Vivek "सामाजिक यायावर"
वैशिष्ट्य
- मजबूत व बड़ी पथरीली चट्टानों वाले जिंदा पहाड़ को काटकर 22 फुट गहरी, 17 फुट चौड़ी व 2 किलोमीटर लंबी नहर निकाली गई। इस नहर को “रामरेखा नहर” नाम दिया गया है।
- श्रमदान, स्थानीय सामग्री, पत्थर, बालू इत्यादि सहित नहर व बांध की कुल लागत 5 करोड़ रुपए से अधिक।
- 100 गांवों के 40,000 से अधिक लोगों का सहयोग।
- 40 गांवों के 25,000 से अधिक लोगों के द्वारा श्रमदान किया जाना।
- प्रतिदिन 1000 से अधिक लोगों द्वारा 60 से अधिक दिनों तक सुबह से लेकर शाम तक श्रमदान किया जाना।
- औसतन 100 लोगों द्वारा प्रतिदिन सुबह से शाम, लगातार दो वर्षों तक श्रमदान किया जाना।
“बूढ़ा-बूढ़ी” वर्षा-जल संग्रहण बांध बनाना। मार्च 2016 के बाद से अब तक केवल 15 महीनों में दिखने वाले प्रभाव
(लाभ से प्रभावित गांवों व किसान परिवारों की संख्या तीन चार वर्षों में गुणात्मक रूप से बढ़ेगी)
- भारत की आजादी के पहले सूख चुकी “रामरेखा” नदी का कई दशकों बाद पुनर्जीवित होना व नदी में वर्ष भर पानी रहना।
- लगभग 100 गांवों को नहर व नदी के माध्यम से सीधा फायदा पहुंचना।
- 25,000 एकड़ से अधिक बंजर पड़ी कृषि-जमीन का सिंचित हो जाना।
- 10,000 से अधिक किसान परिवारों को आर्थिक लाभ पहुंचना।
- 50 करोड़ से अधिक प्रतिवर्ष आय का बढ़ जाना (100 गांवों के 10,000 से अधिक किसान परिवार)।
- लगभग 200 गांवों में जलस्तर की बढ़ोत्तरी स्पष्ट महसूस होना। जल स्तर में कम अधिक बढ़ोत्तरी लगभग 500 गांवों में।
- नक्सल गतिविधियों का लगातार तीव्रता से कम होना, जबकि यह इलाका पूरी तरह से नक्सल प्रभावित इलाका था। इलाके में जगह-जगह कोबरा बटालियन पड़ी रहतीं हैं।
बिहार राज्य के बहुत जिलों के ग्रामीण इलाके कम या अधिक स्तर पर नक्सल प्रभावित हैं। कुछ इलाके तो गंभीर रूप से नक्सल प्रभावित हैं वहां नक्सलियों का समानांतर सत्ता चलती है। गया, जहानाबाद व औरंगाबाद जिलों के कई इलाके गंभीर रूप से नक्सल प्रभावित हैं।
ऐसे ही गंभीर रूप से नक्सल प्रभावित एक पथरीली पहाड़ियों वाले बंजर व अतिपिछड़े इलाके के 40 से अधिक पिछड़े व गरीब गांवों के लोगों ने अनूठा इतिहास रच दिया। इन गावों के 25000 से अधिक लोगों ने लगभग दो वर्षों तक आर्थिक सहयोग के साथ श्रमदान भी किया। लगभग 100 गांवों के 40,000 लोगों ने आर्थिक सहयोग दिया। इस इलाके में जाने के लिए सड़के नहीं हैं। जहां तहां नक्सलियों के विभिन्न समितियों के नोटिश बोर्ड लगे मिल जाते हैं।
राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त सामाजिक क्षेत्र के सेलिब्रिटियों का कोई सहयोग नहीं। इन सामाजिक सेलिब्रिटियों को आमंत्रित करके स्थानीय मीडिया व स्थानीय लोगों को प्रभावित करने जैसे शार्टकट्स व सतही आयोजन नहीं।
किसी नौकरशाह या बड़े अधिकारी का सहयोग या नाम या प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष प्रभाव इत्यादि का कोई प्रयोग नहीं। किसी सरकारी विभाग, मंत्री या संस्थान का कोई सहयोग नहीं। किसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था का कोई सहयोग नहीं। स्थानीय क्षेत्र के बाहर के लोगों को जोड़ने या प्रभावित करने के लिए राज्य या देश की राजधानी में कोई धरना प्रदर्शन हंगामा या मीडियाबाजी नहीं।
ऐसा भी नहीं कि इन गांवों के किसान समृद्ध थे तथा उनके पास पैसा था या हर एक किसान परिवार के पास ढेर सारी जमीनें थीं। ढंग के संपर्क मार्ग तक नहीं। कई दशकों से आर्थक विभीषिका का दंशा झेलने वाला इलाका। पूरा का पूरा इलाका नक्सलवाद से प्रभावित।
