भंगण मां — Vijendra Diwach

Vijendra Diwach

मैं एक औरत हूँ
मेरी जाति मुझे भंगी बतायी गयी है,
घर वालों ने बचपन से ही मुझे
हाथों में झाड़ू पकड़ाई है,
मेरी कमर में आभूषण के
रूप में झाड़ू ही सजायी है।

कोई मौसम नहीं देखते हैं
बस निकल पड़ते हैं,
कथित विद्वान चौक-रास्ते तो साफ करवाते हैं,
लेकिन अपनी सामन्ती सोच पर कभी झाड़ू नहीं मारते हैं।

गलियारे बुहारने पर मिल जाती है
कुछ रोटियां और थोड़ा अनाज,
कभी कोई बुलाकर पड़ोसियों को
देता है पुराने कपड़ो का दान,
खुला प्रदर्शन करके खुद ही खुद को
समझता है बन्दा नवाज।

एक सुबह
जाने वाली बारात का बैंड-डीजे बज रहा था
मेरी झाड़ू का तिनका-तिनका
रात्रिभोज में कथित सभ्यजनों द्वारा फैलायी गयी
गन्दगी पर चल रहा था,
शादी की सफाई में
कुछ हरी मिर्च और थोड़े टमाटर मिले,
रात के थोड़े कचौरे-पकौड़े भी मिले,
कुछ पकौड़े मुंह में डाले,
कुछ परिवार के लिये थैले में डाले।

एक बालक की नजर हम पर पड़ी,
उसकी जुबान कुछ इस तरह से चली-
मांजी ये कचौरे-पकौड़े बेसन के और कल के हैं,
आप बीमार हो जाओगे,
पेट बिगड़ जायेगा।

मैंने भी उत्तर दिया-
छप्पन भोग और खाने वालों के पेट खराब होते हैं,
बेटा हमें कुछ नहीं होगा।

वह फिर बोला-
हरी मिर्च और टमाटर के बीज निकाल के खाना,
सुना है इनके बीजों से पेट में पथरी बनती है,
मैंने फिर जवाब दिया-
बेटा जो पत्थर ही खाते हैं उनका क्या?
ज़िन्दगी तो उनकी पत्थरों के सहारे ही चलती है।

द्वार पर जाते ही
सब कहते हैं भंगण मां आ गयी,
ये मेरी तौहीन है या फिर मेरा सम्मान,
मैं भी खुद को भंगण मां कहने लगी हूँ,
भूल गयी मां-बाबा ने क्या रखा था मेरा असली नाम।

आज भी हम शमशान घाट से कपड़े उठाते हैं,
अर्थियों के कफनों से चादरें और कम्बले बनाते हैं,
आधुनिक कहे जाने वाले युग में
आज भी हम सामन्ती बेड़ियों में जकड़े जाते हैं,
सभ्यता का ढोंग करके
कुंठित लोग झूठे ही सभ्य होने का उत्सव मनाते हैं,
ऐसे झूठे उत्सव केवल इंसानियत को छलाते हैं,
एक नजर हम पर डालो
देखों कैसे जीवन हम चलाते हैं।

ये गलियारे तो हम सदियों से साफ कर रहे हैं,
मगर समाज और देश के
कथित विद्वानों अपने मन की भी सफाई करो,
इंसान को इंसान समझों,
सामान्य मानविकी को भी मानव स्वीकार करो,
भंगी और हमारे जैसी अन्य मैला ढोंने वाली जातियों को,
दिल अपना बड़ा करके
माथे पर बल लाकर रोटी देने की जगह
अपनेपन और शिक्षा का उपहार दो।
हमने तुम्हारें घर गलियारों को बहुत साफ किया है,
एक बार तुम भी हमारे घर गलियारों को देखों,
अपनी आँखों की असली पट खोलो,
हो यदि सच में तुम मानवीय तो
देखकर हमारा ज़िंदगीनामा द्रवित हो तुम्हारा ह्रदय,
तुम भी थोड़ा रो लो।

हमारे बच्चों की कमर में झाड़ू की जगह
कंधों पर किताबों का थैला हो,
उनकी भी आँखों में सुंदर भविष्य का सपना हो,
मानवता जगाने वाली शिक्षा से ही इनका वास्ता हो,
ये चले हमेशा नैतिकता पर चाहे कैसा भी रास्ता हो।
हमारी बेटियां भंगण मां नहीं अपने असली नामों से पहचानी जायें,
हमारी बस्ती भी इंसानों की बस्ती समझी जायें।।

Vijendra Diwach

Tagged . Bookmark the permalink.

36 Responses to भंगण मां — Vijendra Diwach

  1. Vikas Bhaskar says:

    Wow very nice story

  2. vinay kumar says:

    ek insaan ke bhav ki ati uttam abhivyakti

  3. Sachin Raj Singh says:

    आज की हकीकत को बयां करती, एक कथित आधुनिक समाज को आइना दिखाती बेहतरीन पंक्तियां।

  4. संजीव says:

    सुंदर कविता, प्रभावी चित्रण

  5. शीला डागा says:

    बहुत सटीक एवं अच्छा शब्दचित्र। भाषा की गलतियां हैं , पर कुछ ही।
    शहरों में तो यह सब दशाब्दियों पहले समाप्त हो गया।
    किसी ने अभिव्यक्ति तो दी इस कुप्रथा पर ।
    लेखक को साधुवाद।

  6. Balram says:

    Very nice poet

  7. CM Diwach says:

    Bahut shandaar…

  8. Gourishankar raigar says:

    दोस्त यह समाज का वास्तविक चित्रण, आपकी इस पहल से जरूर समाज में कुछ परिवर्तन होगा।
    आपकी इस कविता के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद

  9. Dinesh surela says:

    Nice post

  10. Sachin diwach says:

    Very nice poem

  11. पवन कुमार गर्ग says:

    गाँवों में अभी तक भी लगभग यही स्थिति है ।
    उस स्थति का चित्रण करने सफल हुई है यह कविता ।

  12. Anil Kumar says:

    Very good

  13. Kalu ram santoliya says:

    So nice

  14. Surendra Kumar bhasker says:

    So very very good

  15. रोहतास सिंह राणा says:

    जिनकी वजह से परिवेश साफसुथरा रहता है उनके प्रति समाज की सोच और सफाई वाली मां के मन की पीड़ा की सरल शब्दों में और सटीक अभिव्यक्ति।
    विजेंदर भाई आपका लेखन सामाजिक मुद्दों पर और धारदार और संप्रेषक हो ऐसी शुभकामनाएं।

  16. राजेन्द्र राज says:

    एक संवेदनशील व्यक्ति ही ऐसा सत्य बयान कर सकता है। साधुवाद।

  17. c.m.diwach says:

    बहुत ही बढ़िया कविता है । दिल को छूने वाली है

  18. Sunil saini says:

    बहुत ही बढिया कविता है

  19. Happy bablu says:

    Super bhai

  20. मार्मिक हकीकत से रूबरू करवाया कवि ने ,दिल को छूने वाली रचना।

  21. Vikas diwach says:

    Very nice poet

  22. Shiva Bajiya says:

    Wow hart touching story
    I impressed

  23. Hemant chabarwal says:

    Awesome

  24. Mohit kumar dudi says:

    Very very very nice bhaiya

  25. Hani says:

    Very very nice

  26. sandeep bhakhar says:

    अति सुंदर

  27. sandeep bhakhar says:

    अति सुंदर

  28. Raj jat says:

    बहुत खूब

  29. Raj jat says:

    बहुत खूब