भारतीय बाबाओं की अवसरवादिता एवं धूर्त्तता

Sanjay Shramanjothe

भारतीय इतिहास या संस्कृति के किसी भी मुद्दे पर बात करिए, एक बात भयानक रूप से चौंकाती है. सामान्य ढंग के भक्त और कम शिक्षित लोगों में जानकारी का अभाव होता है, इसलिए उनकी बातें बस प्रचलित नारों की प्रतिध्वनी भर होती है. खैर ये बात कम पीड़ित करती है. ज्यादा दुःख होता है रजनीश भक्तों से, इसमें श्री श्री और जग्गी वासुदेव के शिष्य भी जोड़े का सकते हैं. ये लोग एकदम दिशाहीन होते हैं.

बात बात में ध्यान या समाधि के अनुभव की बात करते हैं. सीधे जाकर ध्यान करने की सलाह देते हैं, सलाह देते हुए जताते जाते हैं कि ये तो बुद्धपुरुष बन ही चुके हैं। कोई भी मुद्दा हो उसकी ऐसी व्याख्या बताएँगे कि बस हंसने और रोने के आलावा कोई रास्ता ही नहीं बचता.

अभी नास्तिकता और बुद्ध पर बात निकली, दो रजनीश भक्त कहीं से निकल आये और कहने लगे कि शब्दों को छोड़कर अनुभव में जाइए बुद्ध आस्तिक और नास्तिक का अतिक्रमण हैं. ठीक है भाई. मान लिया भाई. अब इसका अर्थ आप ही समझाइये, अर्थ से ज्यादा इसके इम्प्लिकेशन पर भी आइये. ये लोग स्वयंसिद्ध बुद्ध पुरुष हैं. रजनीश ने ऐसे स्वयंसिद्ध लोगों की फ़ौज खड़ी की है और इसी फ़ौज की मूर्खता में वे खुद भी दब मरे. अमेरिका में उनकी जो गत हुई वो बाहरी षड्यंत्र से कम भीतरी षड्यंत्र से ज्यादा हुई.

इस झटके में जो बुद्धि आई उसके बाद उनका अंदाज ही बदल गया. लेकिन उसके पहले उन्होंने जो सैकड़ों किताबें रंग डालीं थीं उनकी मूर्खताओं से लोगों को निकालना मुश्किल है. ओशो बनकर उन्होंने खुद ही इन किताबों को नकारने का पूरा प्रयास किया था लेकिन भक्त क्यों सुनेंगे?और जो सुन ले वो फिर भक्त ही किस काम का.

अब बुद्ध और शून्य की बात करते हैं. रजनीश जिन्दगी भर समझाते रहे शून्य और पूर्ण एक ही हैं. उनकी भी बीमारी वही है जो उनके भक्तों की है. फल से पता चलता है पेड़ कैसा था. शुन्य और पूर्ण उनके लिए एक हैं. इसका मतलब हुआ कि जिस अनुशासन या अंतर्दृष्टि से शून्य का अनुभव होता है वो औपनिषदिक या ब्राह्मणी दृष्टि के समान ही है.

अगर ये बात सच है तो बुद्ध ने नाहक श्रम किया. रजनीश अगर सही हैं तो महावीर और बुद्ध दोनों मूर्ख हैं जो इतने साल तक वेदों और परमात्मा को नकारते रहे. भगवान रजनीश दर्शन की जलेबियाँ बनाते हुए कहते हैं कि जिस तरह शंकर प्रच्छन्न बौद्ध हैं उसी तरह बुद्ध प्रच्छन्न वेदांती हैं.

