Vivek Umrao "सामाजिक यायावर"
मुख्य संपादक, संस्थापक - ग्राउंड रिपोर्ट इंडिया
कैनबरा, आस्ट्रेलिया
आमुख
दरअसल समाज विकास की ओर दो तरीके से चलता है।
- स्वयं के भीतर से इवाल्व होते हुए, या
- विकसित समाजों की नकल उतारते हुए, ढोंग करते हुए, ढकोसले का आवरण ओढ़ते हुए।
जो समाज अपने भीतर से इवाल्व होते हैं, वे पीढ़ी दर पीढ़ी बहुत कुछ सीखते समझते परिमार्जित होते हुए चलते हैं। उनमें तर्कसंगतता, वस्तुनिष्ठता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, समाधान व सततता के प्रति समझ व दृष्टि भी स्वतः सीखने समझने की लंबी प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप विकसित होती चली जाती है।
जो समाज नकल उतारते हैं। उनमें तर्कसंगतता, वस्तुनिष्ठता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, समाधान व सततता का बुरी तरह अभाव रहता है। जिनके पास कुछ दिमाग हुआ वह अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने के लिए तर्क-तर्क की पुंगी बजाते रहते हैं, इन मूर्खों व दंभियों को यह भी समझ नहीं होती कि बिना वस्तुनिष्ठता के तर्क का कोई मायने नहीं होता, ऐसा तर्क कूड़े के ढेर में डालने लायक भी नहीं होता, क्योंकि कूड़े की जैविकता को नष्ट करके विषैला बना देता है।
लोकतंत्र हो या आर्थिक विकास या वैज्ञानिक विकास, भारतीय समाज ने अपने भीतर से धीरे-धीरे इवाल्व नहीं किया है, बल्कि नकल करके ढकोसले करते हुए ऊपरी आवरण ओढ़ लिया है। ऊपरी आवरण ओढ़ने के बाद भीतरी विकास की बात इसलिए बेमानी हो जाती है क्योंकि जिस बीमार मानसिकता के कारण ऊपरी आवरण ओढ़ा जाता है, वही मानसिकता ऊपरी आवरण की कशमकश में लिप्त रहती है। ऊपरी आवरण को बनाए व बचाए रखने के लिए भीतरी असलियत को वीभत्स तरीके से ढकने मूंदने का काम होता है। इसलिए मन में यह भ्रम बनाया जाता है कि आवरण ही असलियत है।
यह कुछ उसी तरह है जैसे जब कोई विदेशी बड़ा राजनेता आता है तो हम ईटों या फलेक्स या कपड़ों या ऐसी दीवारें बनाते हैं जिससे हमारे देश की गरीबी न दिखे, हमारा लीचड़पना न दिखे। हम इस गलतफहमी में रहते हैं कि हमने आवरण से ढक दिया है, हमने ढोंग कर लिया है ढकोसला कर लिया है तो हमारी असलियत छुप गई है बदल गई है, हम ऐसे व्यवहार करने लगते हैं मानो हमारी असलियत यही आवरण हो।
हम अपने आवरण व ढोंग को अपनी प्रतिष्ठा, गौरव, पहचान का मुद्दा बना लेते हैं। क्योंकि ज्यों ही हम आवरण व ढोंग को हटाते हैं तो हम बुरी तरह नंगे हो चुके होते हैं। इसलिए हम आवरण व ढोंग को ही अपनी उपलब्धियां व जीवन शैली मानने लगते हैं, अपने आपको आवरण व ढोंग के साथ बुरी तरह से जकड़ लेते हैं। तर्क गढ़ते हैं। सततता, वस्तिनिष्ठता की संभावनाओं के भ्रूण तक को नष्ट करने की जुगत में लग जाते हैं।