बिना लागलपेट, सीधे तौर पर यह कह सकते हैं कि इस बृहद आयोजन में किसी प्रकार के शार्टकट के प्रयोग की संभावना नहीं, जबकि कुल छः वर्षों में लगभग चार वर्ष स्थानीय गांवों के ग्रामीणों को मानसिक रूप से तैयार करने में लगे।

शुरुआत
सन् 2011 में नक्सल प्रभावित इस इलाके के ग्रामीण गोकुल सामाजिक विश्वविद्यालय (गोकुल परिवार) के पास अपनी गरीबी, बेबसी व पानी की समस्या को लेकर आए। उनके आने का उद्देश्य था कि गोकुल परिवार इलाके की पानी समस्या हल करवाने के लिए सरकार पर धरना प्रदर्शन विरोध व मांग इत्यादि तरीकों से दबाव डालने में उनका सहयोग करे।
गोकुल परिवार ने प्रस्ताव दिया कि जब आप सन् 1952 से धरना प्रदर्शन विरोध व मांग इत्यादि तरीकों से सरकार पर दबाव डाल ही रहे हैं, और सरकार व सरकारी नौकरशाही के कानों में जूं तक नहीं रेंगती तो वही सब दोहराते रहने का औचित्य क्या है… बेहतर कि इस समस्या का समाधान हम और आप मिलकर खोजें।
गोकुल परिवार का यह जबाव संभवतः ग्रामीणों को अनपेक्षित लगा, इसलिए इस प्रथम मीटिंग के बाद जवाब लंबे समय तक नहीं आया। लेकिन गोकुल परिवार ग्रामीणों के संपर्क में बना रहा, उनको धीरे-धीरे प्रेरित करता रहा। धीरे-धीरे कुछ लोग सहमत हुए, फिर और लोग सहमत हुए। एक दिन ऐसा भी आया कि 40 से अधिक गांवों के पचीसों हजार लोग सहमत हो गए। हजारों लोगों का अनूठा कारवां बनने में लगभग चार वर्ष लग गए।
इस बांध व नहर के पहले गोकुल परिवार ने इस तरह का कोई काम न किया था। न ही कहीं से कोई फंडिंग का जरिया ही था। लेकिन गोकुल परिवार को यह विश्वास था कि राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मित्रों, शुभचिंतकों व नेटवर्क के माध्यम से काम कर ले जाएंगे।
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“रामरेखा” नहर
सैकड़ों लोग अपने-अपने गांवों से कुदालें, फावड़े इत्यादि लेकर आते और काम पर जुट जाते। सामाजिक काम था, हजारों लोग जुड़े हुए थे इसलिए स्थानीय प्रशासन भी विरोध नहीं कर पा रहा था। लोग अपने सिर व हाथों से पत्थर ढोकर लाते, ट्रैक्टर भी पत्थर व बालू ढोते। सैकड़ों हजारों ग्रामीण लोग अपनी शारीरिक क्षमता व स्थानीय उपलब्ध सामग्रियों के साथ जुटे पड़े थे। धीरे-धीरे औरंगाबाद जिले व पड़ोसी जिलों के समृद्ध व सामाजिक सोच के लोगों ने अपनी जेसीबी व पोपलेन मशीनें भी देनी शुरू कर दीं।
इतने बड़े सामाजिक आयोजन व प्रयास में प्रशासन के सहयोग की भी चर्चा कर ली जाए।
मजबूत चट्टानी पहाड़ काटने में भीषण दिक्कतें आ रहीं थीं। एक-एक चट्टान को काटने में कई-कई दिन, यहां तक कि कभी-कभी सप्ताहों लग रहे थे। इस संदर्भ में जब गोकुल परिवार के लोग नागरिक प्रशासन से सहयोग के लिए जिलाधिकारी के पास गए, तब जिलाधिकारी का कहना हुआ कि आप लोग सरकार को बिना रायल्टी दिए ही पहाड़ों व जमीन से पत्थर व बालू निकाल कर प्रयोग कर रहे हैं, चूंकि आपके साथ हजारों लोग साथ खड़े हैं इसलिए हम कोई कार्यवाही नहीं कर सकते हैं, कार्यवाही न करना ही हमारा सहयोग मान लीजिए।
पुलिस व कोबरा बटालियन का सहयोग यह रहा कि उनसे यह निवेदन किया गया कि इस सामाजिक आयोजन को नक्सल गतिविधि न समझा जाए। गांवों व लोगों का आर्थिक विकास होगा, जीवन को जीने में सहूलियत मिलेगी तो नक्सल समस्या भी घटेगी। पुलिस ने कभी किसी को परेशान नहीं किया। इस काम में प्रयोग होने वाले माल ढुलाई वाहनों को जांच इत्यादि के नाम पर बेजा परेशान नहीं किया।