ये रजनीश के पाखण्ड की अंतिम उंचाई है. इसके बाद वे सीधे नीचे लुढकते हैं और रजनीशपुरम की राख में औंधे मुंह गिरते हैं. और ऐसे गिरते हैं कि उनकी तैयार की हुई फौज में से एक भी ऐसा आदमी आज तक खड़ा न हो सका जो उनके अंतिम समय की समझ को थोड़ा सा आगे बढा सके. सब के सब कॉपीराइट और सम्पत्ति के नाम पर लड़ रहे हैं।

जितने भक्त हैं वे सब दाढ़ी बढ़ाकर चोगा पानकर आँखें चौड़ी कर करके फोटो खिंचाते रहते हैं. कुछ अन्य हैं जो नोंनवेज जोक्स सुनाकर ही समाधि लाभ करते रहते हैं. अभी हरियाणा में एक आश्रम खुला है ओशो के नाम पर वे चौरासी दिनों में चौरासी लाख योनियों से शर्तिया छुटकारा दिलाते हैं. ये रजनीश की कन्फ्यूज्ड शिक्षाओं का स्वाभाविक परिणाम है. ये न हो तो आश्चर्य होगा. ये हो रहा है तो एकदम सही हो रहा है. कई सूरमा यहीं फेसबुक पर हैं, खुद के नाम के आगे ओशो लगाकर लोगों की कुंडलिनी जगा रहे हैं. मतलब खुद की तो जग गयी अब जगत का कल्याण कर रहे हैं.

एक अजीब सी प्रवृत्ति है इन वेद वेदान्त के प्रेमियों में वे किसी मुद्दे को उसके तर्क और उसके इम्प्लिकेशन के संदर्भ में देखते ही नहीं. कभी नहीं सोचते कि उनकी जलेबिदार व्याख्या का फलित क्या होगा. अब रजनीश को देखिये वे शून्य और पूर्ण को एक ही बताते हैं. इस व्याख्या में वे तर्क कम और आंतरिक अनुभव की ज्यादा बात करते हैं. इसे वे कहते हैं आंतरिक अनुभव की परिपक्वता और उससे जन्मी स्थित्प्रग्यता और तटस्थता. खुद तो इसे भांज ही रहे हैं औरों को भी ये जहरीली भांग तैयार करने का प्रशिक्षण दे जाते हैं.

अब उनके मूर्खता का आलम देखिये शून्य और पूर्ण एक ही हैं, भक्ति और ज्ञान एक ही है, कर्म और अकर्म एक ही है. तर्क और कुतर्क एक ही है. जय और पराजय एक ही है. तो फिर वही होना है जो आज तक हुआ है. फिर ये भी मान लीजिये कि रजनीशपुरम का होना और मिटना भी एक ही है. लेकिन जब रजनीशपुरम को बुलडोजरों से तोड़ा गया तब रजनीश बहुत क्रोधित हुए. जमाने भर में प्रेस कान्फ्रेरेंस करते रहे.

कुछ विडिओ तो ऐसे हैं जिनमे रजनीश पत्रकारों पर क्रोधित हो रहे हैं. अब कहाँ गयी तटस्थता?भक्त भी गजब हैं. कुछ फोटो हैं जिनमे रजनीश हथकड़ी लगाये खड़े हैं और मुस्कुरा रहे हैं. भक्त इसे शेयर करके कहते हैं कि ये है स्थितप्रज्ञ समाधिस्थ व्यक्ति जो दुःख में भी मुस्कुरा रहा है.

इन्ही भक्तों की वाल पर रजनीश का चीखता हुआ वीडियो भी मिलेगा उसके परिचय में लिखा मिलेगा – ओशो का रौद्र रूप. गजब है भाई. अब मुस्कुराहट और रौद्र रूप अलग क्यों हो गये? ये क्यों नहीं कहते कि ओशो संतुलन खो चुके हैं.

बस भक्त जन ऐसी ही जलेबियाँ बनाते हैं. भक्त किसी राजनेता के हों या धर्मगुरु के उनकी लीला ही न्यारी है. वो जो न करें सो कम है. दुर्भाग्य ये कि इन सभी भक्तों में अचानक भाईचारा जाग उठा है. कुम्भ मेलों के बिछड़े इन सभी भक्तों का अचानक से भारत मिलाप हो गया है.

Sanjay Jothe

लीड इंडिया फेलो हैं। मूलतः मध्यप्रदेश के निवासी हैं। समाज कार्य में पिछले 15 वर्षों से सक्रिय हैं। ब्रिटेन की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन में परास्नातक हैं और वर्तमान में टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी कर रहे हैं।

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