योरप समाज व्यक्तिनिष्ठ नहीं है, वह वस्तुनिष्ठता पर आधारित चिंतन व विचारशीलता से चलता है। हमारा समाज व्यक्तिनिष्ठ है, हमारा चिंतन मनन विचारशीलता व्यक्तिनिष्ठता से चलता है, हमारी तर्कशीलता वस्तुनिष्ठ नहीं होती। योरप मार्क्स को ईश्वर नहीं मानता क्योंकि योरप समाज जानता है कि मार्क्स के विचार जादू से या आसमानी ताकत से नहीं आए, बल्कि मार्क्स के पैदा होने से भी बहुत पहले से ही ऐसे चिंतन शुरू हो चुके थे, मार्क्स के चिंतन से बेहतर चिंतन हो चुके थे, मार्क्स के समय संयोग व अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य ऐसा रहा कि मार्क्स की मार्केटिंग अच्छी हो गई।
मार्क्स की जबरदस्त मार्केटिंग के बावजूद योरप समाज भ्रम या दुविधा में नहीं रहा। जब दुनिया के कई देश मार्क्स-मार्क्स, कम्युनिज्म-कम्युनिज्म का ढोंग चिल्ला रहे थे, और कम्युनिज्म का खोखला चोला ओढ़ कर केंद्रीय सत्ताओं का वीभत्स व भुरभुरा माडल खड़ा कर रहे थे।
तब योरप समाज अपने भीतर बेहतर लोकतंत्र की ओर धीरे-धीरे समझते बूझते लड़खड़ाते सीखते इवाल्व हो रहा था। आज योरप के समाज में लोकतंत्र लगातार परिष्कृत हो रहा है। इनके लोकतंत्र में समाजवाद भी है, साम्यवाद भी है, लोकतंत्र भी है।
प्रतिहिंसक विकृत नारीवाद
ऐसा ही नारीवाद के मसले पर हुआ। योरप में नारीवाद अपने भीतर से इवाल्व हुआ, जबकि हमारे भारत जैसे देशों में समाज ने नारीवाद की नकल उतारी, आवरण पहना, ढोंग किया, ढकोसला किया। योरप का नारीवाद प्रतिहिंसा पर आधारित नहीं है। जबकि हमारा नारीवाद प्रतिहिंसा पर ही आधारित है। योरप के नारीवाद में वस्तुनिष्ठता है, हमारे नारीवाद में व्यक्तिनिष्ठता है।
द सेकंड सेक्स की लेखिका योरप की थी, लेकिन उसे योरप में नारीवाद का आदर्श नहीं माना गया। लेकिन दुनिया के कई देशों के समाजों में सीमोन को नारीवाद का आदर्श माना गया, द सेकंड सेक्स किताब को नारीवाद की गीता के रूप में स्थापित किया गया। कारण वही था, क्योंकि हमारा नारीवाद हमारे भीतर से इवाल्व नहीं हुआ था, हमने नकल किया ढोंग किया ढकोसला किया।
हमारा नारीवाद भी नकल, आवरण, ढोंग व ढकोसले पर आधारित है। यही कारण है कि हमारे भारतीय समाज में नारीवादी-स्त्री का नारीवाद घृणा, प्रतिक्रिया व प्रतिहिंसा पर आधारित है। नारीवादी-पुरुष का नारीवाद लफ्फाजी, ढोंग व सतहीपन पर आधारित है। दोनों तरफ से भयंकर रूप से विकृत है। ऐसा विकृत-नारीवाद सस्टेनेबल व हारमोनिक समाज की ओर कतई नहीं बढ़ सकता, बढ़ता ही नहीं है।
योरप का नारीवाद नारी की महानता व विशिष्टता के मिथकों पर आधारित न होकर समानता पर आधारित है, तालमेल पर आधारित है, यही कारण है कि स्त्री पुरुष के संबंधो में दबाव नहीं है, प्रतिहिंसा नहीं है, घृणा नहीं है। प्रतिहिंसा व घृणा न होने के कारण ही नारीवाद विकृत-मातृत्व का वाहक नहीं बन पाता।
योरप के नारीवाद का आधार मनुष्य को समान मानना है। स्त्री मनुष्य है, पुरुष मनुष्य है, इसलिए दोनो समान हैं, सीधा सरल सपाट विचार। यही कारण है कि स्त्री को ही नहीं नवजात शिशुओं तक के अधिकार का हनन नहीं। नवजात शिशु छोड़िए गर्भ में रहने वाले बच्चों के प्रति संवेदना रहती है, उनके साथ प्राकृतिक अन्याय नहीं हो, इसका ध्यान रखा जाता है।
