकते हैं। और फिर अपने औलादों को भी उसी राह पर ढाल कर आगे निकल बढ़ना ही आपकी बेहतर सेवा में शुमार होती है। जम्हूरियत के गहवारों में पुश्त-दर-पुश्त पैबैंद हो जाते हैं। बस शर्त एक है हाथ से झंडा-डंडा नहीं छूटना चाहिए। जम्हूरियत… Continue reading