Nishant Rana
Director and Sub-Editor,
Ground Report India (Hindi)
जेएनयू विरोध के नाम पर मुख्यत: हमें जो सुनाई दिखाई पड़ता है वह यह है कि जेएनयू में लड़के लड़कियां सेक्स कर लेते है, कंडोम का प्रयोग किया जाता है, किसी खास राजनैतिक विचारधारा को ज्यादा सपोर्ट करते है, देश विरोधी गतिविधियां होती है आदि आदि बातों को आगे बढाते हुए करते है।
ऐसा करने वाले अधिकतर लोग जो हमें दिखाई पड़ते है वह भी किसी राजनैतिक विचारधारा के पक्ष में झुके होने के कारण ऐसा कर रहे होते है व साथ के साथ अपनी कुंठित मानसिकता का प्रदर्शन कर रहे होते है। इस तरह एक विरोध वाले खुद निजी जीवन में धूर्त, व्यभिचारी, भृष्ट, महिलाओं, बच्चों का शोषण करने वाले व धार्मिक व जातिवादी मद में अंधे होते है। मैं कई ऐसे लोगों को जानता रहा हूँ जो रिश्तों के नाम पर खूब लड़कियों का शोषण करते रहे, जिम्मेदारियों के नाम पर भागते रहे, अबॉर्शन जैसी चीजें भी कराते रहे।
इस तरह के तर्क इनके ही जैसी मानसिकता वालो को खूब संतुष्ट करते है।
लेकिन
इस तरह के तर्क जेएनयू का पक्ष लिए जाने का कारण भी बन जाते है। इन्हीं तर्कों के कारण कि देखिए लोग किस तरह से विरोध कर रहे है और अपना पक्ष विरोधी के विपरीत वाले पक्ष को चुन लेते है।
अब मेरा सवाल ये है कि जेएनयू में क्या किसी बाहर देश के लोग आते है इसी देश समाज से आते है तो वह क्यों नहीं इसी तरह की मानसिकता वाले हो सकते। इससे भी बढ़ कर धूर्तता यदि चालाक हो जाए तो ऐसे विरोध को अपने पक्ष में क्यों नहीं भुना सकते?
इस तरह के तर्क से पक्ष हो या विपक्ष वस्तुनिष्ठ तार्किकता तो गायब हो ही जाती है।
आप जेएनयू के समर्थन कीजिये जो एक तरफ वाले गाली गलौज को हो हुड़दंग के साथ जत्थे के साथ हाजिर हो जाते है। आप विपक्ष लिखिए तो आपको सीधे उठा कर पहले वालो की कैटेगरी में रख दिया जाता है।
बहुत लोग जेएनयू के विरोध में इसलिये भी बात नहीं रख पाते कि एक तो अपनी इमेज का खतरा उपर से एक पक्ष तो कम से कम आपके साथ चल ही रहा था उनकी नाराजगी क्यों झेलनी। लाइक वगैरह कम हुए तो क्रांति कम हो जानी।
जेनयू का पक्ष लीजिए या विपक्ष लेकिन कई ऐसे पहलू है जिन पर बात ही नहीं की जाती है
सबसे पहले बात करते है पुलिस द्वारा उत्पीड़न की। भारत में पुलिस के काम करने की शैली और चरित्र की बात की जाये तो दिल्ली पुलिस को बाकी राज्यों की पुलिस की अपेक्षा कम बर्बर, कम भ्रष्ट माना जाता है। मान लेते है कि ऐसा नहीं भी है केवल दिल्ली पुलिस अपने आप को प्रायोजित कर जाती है। बाकी राज्यों की पुलिस तो अपनी इमेज को प्रायोजित करने के लिए भी तैयार नहीं है। यदि पुलिस का व्यवहार सारी मीडिया के सामने इस प्रकार का है तो यही पुलिस का व्यवहार बाकी राज्यों में बाकी छात्रों के साथ किस प्रकार का होता होगा इसकी केवल कल्पना भर कर लीजिए। नौकरशाही का व्यवहार आपके राजनैतिक पक्ष को तो ध्यान में नहीं ही रखता है यह तो आप भी जानते ही होंगे। आम आदमी किसी भी राजनैतिक पक्ष का हो नौकरशाही उसके साथ कीड़े मकोड़े वाला ही व्यवहार करती है। हर राज्य में सालों से छात्र प्रशासनिक उत्पीड़न झेल रहे होते है कितनों को ही कई कई सालों तक जेल में सड़ा दिया जाता है, हाथ पैर तोड़ कर घर बैठा दिया जाता है। यदि आप बाकी जगह से तुलना करेंगे तो बाकी जगहों को देखते हुए आप यह भी कह सकते है कि यहाँ तो कुछ होता ही नहीं है। यह सुविधा भी केवल जेनयू को ही प्राप्त है कि हर छोटी बड़ी बात पर अटेन्शन लेते है उसका लाभ उठाते है।