प्रतिहिंसा पर आधारित नारीवाद इतना विकृत होता है कि बच्चों के प्रति गहरी संवेदनशीलता नहीं विकसित होने देता है, उल्टे उन्हें हिंसक बनाता है। जैसे नारीवाद नकल, ढोंग व आवरण पर आधारित होता है वैसे ही बच्चों के प्रति विचारशीलता व संवेदनशीलता भी नकल व ढोंग आधारित होती है। बिना मौलिक समझ व्यवहार में प्रामाणिकता के ही लोग अपने आपको बाल मनोविज्ञान विशेषज्ञ मानकर खूब ज्ञान बांटते रहते हैं। लेकिन यदि इनके जीवन की सुरक्षा व व्यवस्था-तंत्र में छेड़छाड़ कर दीजिए, बच्चों के प्रति संवेदनशीलता व विचारशीलता की असलियत बाहर आकर फूटने लगती है।
हिंसक विकृत-मातृत्व
प्रतिहिंसा आधारित नारीवाद न केवल विकृत मातृत्व को पोषित करता है, वरन हिंसक व अप्राकृतिक प्रसव को भी प्रतिष्ठित करता है। विकृत नारीवाद का आधार मनुष्य रूपी समानता की बजाय प्रतिहिंसा होने के कारण स्त्री को इतना कुंठित, विकृत व हिंसक बना देता है कि स्त्री अपने ही बच्चों के प्रसव के लिए हिंसक व अप्राकृतिक तरीकों का प्रयोग करती है और गौरव महसूस करती है। उसको अपने बच्चों के प्राकृतिक विकास व तालमेल से मतलब नहीं होता, क्योंकि उसे तो प्रतिहिंसा को प्राथमिकता के साथ जीना होता है।
योरप का समाज जिसने नारीवाद, लोकतंत्र, व्यक्तिगत निजता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण को लगभग शून्य से विकसित करते हुए बहुत अधिक परिमार्जित किया, विकसित किया। जबकि भारत जैसे देशों के समाज नकल, ढोंग व ढकोसले इत्यादि को ही जीवन शैली मानकर लिप्त हो गए।
योरप समाज वैज्ञानिक व तकनीकी रूप से अकल्पनीय आगे है। चाहे तो हर महिला आपरेशन से बच्चा पैदा कर सकती है, बहुत ही सामान्य सी बात है। इसके बावजूद योरप समाज बच्चों के प्रसव की प्राकृतिक व्यवस्था में छेड़छाड़ तब तक नहीं करता जब तक कि जच्चा-बच्चा के जीवन को वास्तव में खतरा न हो।
योरप के अनेक देश तो ऐसे हैं जो प्रसव वाली महिला के घर में नर्स भेजते हैं जो प्राकृतिक तरीके से बच्चा पैदा करवाती है। ये देश चाहें तो अस्पतालों में भी प्राकृतिक प्रसव करा सकते हैं, लेकिन इन देशों का मानना है कि मां व बच्चे के मनोविज्ञान से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। योरप के अनेक देश ऐसे हैं जो महिला को अस्पतालों में कई दिन भर्ती रखते हैं लेकिन प्रसव प्राकृतिक तरीके से होता है।
तकनीकी रूप से इतना अधिक विकसित समाज, आर्थिक रूप से बहुत ही अधिक विकसित समाज, ऐसा क्यों करता है? जिस समाज की महिलाओं ने नारीवाद का बिगुल फूंका, दुनिया को नारीवाद की समझ दी, कि आज नारीवाद बहुत ही अधिक ऊंचे पायदानों पर खड़ा है। महिलाएं पुरुषों के साथ ही नहीं, आगे बढ़कर खड़ी हैं। ऐसा समाज व ऐसे समाज की महिलाएं नारीवाद के नाम पर प्राकृतिक प्रसव की बजाय, बिना शारीरिक पीड़ा वाला आपरेशन करके बच्चा पैदा करने को प्रतिष्ठित क्यों नहीं करतीं हैं?
