Vivek Umrao "सामाजिक यायावर"
मुख्य संपादक, संस्थापक - ग्राउंड रिपोर्ट इंडिया
कैनबरा, आस्ट्रेलिया
दरअसल हम भारतीयों में से अधिकतर लोग अपने मन के अंदर नफरत व तिरस्कार की बहुत गहरी परतों को बनाते हुए अपना जीवन जीते हैं। हमारे रोजमर्रा के जीवन का आधार प्रेम न होकर ईर्ष्या द्वेष जलन इत्यादि होता है। यही कारण है कि वयस्क होने के पहले ही भाई-भाई, भाई-बहन, बहन-बहन तक में ईर्ष्या जलन व नफरत इत्यादि बहुत गहरे तक पैठ जाता है। इतना गहरे पैठता है कि हमारा पूरा जीवन ही नफरत, ईर्ष्या, द्वेष जलन इत्यादि से ही नियंत्रित होने लगता है। परिणामतः हम ढोंग, फरेब व दिखावे में जीवन जीने लगते हैं, और इसी तरह जीने को जीवन जीने का सलीका मान लेते हैं।
जब अपने ही परिवार, अपने सगों के प्रति हम ऐसे भाव रखते हैं तो कल्पना कीजिए कि जिनको हम अपना दुश्मन मानने की मानसिकता के साथ बचपन से पले-बढ़े होते हैं, उनके प्रति कितने भयंकर ऋणात्मक भाव रखते होंगे। यही ऋणात्मकता हमें मनुष्य के तौर पर बहुत ही अधिक पीछे धकेलती चली जाती है। हमें पता ही नहीं चलता लेकिन हम मानसिक, भावनात्मक व वैचारिक रूप से अधिक और अधिक कुरूप मनुष्य बनते चले जाते हैं।
पाकिस्तान हो या बांग्लादेश भारत में जो भी वैध-अवैध शरणार्थी आए हैं, उनका बहुत बड़ा हिस्सा गैर-मुस्लिमों का रहा है। इसका कारण संभवतः यह हो सकता है कि पाकिस्तान व बांग्लादेश आधिकारिक तौर मुस्लिम देश हैं और वहां गैर-मुस्लिमों को सामान्य नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं हैं।
कारण कई हैं, आपस में बहुत अधिक गढ्ढमढ्ढ भी हैं। हमारी सामाजिक कंडीशनिंग, नफरत, अजानकारी तथा जानकारी के प्रति उपेक्षा की मानसिकता, पूर्वाग्रह इत्यादि कई आवेगों इत्यादि के कारण हमारे मन में यह चित्रण रहता है कि पाकिस्तान व बांग्लादेश निहायत ही सड़ियल देश हैं जहां के लोग घिसटते हुए जीवन जीते हैं।
इसी तरह की मानसिकताओं के कारण, पूर्वाग्रहों के कारण हम लोगों को यह लगता है कि ऊंची बिल्डिंगे खड़ी करने, सड़के बनाने, चकाचौंध होने से हम विकसित देश बनने की ओर लगातार तेजी से बढ़ रहे हैं। परिणामतः हम विकसित देशों के विकास को ढंग से, गहराई से जाने समझे बिना, भोंढे तरीके से सतही तौर पर नकल करने में पूरी ऊर्जा के साथ जुटे रहते हैं। हम अपने जीवन, परिवार, समाज व देश को बेहतर बनाने के लिए जीवन के प्रति समझ व दृष्टि विकसित करते ही नहीं हैं।
हम यह देखना व स्वीकारना नहीं चाहते हैं कि पाकिस्तान हो, बांग्लादेश हो या भारत सभी के समाजों व लोगों की मानसिकता व कंडीशनिंग का चरित्र समान है। तीनों देशों के समाज व लोग सामंती व भ्रष्ट मानसिकता के हैं। तीनों ही देशों के समाज, परिवार, लोग, व्यवस्थाएं व तंत्र कागजी लोकतंत्र हैं, न कि चारित्रिक तौर पर लोकतंत्र।
हम यह देखना व स्वीकारना नहीं चाहते हैं कि जैसे हमने अपने आपको बाजार बना लिया वैसे ही पाकिस्तान व बांग्लादेश भी तो अपने आपको बाजार बना सकते हैं। जैसे हमारे यहां करोड़ों लोग उपभोक्ता के रूप में उपलब्ध हैं, वैसे ही पाकिस्तान व बांग्लादेश में भी करोड़ों लोग उपभोक्ता के रूप में उपलब्ध हैं। जैसे हमारे यहां विदेशी कंपनियों ने अपना बाजार स्थापित करने के लिए चकाचौंध का विकास किया, उसी तरह पाकिस्तान व बांग्लादेश में भी विदेशी कंपनियों ने अपना बाजार स्थापित करने के लिए चकाचौंध का विकास किया।