रामरेखा नहर के निर्माण कार्य में लगभग दो साल लग गए। नहर का निर्माण कार्य बांध निर्माण कार्य के पहले शुरू हुआ और बाद तक चलता रहा। पहाड़ काटना आसान नहीं था, मजबूत चट्टानों वाला जिंदा पहाड़ था। लेकिन नहर बनाना बहुत जरूरी था क्योंकि वर्षा-जल संग्रहण वाले बांधे से पानी को नहर के माध्यम से ही गांवों तक ले जाना था। कल्पना कीजिए कि मजबूत चट्टानी पहाड़ को कितने तरीकों व परिश्रम से लोगों ने काटकर 22 फुट गहरी, 17 फुट चौड़ी व 2 किलोमीटर लंबी नहर कैसे निकाली होगी। लेकिन लोगों ने कर दिखाया। नहर का काम आज भी चल रहा है, नहर में पानी आने के बाद कमियों व गलतियों का अहसासा हुआ, इसलिए अभी नहर का काम चलेगा। इस 2 किलोमीटर लंबी नहर में लगभग 1.5 किलोमीटर नहर चट्टानी पहाड़ काट कर बनाई गई है।
रामरेखा नहर निर्माण में किसी संस्था का रंचमात्र कोई भी सहयोग नहीं। सबकुछ स्थानीय समाज के सहयोग से हुआ। बांध व नहर की कुल लागत का दो तिहाई से अधिक केवल रामरेखा नहर निर्माण की लागत रही।
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“बूढ़ा-बूढ़ी” बांध
रामरेखा नदी इतिहास में कभी बहती हुई नदी हुआ करती थी, बारहों महीने नदी में पानी रहता था। पिछले कई दशकों से नदी पूरी तरह से सूखी पड़ी थी। बरसात के दिनों में वर्षा होने के स्तर के आधार पर कुछ घंटे या कुछ दिन बहती थी, वर्षा के पानी को बहा ले जाने का काम करती थी। वर्षा का पानी जमीन के भीतर पहुंच नहीं पाता था, नदी में पानी रुकता नहीं था। गांवों की जमीने बिना पानी बंजर पड़ी हुईं थीं।
गोकुल परिवार ने निर्णय लिया कि रामरेखा नदी में वर्षा-जल संग्रहण के लिए बांध बनाया जाए ताकि पानी रुके, जमीन के अंदर जाए, इलाके के गांवों का जल स्तर ऊपर उठे, पानी की समस्या हल हो।
मुंबई, महाराष्ट्र के प्रतिष्ठित उद्योगपति परिवार की समाजसेवी सुश्री अमला रुइया गोकुल सामाजिक विश्वविद्यालय के संस्थापकों को व्यक्तिगत रूप से मित्रवत जानती हैं व वृहद सामाजिक परिवार का हिस्सा हैं। अमला रुइया जी की संस्था आकार चैरिटेबल ट्रस्ट, राजस्थान व अन्य राज्यों में स्थानीय लोगों के द्वारा किए जा रहे जल संग्रहण के प्रयासों को सहयोग करती है। अमला रुइया जी की संस्था ने बांध के निर्माण में तकनीकी व 25 लाख रुपए का आर्थिक सहयोग दिया।
बांध निर्माण का कार्य लगभग 6 महीने चला व मार्च 2016 में पूर्ण हो गया। बांध निर्माण कार्य में अमला रुइया जी की संस्था के 25 लाख रुपए के आर्थिक सहयोग के अतिरिक्त किसी संस्था या सरकारी विभाग का कोई आर्थिक सहयोग नहीं रहा, सबकुछ स्थानीय समाज ने अपने दम पर किया।
बांध निर्माण के स्थान व आकार का चुनाव व निर्माण इतना बेहतर किया गया तथा सन् 2016 में वर्षा भी अच्छी हुई कि केवल एक वर्ष की वर्षा के पानी से ही पूरा बांध भर गया। बांध से पानी के रिसाव व जमीन के भीतर पानी पहुंचने के कारण रामरेखा नदी में दशकों बाद पहली बार पूरे वर्ष पानी रहा। दोनों ओर के पांच-पांच, दस-दस किलोमीटर दूरी के पचासों गांवों में जल स्तर ऊपर उठ गया।
नदी से दूरी पर स्थित कई गांवों के लोग जिन्हें भूजल रिचार्ज की वैज्ञानिक जानकारी नहीं, उनको लगता है कि उनकी ग्राम-देवी ने अचानक प्रसन्न होकर कुओं का जल स्तर ऊपर उठा दिया है। इसलिए इसे ग्राम-देवी का चमत्कार मानते हुए बाकायदा पशु बलि के साथ पूजापाठ हवन इत्यादि धार्मिक अनुष्ठान किए हैं। ऐसा उन गावों में हो रहा है जिनको यह लगता था कि चूंकि उनके गांव नहर या बांध या नदी के निकट नहीं हैं इसलिए नहर व वर्षा-संग्रहण बांध निर्माण से उनके गांवों को लाभ नहीं पहुंचेगा, इसलिए उन्होंने इस सामाजिक आयोजन में भागीदारी नहीं की थी। गोकुल परिवार धीरे-धीरे अब इन गांवों में भी जल-साक्षरता का कार्यक्रम शुरू कर रहा है।
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स्थानीय ग्रामीण नेतृत्व
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गोकुल सामाजिक विश्वविद्यालय का संक्षिप्त परिचय