कारण सिर्फ यह है कि योरप का नारीवाद समाज के भीतर से इवाल्व हुआ है, किसी दूसरे समाज की बेढंगी नकल नहीं है, फूहड़ ढोंग नहीं है, सतही आवरण नहीं है, ढकोसला नहीं है, प्रतिहिंसा व शोषण पर आधारित नहीं है। इसी कारण योरप का समाज अपनी पीढ़ियों के शारीरिक व मानसिक विकास के साथ छेड़छाड़ नहीं करना चाहता है। जिम्मेदारी महसूस करता है, ईमानदारी महसूस करता है।
हिंसक व अप्राकृतिक प्रसव
गर्भावस्था, भ्रूण में बच्चे का विकास व प्रसव यह सब कुछ प्राकृतिक नियमों व व्यवस्थाओं के तहत होता है, जब तक कि जानबूझकर छेड़छाड़ न किया जाए।
प्रसव की लंबी व व्यवस्थित प्रक्रिया होती है। प्रसव में होने वाली विभिन्न प्रकार की असुविधाओं व पीड़ाओं को छोड़कर भारत जैसे समाजों के स्त्री व पुरुषों को, प्रसव से जुड़े विज्ञान व प्राकृतिक व्यवस्था की समझ ही नहीं होती है। जो होती भी है वह मिथकों पर आधारित होती है, बहुत चलताऊ होती है। परिणाम यह होता है कि प्राकृतिक-प्रसव का संबंध गर्भाशय के फैलने सिकुड़ने व योनिद्वार के खुलने इत्यादि के कारण से होने वाली शारीरिक पीड़ाओं तक ही सीमित कर दिया जाता है।
गर्भ में बच्चे का विकास व प्रसव प्रकृति की अद्वितीय व ऑटोमेटेड व्यवस्थाओं में से है। प्रसव के समय विभिन्न प्रकार की फैलने सिकुड़ने की भाषाओं व कोडों के आधार पर शरीर बहुत प्रकार के ऐसे तत्व बच्चे को स्थानांतरित करता है जो उसके पूरे जीवन का विकास तय करते हैं। प्रकृति ने स्त्री के शरीर को प्रसव के समय व बाद में ऐसे कई प्रकार के अद्वितीय हार्मोन्स व तत्वों की सुविधा दी है जो उसके शारीरिक दर्द को सहन करने की ताकत देते हैं।
बच्चा जब प्राकृतिक रूप से पैदा होता है तो शरीर व बच्चे के बीच तालमेल होता है, हर एक पल की गतिविधि व्यवस्थित तरीके से संपन्न होती है। बच्चे को माता से झटके से अलग नहीं किया जाता है, बच्चे व माता के शरीर के साथ समन्वय रहता है। दोनों एक दूसरे को हर पल महसूस करते रहते हैं।
योरप समाज तो बच्चे व माता के मध्य तालमेल व प्राकृतिक नियमों को कम से कम छेड़ने के लिए कई कदम और आगे बढ़ चुका है। बच्चे के योनि से बाहर आते ही, तुरंत उसी पल माता के नंगे शरीर के ऊपर डाल दिया है ताकि बच्चा माता के शरीर की सुगंध, गर्माहट व अहसास पाता रहे।
आपरेशन के द्वारा पैदा होने वाले बच्चों की माता के शरीर का बच्चे के प्रसव के साथ प्राकृतिक तालमेल नहीं हो पाता। प्राकृतिक ऑटोमेटेड ढांचे व व्यवस्था को तोड़ दिया जाता है। आपरेशन के समय माता को इंजेक्शन दिए जाते हैं, आपरेशन के बाद माता ढेरों दवाएं खाती रहती है, जिनमें से अधिकतर हाई-डोज वाली एंटीबायोटिक्स दवाएं होती हैं। इंजेक्शन से लेकर दवाओं तक यह सभी अप्राकृतिक तत्व माता के शरीर से दूध के माध्यम से नवजात शिशु को पहुंचते रहते हैं। बहुत बार ऐसे आपरेशनों का साइड-इफेक्ट महिला आजीवन किसी न किसी बीमारी या शारीरिक असुविधा के रूप में झेलती रहती है।
योरप की अधिकतर महिलाएं तो प्राकृतिक प्रसव के बाद पेन-किलर तक नहीं लेती हैं, क्योंकि वे अपने बच्चों को मिलने वाले दूध में इन दवाओं का प्रभाव नहीं पड़ने देना चाहतीं हैं। यह महिलाएं ऐसा इसलिए सोच व कर पाती हैं क्योंकि उनका नारीवाद नकल नहीं है, ढोंग नहीं है, ढकोसला नहीं है, प्रतिहिंसा पर आधारित नहीं है।
भारत जैसे देशों में तो आपरेशन से पैदा होने वाले बहुत बच्चों को मां का स्पर्श तक नहीं प्राप्त होता है, कई-कई दिनों तक मां का दूध तक नहीं प्राप्त होता है। कई-कई दिनों तक नवजात शिशुओं को आईसीयू में रखा जाता है। मां का पेट काटकर बच्चे को जबरदस्ती खींच कर बाहर निकालने के बाद बच्चे व माता का संबंध ही तोड़ दिया जाता है, यही कारण है कि अधिकतर बच्चों को आईसीयू में रखने जैसा घिनौना कुकृत्य करना पड़ता है।