जेनयू को मैं एक सामंती चरित्र का संस्थान मानता हूँ बिल्कुल वैसे ही जैसे भारत में कुछ जातियों को सामंती अधिकार व लाभ प्राप्त है।
जेनयू के लिए कोई विषय मुद्दा केवल और केवल तब बनता है जब बात जरा सी भी इस संस्थान को मिलने वाले लाभ या अधिकार पर आती है। इसी बात को ये सभी लोगों का मुद्दा बना देते है। यह बिल्कुल वैसा ही है कि जब तक शोषित वर्ग का शोषण हो रहा मारा पीटा जा रहा सही गलत जैसे भी एनकाउन्टर हो रहा तो ठीक लेकिन जैसे ही जाति विशेष या धर्म की बात आयेगी तो इस समस्या को सबकी समस्या बता कर मुद्दा बनाया जायेगा।
जैसे कुछ जाति विशेष को मिली सुविधाओं के कारण भारत महान, विश्व गुरु का ढोल पीटा जाता है लेकिन भारतीय समाज को गर्त में ले जाने वाले लोग भी यहीं है वैसे ही जो सुविधाएं लाभ हर एक ब्लॉक स्तर पर होनी चाहिए थी, हर एक जगह के बच्चों को बराबर पढ़ने के अधिकार इतनी ही सुविधाएं होनी चाहिए थी वह कुछ संस्थानों तक समेट कर रख दी। इन बातों का पक्ष जेनयू कभी नहीं लेता, लेगा भी कैसे खुद के महान होने का, कंपटीशन की छंटनी से पैदा हुई विशिष्ठता का स्वाद फिर कैसे मिलेगा।
चूंकि आज तक विशेष सुविधाएं व लाभ कुछ ही संस्थानों को मिलते रहे है तो अधिकतर कलेक्टर, सचिव आदि इन्हीं संस्थानों से निकल कर आते रहे है। एक बार भी इन लोगों ने इन पदों पर मिलने वाले लाभ, सामंती आधिकारों पर प्रश्न उठाया हो तो बताया जाए। सवाल उठा ही नहीं सकते क्योंकि अपने आप को मिले लाभ आधिकारों को यह खुद की महानता और मेरिट के आधार पर डीजर्व करना मानते आये है, जब पूरी ट्रेनिंग जातिव्यवस्था की तरह भ्रष्टता को दैवीय अधिकार मानने से रही है तो पूरा जीवन खुद को महान समझते हुए भ्रष्टता को अपना अधिकार मानते हुए क्यों न जियेंगे। चूंकि मुख्य पदों पर आजादी के बाद से ही इन्हीं संस्थानों से लोग आते रहे है तो नीति बनाने से ले कर नीतियाँ लागू करने वाले पदों पर रहे है तो क्यों न माना जाये कि देश की ऐसी तैसी करने में इन्हीं लोगों का मुख्य योगदान रहा है।
किसी संस्थान कि गुणवत्ता का आधार यह तो बिल्कुल नहीं होता कि उस संस्थान के लोग नौकरियों पर व देश विदेश में कितना सेट होते रहे, मेरिट भी गुणवत्ता का आधार नहीं होता है यह नौकरशाही के व्यवहार से साफ साफ दिख ही जाता है और जब नौकरिया यहाँ के लोगों के लिए है तो यही के लोग नौकरियां करेंगे गुणवत्ता के आधार पर विदेश से तो लोग बुलाए नहीं जायेंगे। यहीं कारण है जिन सस्थानों को भारत में नंबर एक दो तीन बोला जाता है उनकी गिनती पूरी दुनिया में 500 तक नहीं होती है। यहाँ यह समझ लेना भी होगा कि किसी संस्था को अच्छे संस्था का दर्जा इस लिए नहीं मिल जाता है कि वह बड़ी बिल्डिंग के साथ खड़ा हुआ संस्थान है, भारत गिनती के संस्थानों में सुविधाएं है भारी फंड आदि की व्यवस्था है असल गुणवत्ता का मालूम ही तब पड़ता है जब हजारों कि संख्या में ऐसे संस्थान हो। छंटनी प्रतियोगिताओं के आधार पर कॉलेज में एडमिशन से लेकर नौकरियों तक में लोगो का लिया जाना कभी गुणवत्ता हो ही नहीं सकता। उल्टा सामंती मानसिकता विशिष्ठता को प्रयोजित ही करेगा।
पूरी दुनिया में यूनिवर्सिटी की रैंकिंग वहां के छात्रों द्वारा शोध पत्रों की संख्या और गुणवत्ता पर आधारित होती है। यह वह डॉक्टरेट पेपर होते है जो कठोर समीक्षाओं के बाद अंतरराष्ट्रीय ख्याति के जर्नल में प्रकाशित होते है। इन सब में आप दूर दूर तक नहीं आते है बात करते है आप मेरिट की, विद्वता की, चिंतनशीलता की। नौकरी लगवा देने से एक संस्थान महान हो जाता है तो कुछ कहने को रह ही नहीं जाता है, भाषण बाजी करना चिंतन या काम करना होता है तब भी कहने को कुछ रह ही नहीं जाता है।