गोकुल सामाजिक विश्वविद्यालय की वैचारिक स्थापना सन् 2006/2007 में बिहार के औरंगाबाद जिले के एक गांव में संजय सज्जन सिंह, विवेक उमराव "सामाजिक यायावर" , संजीव नारायण सिंह व साथियों के द्वारा हुई थी। अशालीन भाषा में संजय सज्जन सिंह, संजीव नारायण सिंह व विवेक उमराव "सामाजिक यायावर” को गोकुल सामाजिक विश्वविद्यालय का संस्थापक कह सकते हैं। कुछ और अशालीनता के साथ यह जानकारी कि विवेक उमराव "सामाजिक यायावर”, गोकुल सामाजिक विश्वविद्यालय की स्थापना के समय से इस सामाजिक विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर हैं।
यह एक खुला सामाजिक विश्वविद्यालय है जो गाय, कृषि व प्राकृतिक संसाधन आधारित ग्रामीण अर्थशास्त्र, स्वावलंबन व विकास के संदर्भ में जीवंत व व्यवहारिक कामों व प्रयासों को शिक्षा मानता है। इस सामाजिक विश्वविद्यालय के कैंपस में तालाब है, गाय है, पेड़ हैं, खेती है, गांवों के गरीबे बच्चों के लिए कम संसाधनों से चलने वाला विद्यालय है। इस विश्वविद्यालय का यूजीसी जैसी किसी संस्था से कोई संबंध नहीं है और न ही पारंपरिक विश्वविद्यालयों जैसा विद्यार्थियों के लिए बड़े बड़े भवनों वाला सुविधा संपन्न कैंपस ही है। आर्थिक विपन्नताओं के कारण जब तक गोकुल सामाजिक विश्वविद्यालय कैंपस में शौचालय नहीं बने थे तब तक हम सभी लोटा लेकर खेतों में ही शौच के लिए जाते थे।
गोकुल सामाजिक विश्वविद्यालय को गांवों व लोगों से जोड़ने के लिए सन् 2008 में औरंगाबाद जिले व पड़ोसी जिलों के सैकड़ों गांवों की सघन पदयात्रा भी की गई थी। इसके बाद समय-समय पर पदयात्राओं की श्रंखला चली। पदयात्राओं के अतिरिक्त शिक्षा व ग्रामीण स्वावलंबन को लेकर गांवों में सेमिनार, सभाएं व चर्चाएं इत्यादि लगातार विभिन्न स्तरों पर आयोजित होती रहीं।
बिहार सरकार द्वारा शराब-बंदी करने के की वर्ष पहले से गोकुल परिवार शराब-बंदी के लिए अभियान छेड़े हुए था। इस अभियान में हजारों ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी शुरु हो चुकी थी। विभिन्न गांवों में शराब के ठेकों को अहिंसात्मक स्थानीय ग्रामीण जनांदोलनों के द्वारा बंद करवाए जाना शुरू हो चुका था।
गोकुल सामाजिक विश्वविद्यालय को सैकड़ों गांवों के लोग गोकुल परिवार के नाम से जानते हैं। गोकुल सामाजिक विश्वविद्यालय के पास तामझाम भले ही न हो। भले ही छोटा सा बेतरतीब सा ही कैंपस हो। लेकिन गोकुल परिवार की सामाजिक मुद्दों के संदर्भ में गतिविधियों के कारण साख व लोगों का विश्वास लगातार बढ़ता रहा।
Vivek Umrao Glendenning "Samajik Yayavar"
- The Founder and the Chief Editor, the Ground Report India group
- The Vice-Chancellor and founder, the Gokul Social University, a non-formal but the community university
- World Peace Ambassador
- The Author, Books

After mechanical engineering graduation and research work in renewable energy systems, he preferred to work voluntarily without a salary with exploited and marginalised communities in very backward areas, rather than taking a job for money.
Getting a PhD scholarship in a European university for a student in India could be a lifetime dream for the people of third world countries, but he preferred to go to work with marginalised communities rather than to accept PhD scholarship by a European university.
