Mukesh Kumar Sinha
देखी है मैंने
ऊँची चहारदीवारियों के बीच
बड़े गेट के पीछे छिपा
बिन खिड़कियों का घर
चहारदीवारी में छिपके
सांस थामें
बिना हिले डुले
आहिस्ते से अपने टांगों पर
टिका हुआ घर
इंटरकॉम और
स्क्रीन वाले फोन के साथ
धुंधले पड़े गेट पे लगे
डोर आईज से
पूरा पता लेकर
बताता है सन्तरी
कोई आया है।
फिर भी, ऐसे घरों में
बना रहता है डर
बिन बच्चों के खिलखिलाहट के भी
हवाओं के सहारे झूलते झूले
उनींदी सी खोयी रहती है
किसी अनजाने के आने के उम्मीद में
जबकि
शेर से दिखने वाले
दहाड़ रहे होते हैं कुत्ते
पर, बैठे होते हैं
वो कुछ खास लोग
घर के अंदर
जहाँ होता है तलघर
बेशक इन घरों में भी
जीवंत होती हैं साँसे
पर रुक-रुक कर थमती सी लगती है
ये साँसे
ईंट गारे से नींव की शुरुआत के साथ
जिन्होंने पूरी उम्र काट दी फ़ुटपाथ पे रहकर
वे मजदूर बना रहे होते हैं विशाल घर
चंचल चमकते ख़्वाबों के साथ
बनता हुआ
विशाल महलों सा घर
कब पैसों की अधिकतम आवाजाही
और उसके बाद देख कर
सिसकता डर
मजार सा बन जाता है घर
अपने ख्वाबों की विशाल चमक को
आँखों के सामने खिलते देखने की चाह लिए
महल को मज़ार बनते देख
एकांतवास में
सिसकता है अंदर का डर
तभी तो
ठिठकती साँसों की सरगोशी में
परकोटों के सन्नाटों की चुभन
जोहती हैं आमद आहट का धन
चाहरदीवारी बनना चाहता है
किलकारियों वाला घर।

Mukesh Kumar Sinha