हम यह देखना व स्वीकारना नहीं चाहते हैं कि जैसे भारत से पढ़े लिखे इंजीनियर व अन्य लोग विदेश जाते हैं वैसे ही पाकिस्तान व बांग्लादेश से भी जाते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि जैसे हम अपने बच्चों को घर, जमीन जायदाद बेचकर या गिरवी रखकर या बेईमानी निर्लज्जता झूठ फरेब भ्रष्टाचार से कमाए गए पैसों से विकसित देशों के संस्थानों में डिग्री पढ़ने के लिए भेजते हैं, वैसे ही पाकिस्तान व बांग्लादेश के लोग भी अपने बच्चों को भेजते हैं। विकसित देशों में भारत, पाकिस्तान व बांग्लादेश से आने वाले छात्रों का बहुत ही कम प्रतिशत छोड़कर जाते हैं भारी भरकम फीस देकर पढ़ने लेकिन माता-पिता झूठ बोलते हैं कि छात्रवृत्ति पर पढ़ने गए हैं। बचपन से लेकर मृत्यु तक पूरा जीवन ढोंग, झूठ व दोहरेपन में ही लिप्त रहता है, इसी तरह जीने को हम लोगों ने व्यवहारिकता मान लिया है, स्मार्टनेस मान लिया है।
हम यह देखना व स्वीकारना नहीं चाहते हैं कि पूजा-पाठ के तौर तरीकों इत्यादि जैसी कुछ बातों को छोड़ भारत, पाकिस्तान व बांग्लादेश के समाज व लोगों में चारित्रिक अंतर नहीं है। सैकड़ो-हजारों वर्षों की कंडीशनिंग को जीवन के प्रति सोच में आमूलचूल परिवर्तन किए बिना परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। यही कारण है कि अलग-अलग देश बन जाने के बावजूद, कई दशक गुजर जाने के बावजूद मानसिकता व कंडीशनिंग में चारित्रिक अंतर नहीं आया है।
हम कोरे व सतही राष्ट्र-गौरव के दंभ में इस कदर डूबे रहते हैं कि हम देखने व सोचने समझने की दृष्टि का विकास ही नहीं होने देते हैं, इतना ही नहीं दूसरों के द्वारा इस ओर किए जाने वाले प्रयासों का उपहास करते हैं, तिरस्कृत करते हैं, उपेक्षित करते हैं। ऊपर से हमारी राजनैतिक-साक्षरता मतलब करेला ऊपर से नीम चढ़ा जैसी स्थिति। हम यह समझना व स्वीकारना ही नहीं चाहते कि तीनों देशों के समाजों व लोगों का मूल चरित्र समान है, जबकि तीनों देशों के लोगों के चरित्र की स्थिति अपवाद छोड़ स्थिति-गति-परिस्थिति कमोबेश एक जैसी है, बाहरी आवरणों में कुछ अंतर भले ही हो सकता है।
चूंकि समाज एक ही था, तानेबाने का चरित्र कैसा भी रहा हो लेकिन बहुत गहराई से सामाजिक तानाबाना बुना हुआ था। देशों का अलग होना राजनैतिक सीमाओं का अलगाव था। समाज व लोगों का मूल चरित्र दशकों के राजनैतिक सीमाओं में अंतर के बावजूद समान ही रहा है। सामंती नौकरशाही, भ्रष्टाचार इत्यादि का चरित्र भी कमोबेश समान है।
विज्ञान, आधुनिक बाजार व आर्थिक तंत्रों ने जाति-व्यवस्था को कमजोर होने के लिए विवश किया है, भले ही शोषक वर्गों/जातियों का षणयंत्र व पुरजोर प्रयास रहता हो कि समाज व लोग जाति-तंत्रों में ही फसे रहें। यदि राजनैतिक दुराग्रहों से परे हम जाति व धर्म की गुलामी से स्वयं को मुक्त करके अपनी अगली पीढ़ियों, अपनी संतानों, अपने समाज व अपने देश के बारे में ईमानदारी से वस्तुनिष्ठता से विचार करें व निर्णय लें तो भारत, पाकिस्तान व बांग्लादेश के महासंघ की स्थापना सरलता से संभव है। यदि ये तीन देश महासंघ की स्थापना करते हैं तो यह सुनिश्चित है कि निकट भविष्य में इस महासंघ में नेपाल, म्यमनार, श्रीलंका, मालद्वीप व अफगानिस्तान भी स्वयं को सम्मिलित करना चाहेंगे।
बांग्लादेश — इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास
भारतीय हिंदू-समाज को पाकिस्तान के प्रति नफरत व गलतफहमी से बाहर आना होगा : पाकिस्तान में इन्फ्रास्ट्रक्चर
Vivek Umrao Glendenning "Samajik Yayavar"
- The Founder and the Chief Editor, the Ground Report India group
- The Vice-Chancellor and founder, the Gokul Social University, a non-formal but the community university
- World Peace Ambassador
- The Author, Books
After mechanical engineering graduation and research work in renewable energy systems, he preferred to work voluntarily without a salary with exploited and marginalised communities in very backward areas, rather than taking a job for money.