यदि सोशल मीडिया की बयार में बह कर मान ही लिया जाये कि जेएनयू जैसे संस्थान से हर साल हजारों की संख्या में चिन्तनशील लोग निकलते ही रहते है तो देश छोड़ दीजिए, यहीं बता दीजिए दिल्ली के बगल में ही कूड़ा प्रबंधन के लिए कितना काम किया है, दिल्ली के बगल में ही विस्थापित मजदूरों की बस्तियां है वहां के बच्चों के लिए शिक्षा पर क्या काम किया है? यमुना की साफ सफाई जल प्रबंधन पर ही कुछ बता दिया जाये। अपने गांवों में जाकर क्या किया है यह ही बता दिया जाये।
नौकरी लगाना, विदेशों में सैटल होने के अवसर तलाशना, समाधान या रचनात्मक विकास के बारे में जरा भी विचार न करते हुए विरोध के ढोंग को जीना ही क्या विद्वता और क्रांति होता है?
गांव देहात का व्यक्ति यह नहीं देखता कि आप कितने बड़े लेख लिखते है कितना महान करुणामय लिखते बोलते है।
वह यह भी नहीं देख पाता कि तमाम भोग सुविधाओं के पीछे आपका भी जीवन दयनीय परिस्थितियों व शोषण से भरा हुआ है। वह यह भी नहीं देख पाता कि आप उन लोगों के लिए काम करते है जो उसके शोषण के लिए सीधे जिम्मेदार है। वह यह भी नहीं देख पाता कि आपको दिया जाने वाला मोटा पैसा उससे ही धूर्तता से लेकर आपकी जेब में आपको सहलाने के लिए डाल दिया जाता है। वह देखता है आपके जीये जाने वाले जीवन को, आपके द्वारा प्रायोजित महान जीवन को और वह लग जाता है अपने जीवन बच्चों को इसी सब की तरफ धकेलने में।
कोरी भावुकता, अहंकार, रोमांटिक क्रांति के पीछे लेखक, पत्रकार, समाजिक कार्यकर्ता आदि अपने समाज को गर्त में धकेलने की जिम्मेदारी से बच नहीं सकते।
आप यह मानने को तैयार ही नहीं है कि समाज से अलगाव आपने अपनी सामंती सोच और फूहड़ताओ के कारण अपने आप को अलग मानने की मानसिकता , सेलेब्रिटिज्म को जीने के लिए किया। बिना व्यवहारिक ज्ञान के, जीवन में उतारे बिना, समाज के साथ जुड़े बिना, बिना सुधारात्मक दिशा में काम किये एक दूसरे को पहनाए हुए विद्वता के तमगे निर्लज्जता से अधिक कुछ नहीं होते।
और देश में माहौल बनाने को राजनैतिक पार्टियों को भुनाने को फिर जब इतना सब तैयार मिल ही रहा तो केवल अन्ना हजारे टेक्निक ही थोड़े न है। ऐसी जगहों से बे-सिर पैर तरीको से केवल विरोध दर्ज करवा लीजिए लोग खुद ब खुद इनके विपक्ष में हामी भर कर तैयार बैठ ही जाते है। ऐसे विरोध के लिए तो राजनैतिक पार्टियां क्षेत्रीय राजनैतिक पार्टियां, राष्ट्रीय स्तर पर नेता तक खड़े कर देती है/बना देती है/प्रयोजित कर देती है आप तो फिर भी एक शिक्षण संस्थान है।
चलते-चलते :-
देश में शिक्षा स्वास्थ्य एक दम मुफ्त होना चाहिए एक समाज अपने देश के व्यक्तियों के लिए, बच्चों के लिए कम से कम इतना संवेदनशील तो होना ही चाहिए, लेकिन चलिए साथ के साथ यह भी देख लेते है कि जब हम जेएनयू में शिक्षा की फीस बढ़ाए जाने का विरोध कर रहे होते है तो यह भी देखना बनता ही न देश में 12वी तक शिक्षा लगभग फ्री ही रही है, सरकारी अस्पतालों में इलाज बेहद कम रुपयों में उपलब्ध रहा ही तो इन सब कि आज जो हालत है, सर्विस का स्तर जो एक निम्न से निम्नतम स्तर पर जाने पर लगा हुआ है इसके जिम्मेदार क्या विदेशों में रहने वाले लोग है। इसके जिम्मेदार उनमें नौकरियां करने वाले लोग जितने है उससे कहीं ज्यादा हम है। हमारा बच्चा कम फीस में गरीब तबकों के बच्चों के साथ कैसे पढ़ सकता है? महंगी फीस नहीं देंगे, महंगे ट्यूशन नहीं लगवाएंगे, कोचिंग नहीं करवाएंगे तो जिम्मेदार माता पिता होने का एहसास कहां से होगा ?
