कुछ छोटी कविताएँ

Veeru Sonker[divider style=’right’] [१] ‘निरुत्तर’ मैंने गंभीरता ओढ़ कर एक हलकी सी मुस्कुराहट के सहारे वह कई प्रश्न, जो मुझे फसा सकते थे उन्हें वापस प्रश्नकर्ताओ की ओर लौटा दिया. अब वह फसे थे और मैं गंभीर था मुस्कुराहट के निहितार्थों में वह एक जायज उत्तर तलाश रहे थे. और मैं तैयार था उन उत्तरो पर एक बार फिर गंभीर मुद्रा में मुस्कुराने को. [२] ‘तरीका’ मैंने सोचा मेरा तरीका… Continue reading

यूँ बनता है एक आदमी

Veeru Sonker[divider style=’right’] यूँ बनता है एक आदमी थोड़ा सा डर बटोरे हुए जो कहता है मैं नही डरता. चलने से पहले बहुत बार ठिठकता है और जेब मे पड़ी भाषा की गिन्नियां टटोलता है उसके बाद आदमी नही उसका जोड़-घटाव चलता है. जैसे नफरत चलती है जैसे सत्ता के पैर नाचते हैं जैसे लड़खड़ा जाती है एक उम्र बिना पिये ही. आदमी ही बताता है सबसे जोरदार नशा होता… Continue reading

शब्द नही, एक पूरा देश है

शब्द, शब्द की तरह नही आये वह आये थोड़ा सकुचाते हुए और, मैंने पूछा कैसे हैं आप! शब्द जो प्रत्यक्ष थे, स्वतः प्रमाणित थे आश्चर्य से भरे हुए, वह दुबारा आये तो अपने कपड़े उतारे हुए और, मैंने फिर पूछा मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ लौट गए शब्द इस बार आये, तो करुणा से भरे हुए थे दुख की छाया उनकी और बढ़ गयी थी जब मैंने उनसे… Continue reading

हमारे दौर के बच्चे

हमारे दौर के बच्चों की पतंग कट गई है उनकी दौड़ कहीं गुम है आसमानों में वे ताक रहे हैं दुख के उस आसमान को, जिसने खा लिया है उनकी पतंग को और उगल दिया है मौसमी बमवर्षक विमानों की चहल-पहल को हर पेड़ ने उनके ‘लंगड़ो’ के जवाब में अपनी खाली जेबें दिखा दी है मकानों की छतों पर भी नही मिल रही उनकी पतंग कुओं में लगाई गई… Continue reading