वामपंथ के किलों में भाजपा ने वैसे ही सेंध लगा दी है, जैसे मध्यकाल में अफ़ीम के नशे में डूबे भारतीय शासकों को आक्रमणकारियों ने अपनी रणनीति और आधुनिक हथियारों से उखाड़ फेंका था- त्रिभुवन

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त्रिपुरा के चुनाव नतीजों का संदेश बहुत साफ़ है। आदिवासी कहे जाने वाले लोगों ने बहुत चौंकाने वाला फ़ैसला सुनाया है। त्रिपुरा के परिवर्तन से दिल्ली और शेष देश के स्वयं भू प्रगतिशील खेमे में वाक़ई हाहाकार मच गया है; क्योंकि त्रिपुरा के लाेक ने एक अलग तरह का निर्णय दिया है। यह निर्णय मुझे भी हत्प्रभ करता है, लेकिन यह बदलाव कई संदेश भी देता है। सच बात तो यह है कि वामपंथ के किलों में भाजपा ने वैसे ही सेंध लगा दी है, जैसे मध्यकाल में अफ़ीम के नशे आैर सुरा-सुंदरियों के वैभव में डूबे भारतीय शासकों को आक्रमणकारियों ने अपनी रणनीति और आधुनिक हथियारों से उखाड़ फेंका था। वामपंथियों के पास सुंदरियां तो नहीं, लेकिन वाग्विलास ज़रूर है। वामपंथी बुद्धिजीवी अब तक कांग्रेस सरकारों के माध्यम से वह सब हासिल करते रहे हैं, जो शायद उन्हें माकपा या भाकपा की सरकार बनने पर सपने में भी हासिल नहीं हो सकता। कांग्रेसी शासन संस्कृति ने गांधी जी के जमाने से ही बुद्धिजीवियों को नैतिक पथ से विचलित होना और इसके बावजूद गरजना बहुत सलीके से सिखा दिया था।

त्रिपुरा की 60 सदस्यीय विधानसभा में पिछले 25 साल से यानी साल 1993 से ही मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के नेतृत्व वाले वाम मोर्चा की सरकार थी। पिछले 20 साल से राज्य की बागडोर एक बेहद ईमानदार, नेकनीयत मुख्यमंत्री माणिक सरकार के हाथों में थी। पांच साल पहले 2013 में भाजपा ने इस राज्य में 50 उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें से 49 की जमानत जब्त हो गई थी और उसे महज 1.87 फ़ीसदी वोट मिले। वह एक सीट तक नहीं जीत सकी। माकपा को उस समय 49 सीटें मिली थीं और कांग्रेस को 10 सीटें। इससे साफ़ पता चलता है कि भाजपा के नेता कुछ कर गुजरने के उत्साह से लबालब भरे हैं और कांग्रेस का नेतृत्व आत्मघाती निकम्मेपन का शिकासर है।

माकपा मध्ययुगीन क्षत्रिय शासकों के अवतरण में आ गई है। उसके नेताओं को इस बात की कोई परवाह ही नहीं है कि कौन उनके किले में सेंध लगा रहा है और कौन उनके प्रवेशद्वार पर आकर तोपें तान चुका है। वे दिल्ली के अपने किलों में सुरापान और वाग्विलास में डूब चुके हैं। अगर आप अपने हीरे को कूड़े के ढेर पर फेंकेंगे तो पड़ोसी उसे उठाकर अपने यहां सजा ही लेगा। माणिक सरकार जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति को इतने साल तक क्यों त्रिपुरा में ही जर्जर होने दिया गया? क्यों राज्यों की बेहतरीन प्रतिभाओं को केंद्र में नहीं लगाया गया? अत्यधिक केंद्रीयकरण की शिकार अगर माकपा को लोग सत्ता से बाहर नहीं करेंगे तो कौन करेगा? क्या भाजपा ने अपने नेतृत्व को नहीं बदला? अगर भाजपा अपनी सबसे बेहतरीन प्रतिभा नरेंद्र मोदी को केंद्र में ला सकती है तो यह काम माकपा क्यों नहीं कर सकती?

