दुःख – अपर्णा अनेकवर्णा

Aparna Anekvarna १. दुःख में अवश्य मर जाती होंगी औसत से अधिक कोशिकाएं झुलस जाता होगा रक्त भी तनिक ठहरता होगा जीवन-स्पंदन हठात सब औचक की ठेस से सन्न उस पार निकलने को बेचैन फिर ऊब जाता होगा मन बंधे-बंधाये से आक्रोश भी बाँध-बाँध कर बाग़ी मंसूबे अंततः ढह जाता होगा निश्चय ही कुछ ऐसा होता होगा जब दुःख आता होगा २.दुःख में चुपचाप एक सदी बीत जाती है भीतर बाहर बस एक निश्वास मात्र सो भी ‘नाटकीय’ हो जाने से आँखें चुराते अपने घटते… Continue reading

प्रारम्भ-अंत प्रारम्भ-अंत…

Aparna Anekvarna मरते हुए फल फटते हैं उगल देते हैं बीज धरती धारण कर सेती है पुनर्जन्म तक दोमुंहे केशाग्र धर कर चला देती हूँ कैंची स्वस्थ हो उठते हैं नक्षत्र वहाँ मर चुके कबके जीवित है आज भी मगर रश्मि उनकी आखरी पन्ना पढ़ने के बाद बंद कर देती हूँ किताब बंद कर लेती हूँ आँखें खोल लेती हूँ फिर से किताब कुनमुनाती हैं कवितायें भीतर रह जाता है… Continue reading

प्रारम्भ-अंत-प्रारम्भ-अंत…

मरते हुए फल फटते हैं उगल देते हैं बीज धरती धारण कर सेती है पुनर्जन्म तक दोमुंहे केशाग्र धर कर चला देती हूँ कैंची स्वस्थ हो उठते हैं नक्षत्र वहाँ मर चुके कबके जीवित है आज भी मगर रश्मि उनकी आखरी पन्ना पढ़ने के बाद बंद कर देती हूँ किताब बंद कर लेती हूँ आँखें खोल लेती हूँ फिर से किताब कुनमुनाती हैं कवितायें भीतर रह जाता है उनका लिखना… Continue reading