To understand ground realities and non-manipulated primary information, he did many thousands kilometres foot-marches covering thousands of villages. By these intense foot marches, mass meetings and community talks, he had face-to-face dialogues with around one million people before the age of forty years.
He has been exploring, understanding and implementing the ideas of social-economy, participatory local governance, education, citizen-media, ground-journalism, rural-journalism, freedom of expression, bureaucratic accountability, tribal development, village development, reliefs & rehabilitation, village revival and other.
In India, he founded or co-founded or strongly supported various social organisations, educational and health institutes, cottage industries, marketing systems and community-universities for education, social economy, health, environment, social environment, renewable-energy, groundwater, river-rejuvenation, social justice and sustainability.
He got married to an Australian hydrology-scientist around fifteen years ago, but stayed in India for more than a decade to work for exploited and marginalised communities. Before marriage, they mutually agreed that until the ongoing works need their physical presence in India, they will not have a baby. That is why they did not make any effort to have a baby for eleven years after the marriage.
Many hundred thousand of people of marginalised communities of backward areas of India love and regard him, also have accepted him as their family. He left all these social-achievements and prestige for living as a forgotten person to become the full-time father for his son. Even before leaving India, he donated everything except some of his clothes, mobile and laptop.
Now he lives in Canberra with his son and wife. He voluntarily writes for Indian journals and social media on social issues. Also, he supports ground activists in India as a counsellor who work for the social solution. He is also associated with some international organisations who work for peace and sustainability.
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For Ground Report India editions, Vivek had been organising national or semi-national tours for exploring ground realities covering 5000 to 15000 kilometres in one or two months to establish Ground Report India, a constructive ground journalism platform with social accountability.
He has written a book “मानसिक, सामाजिक, आर्थिक स्वराज्य की ओर” on various social issues, development community practices, water, agriculture, his ground works & efforts and conditioning of thoughts & mind. Reviewers say it is a practical book which answers “What” “Why” “How” practically for the development and social solution in India.
गोकुल सामाजिक विश्वविद्यालय के करता धर्ताओं, संस्थापक, वाईस चांसलर, गांव वालों, उनकी हिम्मत और लगन को साष्टांग प्रणाम।
बहुत ही sargarvitreoortधन्यवाद इसतरह के आलेख से मन नै उर्जा से भर जाता है प्रशंशनीय कार्य
बढिया! रामरेखा के कामसे सबमे व्यवसथा के प्रती जिमेदारी का भाव अऔर विश्वास बढेगा
व्यवस्था के प्रति नहीं समाज बिना प्रशासनिक व राजनैतिक व्यवस्थाओं के अपना काम स्वयं कर सकता है, इसके प्रति विश्वास बढ़ेगा।