जिन लोगों को प्रसव विज्ञान, जच्चा-बच्चा विज्ञान की वास्तव में समझ है, और वे लोग ईमानदार हैं, ढोंगी नहीं हैं, ढकोसलेबाज नहीं हैं। उनको पता है कि प्रसव के समय प्राकृतिक व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ करना कितना वीभत्स, हिंसक व हानिकारक है। बच्चे के जीवन का पूरा का पूरा मनोविज्ञान तक बदल जाता है, भले ही हमें आभास न हो।
जिस समाज में बच्चा बढ़ा होकर नौकरी पा जाए, पैसा कमाने लगे, यही जीवन का लक्ष्य हो, सबकुछ यही सब से तय होता हो। उस समाज व माता-पिता को क्या अहसास होगा कि उनके बच्चे ने प्रसव के समय आजीवन के लिए क्या खो दिया?
स्त्री हो या पुरुष या समाज, यदि प्राकृतिक प्रसव की बजाय कृत्रिम प्रसव की वकालत करते हैं, तो ये लोग बहुत ही अधिक हिंसक, विकृत व मनोवैज्ञानिक बीमार मानसिकता के लोग होते हैं। और ऐसी बीमार मानसिकता की प्रतिष्ठा का मुख्य कारक-आधार प्रतिहिंसा आधारित विकृत-नारीवाद होता है।
Vivek Umrao Glendenning "Samajik Yayavar"
- The Founder and the Chief Editor, the Ground Report India group
- The Vice-Chancellor and founder, the Gokul Social University, a non-formal but the community university
- World Peace Ambassador
- The Author, Books
After mechanical engineering graduation and research work in renewable energy systems, he preferred to work voluntarily without a salary with exploited and marginalised communities in very backward areas, rather than taking a job for money.
Getting a PhD scholarship in a European university for a student in India could be a lifetime dream for the people of third world countries, but he preferred to go to work with marginalised communities rather than to accept PhD scholarship by a European university.
To understand ground realities and non-manipulated primary information, he did many thousands kilometres foot-marches covering thousands of villages. By these intense foot marches, mass meetings and community talks, he had face-to-face dialogues with around one million people before the age of forty years.
He has been exploring, understanding and implementing the ideas of social-economy, participatory local governance, education, citizen-media, ground-journalism, rural-journalism, freedom of expression, bureaucratic accountability, tribal development, village development, reliefs & rehabilitation, village revival and other.
In India, he founded or co-founded or strongly supported various social organisations, educational and health institutes, cottage industries, marketing systems and community-universities for education, social economy, health, environment, social environment, renewable-energy, groundwater, river-rejuvenation, social justice and sustainability.
He got married to an Australian hydrology-scientist around fifteen years ago, but stayed in India for more than a decade to work for exploited and marginalised communities. Before marriage, they mutually agreed that until the ongoing works need their physical presence in India, they will not have a baby. That is why they did not make any effort to have a baby for eleven years after the marriage.