Getting a PhD scholarship in a European university for a student in India could be a lifetime dream for the people of third world countries, but he preferred to go to work with marginalised communities rather than to accept PhD scholarship by a European university.
To understand ground realities and non-manipulated primary information, he did many thousands kilometres foot-marches covering thousands of villages. By these intense foot marches, mass meetings and community talks, he had face-to-face dialogues with around one million people before the age of forty years.
He has been exploring, understanding and implementing the ideas of social-economy, participatory local governance, education, citizen-media, ground-journalism, rural-journalism, freedom of expression, bureaucratic accountability, tribal development, village development, reliefs & rehabilitation, village revival and other.
In India, he founded or co-founded or strongly supported various social organisations, educational and health institutes, cottage industries, marketing systems and community-universities for education, social economy, health, environment, social environment, renewable-energy, groundwater, river-rejuvenation, social justice and sustainability.
He got married to an Australian hydrology-scientist around fifteen years ago, but stayed in India for more than a decade to work for exploited and marginalised communities. Before marriage, they mutually agreed that until the ongoing works need their physical presence in India, they will not have a baby. That is why they did not make any effort to have a baby for eleven years after the marriage.
Many hundred thousand of people of marginalised communities of backward areas of India love and regard him, also have accepted him as their family. He left all these social-achievements and prestige for living as a forgotten person to become the full-time father for his son. Even before leaving India, he donated everything except some of his clothes, mobile and laptop.
Now he lives in Canberra with his son and wife. He voluntarily writes for Indian journals and social media on social issues. Also, he supports ground activists in India as a counsellor who work for the social solution. He is also associated with some international organisations who work for peace and sustainability.
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For Ground Report India editions, Vivek had been organising national or semi-national tours for exploring ground realities covering 5000 to 15000 kilometres in one or two months to establish Ground Report India, a constructive ground journalism platform with social accountability.
He has written a book “मानसिक, सामाजिक, आर्थिक स्वराज्य की ओर” on various social issues, development community practices, water, agriculture, his ground works & efforts and conditioning of thoughts & mind. Reviewers say it is a practical book which answers “What” “Why” “How” practically for the development and social solution in India.