सामंतवादी मानसिकता बहुत बारीक चीज होती है। थोथी संवेदनशीलता दिखाने से यह ढक नहीं जाती है।
यदि हमने अपने आपको सरकारी बेसिक शिक्षा के साथ अपने बच्चों को जोड़ा होता , सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों से खुद को जोड़ा होता तो क्या ये सब सुधारात्मक दिशा में नहीं बढ़ गए होते। यहां तक कि प्राइवेट स्कूल, अस्पताल भी मजबूर होते सरकार के अंतर्गत ही काम करने को। सरकारे भी उसी स्वभाव की होती जो इन क्षेत्रों के प्रति जिम्मेदारी से काम करती। पूरा ढांचा ही अलग स्वभाव का होता, जब हमारा स्वभाव ही सामंतवादी है, दोगला है तो सरकारों भी ऐसे ही होनी है बिल्कुल कोई अंतर होना ही नहीं है। इन बातों का लेफ्ट राइट मानसिकता से कोई मतलब ही नहीं है।
इस तरह ढोंग को अपने जीवन में जीते हुए जब हम विरोध प्रदर्शन और समाज को गालियां दे रहे होते है तब हर तरह से समाज का नुकसान ही करते है चाहे यह जानबूझ कर किये जा रहे हो या अनजाने में। आप जेएनयू जैसे संस्थानों के पक्ष में लगातार खड़े रहते है मैं भी पूछता हूँ आपके ही दूर दराज के गांव देहात के लोग जिन्होंने इनके एडमिशन फॉर्म के बारे में भी नहीं सुन रखा होता उनकी क्या गलती कि वह इन संस्थानो से महंगी फीस भरे, शोषण झेले, कम सुविधाओं में रहे। आप क्यों नहीं इस बात का पक्ष लेते कि या तो हर जिले, ब्लॉक स्तर पर अच्छी यूनिवर्सिटी हो या सबको एक जैसा ट्रीटमेंट मिले।
वास्तविक क्रांति आपके जीवन के भीतर से उपजती है, यह आपकी जीवन शैली जीवन व्यवस्था को बदल कर रख देती है इस क्रांति का सामना करने के लिए वास्तविक ऊर्जा और हिम्मत की जरूरत पड़ती है, जब हम क्रांति को अपने जीवन में नहीं उतार पाते तब क्रांति के रोमांस से ही अपना मनोरंजन करके खुद के कुछ होने का एहसास कराया जाता है। बिना अपवाद भारत के अधिकतर आंदोलन इसी तरह की प्रयोजित रोमांटिक क्रांति के चरित्र के ही होते है इसीलिए देश समाज वहीं रहता है नेता, लेखक, पत्रकार, ब्यूरोकेट अपने अपने खांचों में जिस व्यवस्था से लड़ने का दिखावा करते है उसी को मजबूत करते हुए सफलता की सीढ़िया चढ़ते चले जाते है और समाज और ज्यादा गर्त में इसी तरह के व्यक्तित्वों का निर्माण करता हुआ बढ़ता चला जाता है।
जोरदार लेख।सब फर्जी क्रांतिकारी बनकर अपना स्वार्थ साध लेते हैं।उनको जमीनी हकीकत से कोई सरोकार नहीं होता,वे सुविधाओं को भोगते हुए समाज को गुमराह करने में लगे रहते हैं।
एकदम सटीक लेख।