पांच साल में एक बार तमाशा लगता है,
नेता वोट के लिये घर घर झांकता है,
ना भाषा का होश ना मर्यादा का तोल
गुंडे मव्वाली ओढ लेते हैं नेता का रोल
जनता बजाती ताली है
जनता ही ऐसे गुंडे खङे करती है।
तभी तो
लोकतंत्र बिकता है।
वोट के लिये
लोगों के गले में देशी ठर्रा डाला जाता है,
थाली में कुत्तों की बोटी,
जेब में दो चार सौ रुपये की गड्डी,
इस तरह लोकतंत्र में
दो कोङी के भाव इंसान बिकता है,
कहीं वोट बंदूक लाठी की नोंक पर पङता है,
लोकतंत्र बिकता है।
मेरा भारत महान,
करके सुरापान,
बेकार कर देता है अपना अमूल्य मतदान,
अपनी जाति,
अपने धर्म,
अपने नाते रिश्तेदार,
इन सबसे करके लगाव,
साधने अपने निजी स्वार्थ,
देता है बुरे लोगों का साथ,
जीतकर ऐसे फर्जी नेता
देते हैं झूठे आश्वासन
और दूर से ही हिलाते हैं हाथ।
लोकतंत्र बिकता है।
दिखाकर झूठे सब्जबाग,
नेता जा टिकता है विधानसभा और संसद में,
वहां कुत्तों की तरह लङते हैं,
कुत्ते भी इस नाटक के आगे पानी भरते हैं,
नेता ऐसे ही जनता की कमाई खर्च करते हैं।
हे विद्वान देशवासियों!
आप चुनावी मौसम में
पाकर दारु की बोतल,
लेकर हजार पांच सौ रुपये,
मदमस्त होकर होश ना खोइये,
ये चुनावी मौसम तो
चार दिन की चांदनी है
फिर अंधेरी रात है,
इसलिये भारत का भविष्य न बिगाङिये।
ऐसा ही ढर्रा यदि चलेगा,
जनता को नेता ऐसे ही छलेगा,
अपने कर्त्तव्य और अधिकार के लिये
अब भी न जागे तो
देश सामंतवादिता से ही चलेगा,
जागो, नहीं तो लोकतंत्र बिकता है
और बिकता रहेगा।
Vijendra Diwach
सटीक। सत्य जानते हुए भी लोग सच का साथ नहीं दे पाते, यही विडंबना है। यह करप्शन परिवार और समाज से शुरू होकर देश तक पहुँचता है। यथा राजा तथा प्रजा तो सही है ही। यथा प्रजा तथा राजा भी उतना ही सही है।