Mukesh Kumar Sinha
खिलखिलाहट से परे
रुआंसे व्यक्ति की शायद बन जाती है पहचान,
उदासियों में जब ओस की बूंदों से
छलक जाते हों आंसू
तो एक ऊँगली पर लेकर उनको
ये कहना, कितना उन्मत लगता है ना
कि इस बूंद की कीमत तुम क्या जानो, लड़की
खिलखिलाते हुए जब भी तुमने कहा
मेरी पहचान तुम से है बाबू
मैंने बस उस समय तुम्हारे
टूटे हुए दांतों के परे देखा
दूर तक गुलाबी गुफाओं सा रास्ता
ये सोचते हुए कि
कहीं अन्दर धड़कता दिल भी तो होगा ना
मेरे लिए
गुलाबी श्वांस नली, लग रही थी आकाशगंगा
और खोज जारी थी मेरे लिए धधकते गुलाबी दिल की
कुछ बृहस्पति ग्रह की तरह
खिलखिलाहट और मेरी खीज
अन्योनाश्रय संबंधो में बंधा प्रेम ही तो था
जिस वजह से
झूलती चोटियों के साथ तुम्हारी मुस्कुराती, गाती आँखें
और चौड़ा चमकता माथा
चमकीली किरणों सा आसमान एक
जो फैलकर
बताता सूर्योदय के साथ
कि पकी बालियों सी फसल बस कटने वाली है
या फिर
कुम्भ सा पवित्र चेहरा तो नहीं तुम्हारा
जहाँ त्रिवेणी छमकते हुए मिट जाती हैं
सुनो मेरी खीज से परे
बस तुम खिलखिलाना
सौगंध है तुम्हें
ताकि बस तुम हो तो लगे ऐसा कि
मेरे आसमान में भी उगती है धनक,
कभी न कभी
बारिश के बाद निकलती है एक टुकड़ा धूप
और खिलती है फ़िज़ा
सिर्फ मेरे लिए
सुन रहे हो न मेरी आकाश गंगा
सुनो कि
बार बार हूँ कह रहा
खूब खिलखिलाती रहना
महसूस करना
मेरे साथ बह रही एक नदी
मचलती, बिफरती, डूबती, उतराती
जीवंत खिलखिलाती नदी
बेशक मुझपर पड़ती रहे
मासूम बूंदों की फुहार ...
याद रखना नदियाँ चुप नहीं रहती
समझे ना !