Many hundred thousand of people of marginalised communities of backward areas of India love and regard him, also have accepted him as their family. He left all these social-achievements and prestige for living as a forgotten person to become the full-time father for his son. Even before leaving India, he donated everything except some of his clothes, mobile and laptop.
Now he lives in Canberra with his son and wife. He voluntarily writes for Indian journals and social media on social issues. Also, he supports ground activists in India as a counsellor who work for the social solution. He is also associated with some international organisations who work for peace and sustainability.
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For Ground Report India editions, Vivek had been organising national or semi-national tours for exploring ground realities covering 5000 to 15000 kilometres in one or two months to establish Ground Report India, a constructive ground journalism platform with social accountability.
He has written a book “मानसिक, सामाजिक, आर्थिक स्वराज्य की ओर” on various social issues, development community practices, water, agriculture, his ground works & efforts and conditioning of thoughts & mind. Reviewers say it is a practical book which answers “What” “Why” “How” practically for the development and social solution in India.
आपके लेख और विचार भारतीय समाज के बारे में मेरी समझ को परिष्कृत करने में बहुत सहायक रहे हैं ..
धन्यवाद रजनीश जी
भारतीय समाज विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। तत् समय तो इवाल्व हुआ ही प्रतीत होता है, भले ही विकृतियों के साथ क्यों नहीं!
हां विदेशी आक्रमणकारियों के बाद हम अपना स्वरूप खो बैठे हैं और अन्य समाजों का अनुसरण कर रहे हैं। नारीवाद हमारे प्राचीन इतिहास के रग रग में हैं, जिस पर हमें गर्व होना चाहिए।
यदि समाज के इतनी ही समझ है कि गर्व कर सके तो जिस पर गर्व करते हैं उसको जीने में क्या दिक्कत है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे पास मिथकों के अलावा गर्व करने लायक है ही नहीं।
सबकुछ इवाल्व ही होता है। कुछ न भी किया जाए तब भी इवाल्व ही कहलाएगा। समाज के लिए विकृति वाला इवाल्व होना, इवाल्व होना नहीं होता है।
भारतीय मानसिकता की पोल खोलता लेख
पोल तो दिखाई पड़ती ही है, लेकिन स्वीकारने का साहस नहीं होता।
आपके लेख और विचार भारतीय समाज के बारे में मेरी समझ को परिष्कृत करने में बहुत सहायक रहे हैं .. बहुत सारी बातें ऐसी हैं जो मुझे खटकती तो थीं लेकिन समझ नहीं पाता था कि समस्या क्या है और कहाँ है वे धीरे धीरे समझ आने लगीं.. कई ऐसी बातें थीं जिनके बारे में एकदम ग़लत समझ बना रखी थी वो टूटी ..
नारीवाद को लेकर भारतीय बुद्धिजीवी शहरी वर्ग जिस कदर अश्लील है उसे बेहद सहजता और गम्भीरता से आपने अपने लेख में दिखाया है. और भारतीय समाज के ढोंग ढकोसले की जड़ें और शाखाएँ कहाँ तक जाती हैं और कैसा प्रतिहिंसक समाज रचती चलती हैं यह बहुत साफ़ तरह से सामने लाने मेन सफल है यह लेख .