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सच बात तो यह है कि माकपा में अपने ही पांवों पर कुल्हाड़ी मारने वाले और जिस डाल पर बैठे हैं, उसे ही काटने के लिए आधुनिक आरे लेकर बैठे नेताओं का बहुत बड़ा जमावड़ा दिल्ली में हो गया है। वर्तमान भारतीय जनता पार्टी ने नरेंद्र मोदी को 2013 में प्रधानमंत्री पद का दावेदार चुना और मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बनकर गुजरात से दिल्ली की राजनीति में सबसे ताकतवर पद पर बैठ गए। लेकिन यह मौक़ा भाजपा और मोदी से 18 साल पहले 1996 में अपनी बर्बादियों से अनजान कम्युनिस्टों को मिला था, जब यूनाइटिड फ्रंट ने ज्योति बसु को प्रधानमंत्री लगभग घोषित कर दिया। लेकिन माकपा के कूढ़मगज और यथास्थितिवादी जड़ता के शिकार नेताओं ने इसे मानने से इन्कार कर दिया और ज्याेति बसु का विरोध किया। अब अगर ऐसी पार्टी भारतीय राजनीति से तिरोहित नहीं होगी तो कौन होगा?

माकपा का दिल्ली नेतृत्व पिछले कुछ वर्षों से बहुत समझौतापरस्त रहा है। यह मैंने स्वयं देखा है कि राजस्थान में अमराराम जैसे नेता किस तरह कोई आंदोलन खड़ा करते हैं और जब सत्ता को उसकी ज्यादा आंच सताती है तो दिल्ली से एयरपोर्ट पहुंचे माकपा नेता वीवीआईपी लाउंज में ही मुख्यमंत्री से बातचीत करके किस तरह ऐसे आंदोलनों का मृत्युपत्र लिख देते हैं। क्या अमराराम, श्योपतसिंह, योगेंद्रनाथ हांडा से लेकर कई बड़े जमीनी लड़ाकों का जन्म अपनी गलियों के लिए ही हुआ है? क्या इनके हाथ में कभी दिल्ली की कमान नहीं आ सकती थी? या इन्हें कोई नेतृत्वकारी पद नहीं मिल सकता था? क्या उत्तर भारत में ऐसे प्रतिभाशाली नेता कम हुए हैं? लेकिन केंद्रीयतावादी माकपा बहुत लंबे समय से आत्मघाती खोल में जी रही थी और अब उसकी परिणति सामने आ गई है।

आज भी माकपा अपनी पुरानी जड़ता भरी मार्क्सवादी सोच से चिपकी हुई है और अपने भीतर बदलाव को तैयार नहीं है। कोई पूछे कि सीताराम येचुरी और प्रकाश कारात ने ऐसा क्या किया है, जो ये लोग आज भी केंद्रीय कमान संभाले हुए हैं? क्यों इनकी जगह ऊर्जा से भरे और भारतीय समाज के बदलाव के तत्पर राज्य स्तरीय नेताओं को केंद्र में लाया जाता? यह पार्टी कब तक दकियानूसी सादगी से चिपकी रहेगी? मोबाइल फाेन तक का इस्तेमाल न करने वाले कम्युनिस्ट नेताओं को आज का मतदाता क्यों कर चाहेगा? नई तकनीक से आप कब तक दूरी बनाएंगे? इसका साफ़ सा मतलब है कि भारतीय मतदाता ने अपनी जागरूकता के हिसाब से फ़ैसला किया है और उसने ईमानदार मुख्यमंत्री के नेतृत्व में काम करने वाली एक निकम्मी सरकार को उखाड़ फेंका। निकम्मेपन ने मध्यकालीन इतिहास के कौनसे गुण को बचने दिया था?

भारतीय जनता पार्टी की जीत का इसे अच्छा संकेत कहा जाए कि कश्मीर के बाद इस पार्टी का दूसरा खतरनाक पाखंड, समझ नहीं आता। जैसे कश्मीर में भाजपा ने अलगाववादियों के साथ सरकार बनाई है, उसी तरह वह त्रिपुरा में भी वामपंथी किले को ढहाने के लिए उस आईपीएफटी से गठबंधन में चली गई है, जो त्रिपुरा के अल्पसंख्यकवादी जनजातीय लोगों के एक अलग राज्य की मांग कर रही है। अगर यह भाजपा की सोच में आया बदलाव है तो यह स्वागत योग्य है, लेकिन अगर यह सिर्फ़ राजनीतिक चालाकी और सत्ता हासिल करने भर का कुटिल खेल है तो इसके नतीजे घातक निकलेंगे। इस पूरे चुनाव परिणाम का एक सबक ये है कि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व सिर्फ़ देश में बुरा होने की बाट जोह रहा है। भाजपा के शासन में बड़ी से बड़ी खामियां हों और सत्ता के बेर उसकी झाेली में आ गिरें। यह बहुत ख़तरनाक़ और बुरी सोच है, जो कांग्रेस का मूच चरित्र है। आंदोलनहीन और बिना जिस्म में जुंबिश लाए, ये जिस तरह की राजनीति करती है, वह देश के लिए ख़तरनाक़ है।

Credits: Tribhuvan's Facebook profile

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