At the Frontier Gandhi’s Abode:
Returning to Peshawar, I visited “Wali Bagh” – the country residency of Dr. Wali Khan, the illustrious son of
the late Frontier Gandhi, Abdul Gaffar Khan. “India had abandoned us”, wailed the Khan. He listed Pakhtoon
families who on the Frontier Gandhi’s call gave up guns, becoming “Unarmed Red Guard” and marched for Indian
Independence under the command of Mahatma Gandhi. The 15,000 khudai-khidmadgar (volunteers) went to
prisons and carried the Tourch of Freedom in the mountains of North-West Frontier region against the British Raj.
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The Congress Working Committee led by Jawaharlal Nehru accepted the Partition.
They did not consider the
future of the Pakhtoom people. They did not consult the Frontier Gandhi. Noreward, or recognition was given to
the sacrifices of the Pakhtoon people. Tagore’s Kabuliwalah notwithstanding, New Delhi government “had thrown
the Pakhtoons to the wolfs.”Dr. Khan said .
Dr.and Mrs. Wali Khan narrated atrocities committed by the Pakistani military dictators upon the helpless
Pakhtoon nation of the North West Frontier.
Cry for Freedom in Bangladesh was helped by India but the struggle
of the Pakhtoons was lost in the cold war strategy as the western powers (US and UK) used Islamabad to crush the
aspiration of the Pakhtoon nationalism.
But the Frontier Gandhi refused to recognize the Islamic Republic and “ he Willed
not to be buried in the Naa-Pak soil of Pakistan. “
The Frontier Gandhi’s last resting place is across the Khyber, in Pakhtooni soil of Afghanistan.
The Frontier Gandhi had spent eight years in prison under the British. But he was incastarated for
eighteen years by the rulers of Islambad. His son Dr. Wali Khan had spent three years in the British jail
butPakistani dictators kept him in prison for eight years. In the residency of Wali Khan, we- my wife and I witnessed the Saga of the Indian Freedom Struggle.
Thousands of photographs belonging to the 1942 Quit India years of our last Battle of Independence led by Mahatma Gandhi were spread over the entire library wall of the Khan’s residency.
इससे पहले भी सार्क के माध्यम से एक महासंघ बनाने की कोशिश की गई थी। यूरोपियन यूनियन से भी पहले लेकिन वह भी एक कागज़ी संघ ही रहा। भारत बंगलादेश के सम्बंध शुरू से ही मधुर रहे वर्तमान सरकार ने भी अपने प्रथम सत्र में 101 गांव देकर 51 गांव लिए ओर सीमा विवाद सुलझाया। यह एक अच्छा संकेत लगा था लेकिन अब चुनाव जीतने की भूख ने मूर्खतापूर्ण बयानबाजी बड़ा दी और इससे कई नुकसान हुए हैं।
सार्क व महासंघ में जमीन आसमान का अंतर है। सार्क बहुत ही अधिक सतही व बिना जवाबदेही का दिखावटी संघ है।
सार्क से भी पहले सार्क से बेहतर दुनिया में संघ बनते रहे हैं। योरपियन यूनियन व सार्क की कोई तुलना ही नहीं, जमीन आसमान का अंतर है। आपको थोड़ा अध्ययन करने की जरूरत है।
बेहतरीन जबरदस्त दृष्टिकोण
धन्यवाद
बहुत बढ़िया लेख।धन्यवाद आपका।
आपकी जय हो
सारगर्भित लेख, लेकिन दुःख की बात यह है कि इतनी समझदारी की उम्मीद करना व्यर्थ है!
प्रयास करते रहना चाहिए। भले ही भ्रूण हत्या होती रहे।
सार गर्भित लेख
धन्यवाद
इस मामले में मुझे मार्कण्डेय काटजू का दृष्टिकोण बहुत ही बेहतरीन दिखता है।भले ही ये कुछ लोगों को एक बूढ़े की सनक दिख सकती है….लेकिन मुझे उसमे एक ठोस ईमानदारी दिखती है उनकी।