सजग टिप्पणी के लिए आपको साधुवाद।
आज प्रसव भारत मे बहुत बड़ा व्यापार है,हॉस्पिटल की पहली कोशिश रहती है कि मोटा माल कमाया जाए, जहां मरीज को देखकर आंखों में लालच उतर आये वहां इससे ज्यादा उम्मीद क्या की जाए,गलती हॉस्पिटल की भी नहीं मानी जा सकती
अस्पताल का लालच अलग है, लेकिन खुद लोगों की मानसिकता क्या है
भारतीय समाज की विकृतियों का शानदार चित्रण है उपरोक्त लेख में। हमारा समाज पितृ॒॒ सत्ता (patriarchal) रहा है सदियों से। नारीवाद की धारणा इवाल्व होने में समय लगेगा अभी, ऐसा मेरा मानना है।
नारीवाद का फिलहाल अनुसरण तो हम लोग कर रहे हैं, परंतु दुर्भाग्य से अभी तक नारीवाद ना हमारी सोच में हैं ना ही जीवन-शैली में इसे स्थान मिल पाया है।
उपरोक्त लेख चिंतन की दिशा में पहला कदम है।
आपकी जय हो नंगेपाव भाई
आपके लेखों ने हमारी समझ को बहुत बहुत नयापन दिया है।आपको पढ़ने पर बहुत बातें सही तरीके से समझ में आने शुरू हुई है।आपसे बहुत सीखने को मिलता है।
जर्रानवाजी का शुक्रिया विजेंद्र भाई
नारीत्व को समझाता हुआ एक बहुत ही सुलझा एवं सटीक लेख आपसे अपेक्षा है कि भारतीय नारियों की दुर्दशा एवं इससे बचने के उपाय के बारे में भी आप कुछ अच्छा लिखें जिसमें हम पुरुषों की नकारात्मक मानसिकता को कैसे बदल सकते हैं इस बारे में आपसे कुछ जानना चाहूंगी धन्यवाद
धन्यवाद। समय-समय पर लिखता रहता हूं। आप चाहें तो मेरी किताब “मानसिक, सामाजिक, आर्थिक स्वराज्य की ओर” पढ़ सकती हैं। किताब के बारे में कुछ जानकारी दी गई लिंक पर उपलब्ध हैं। https://www.vivekumrao.org/vivek/books/book2015/
भारतीय डॉक्टरों ने पैसा बनाने के लिए सामान्य प्रसव कराने लगभग बन्द ही कर दिए हैं!!!सिजेरियन ऑपरेशन और इनक्यूबेटर के बिना बात ही नही करते हैं!! जबकि हम तीनों भाई और हमारे पांच बच्चे मिशनरी अस्पताल में प्राकृतिक रुप से हुए हैं!!लेकिन ये भी पूर्णतया प्राकृतिक नही है!!गर्भ में तरल होता है,इसलिए पानी के अंदर प्रसव होने पर बच्चे को वही गर्भ वाला वातावरण मिलता है!योरोप में यही बहुत से लोग अपनाते हैं लेकिन भारत मे कहीं देखने मे नही आता!! रही बात नारीवाद की तो भारत मे नारीवाद को पुरुषों के खिलाफ हथियार बना लिया गया है!!पुरुष ओर स्त्री की समानता का जो स्तर पश्चिमी देशों में है वो भारत मे नही है!!सिगरेट और शराब पीकर पुरुषों से समानता को नारीवाद भारत मे मां लिया जाता है!!!!
डाक्टर तो जैसे हैं वैसे हैं ही। समाज के लोगों की मानसिकता भी ऐसी ही है।
Very good and analytical article. Writer has done a deep study over the subject.
धन्यवाद आपको
यह ढोंग और ढपोरशंखपन हमारे समाज की रग रग में रच बस गया है…..
युक्ति सुझाइए कि इस आवरण को समाज हटा सके। आपसे इस लिए कह रहा क्योंकि आपने बीमारी को अच्छे से डायग्नोज़ किया हुआ है।
व्यक्तिगत, पारिवारिक व सामाजिक हर स्तर पर सजगता व आत्मपरीक्षण ही एकमात्र युक्ति है।
बेहतरीन विश्लेषण है
हम अपने दिल से चाहे तो बेहतरीन से बेहतरीन प्राकृतिक जीवनशैली का आनन्द प्राप्त कर सकते हैं
मगर भेड़ चाल आपको मूर्ख व कायर कहकर आपके मनोबल को तोड़ने का प्रयास करती है
एक बच्चा जिसके जन्म से ६ घन्टे पहले हम दोनों दर्द के माहौल में लगभग ७ किलोमीटर टहले थे
बिना ऑपरेशन से पैदा बच्चा ४.२५० किलो का था
और भी बहुत कुछ
इसे कॉपी पेस्ट करके फेसबुक, आदि जगह फैला सकते हैं
आपका लेख इतना मौलिक और नयेपन से भरा होता है कि मन को झकझोर देता है। बहुत कुछ सीखने को मिला
धन्यवाद