Prem Singh
सन सत्तर के दशक तक अर्थात हरित क्रांति के पूर्व तक बुंदेल खंड के गावों मे खेतों (उत्पादन एवं उत्पादकता ) एवं किसानों की हालत बताने वाली पीढ़ी आज भी जीवित है। मार (black cotton soil) जमीनों मे 8से 10 कुंतल प्रति एकड़ बिर्रा,तिफरा,10 से 12 कु.प्रति एकड़ चना या मसूर,इसी प्रकार रांकड़ या पंडुवा खेतों मे खरीफ की फसलें ली जाती थीं,जिससे 10 से 12 कु. प्रति एकड़ तक, ज्वार, अरहर, मूंग, तिल, उड़द आदि सब मिलकर हो जाता था। बिशेष बात यह थी, कि यह सम्पूर्ण उत्पादन लागत शून्य था। प्रत्येक घर मे 10-20 पशु थे, बीज, खाद, जुटाई, बुवाई आदि समस्त कृषि क्रियाओं मे आत्म निर्भर थे, बाज़ार से कुछ भी नहीं आता था। प्रत्येक घर मे समृद्धि थी, जो स्वस्थ पशुओं एवं घर मे सोना चाँदी के आधार पर आँका जाता था। आपस मे विश्वास और सहयोग था। यह स्थिति छोटे-बड़े सभी कास्त कारों की थी।
बुंदेल खंड मे हरित क्रांति का विस्तार 80 के दशक मे हुआ, सरकार ने कृषि विश्वविद्यालय, रिसर्च इंस्टिट्यूट एवं कृषि विभाग बनाकर भौतिक वादी, लालच आधारित खेती को किसानों के मध्य भय/प्रलोभन के सहारे प्रचलित कराया। तर्क राष्ट्रिय खाद्यान्न उत्पादन मे आत्मनिर्भरता का दिया। जिसको पूरा हुआ भी बताया जाता है।आज इस आत्म निर्भरता के वाहक किसान एवं उसके खेतों का हाल बुरा है।
सर्व प्रथम, रासायनिक उर्वरक, जिनमे डीएपी/यूरिया प्रमुख थी,किसानों तक पहुंचाया गया । ब्लॉक स्तर पर कर्मचारी सक्रिय किए गए, रसायन न बेच पाने पर उनके वेतन से पैसा काटा गया । कृषि अधिकारी किसानों के खेतों मे छल पूर्वक, चोरी से डाल कर इनका आदी बनाया। गाँव मे आज भी ऐसे लोग जीवित हैं,जिन्होने दबाव मे पैसा (उस समय एक बोरी dap और एक बोरी यूरिया के लिए 35 रुपया) कटवा दिया किन्तु यह रसायन नहीं खरीदा, क्योंकि वे यह जानते थे,कि इसके प्रयोग से तात्कालिक लाभ तो होगा पर आगे चल कर हमारी ज़मीनें कम उत्पादक या बंजर हो जाएंगी। उनके इस कृषि ज्ञान एवं दूरदर्शिता को पिछड़ा पन बताया गया।
रासायनिक उर्वरकों के बाद, भारी मशीनों ट्रेक्टर, हारवेस्टवेर आदि के लिए प्रेरित किया,जिससे किसानों की पुस्तईनी कमाई,सोना-चाँदी घर से बाहर निकल गई। मशीन बनाने वाली कंपनियों/बिक्रेता, बैंक एवं सरकार का नापाक गठबंधन बना, कर्ज आसान और अनिवार्य किए गए। यही ट्रैक्टर कालांतर मे किसानों के प्राण संकट साबित हुये और आत्महत्या का वायस बने, जिसमे KCC (किसान क्रेडिट कार्ड) ने आग मे घी का कम किया। किसान पशु विहीन हो गए, उर्वरता अलग प्रभावित हुई।
इसी बीच 80 के दशक मे ही उन्न्त बीजों के नाम पर,किसानों के हजारों वर्षों से सँजोये गए, हर मौसम के अनुकूल परीक्षित, बीजों को प्रचलन के बाहर किया। यह कह कर कि सरकारी उन्न्त बीज ज्यादा उत्पादन देते हैं, जो कालांतर मे झूठा साबित हुआ। (यह बीज बिना रासायनिक उरवरकों,अधिक पानी के बिना कुछ भी पैदा नहीं होता, जबकि हमारे देसी बीज बिना लागत के भी उत्पादन देते थे। यह रसायन बेचने की साजिश है।) इसके लिए अलग से बिभाग बनाया गया, बड़े-बड़े गोदाम बनाए गए। साथ मे यह बीज बुवाई के समय 2 से कई गुने अधिक दामो पर सरकाई गोदामो से ही बेंचे जाते हैं। इसने भी किसानों के ऊपर लागत का अनावस्यक बोझ बढ़ाया। बीजों के प्राक्रतिक स्वाद एवं पौष्टिकता चली गई वो अलग।
पशुओं के नस्ल भी, अधिक दूध का लालच देकर, कृत्रिम गर्भाधान से बिगाड़ दिये, इनमे जेनेटिक्स के नियमों का पालन भी नहीं किया गया। जिसका परिणाम औसत से भी कम दूध देने वाली गायें एवं जुताई के अयोग्य बछड़े पैदा हुए, जिनको भूसे एवं सार्वजनिक चरने योग्य ज़मीनों के अभाव मे (जिनका सरकारों द्वारा ही ब्यक्तिगत पट्टा कर दिया गया ) किसानों को छुट्टा छोंडना पड़ा। इस अन्ना प्रथा ने किसानों के लिए किसानी दूभर कर दी है। इसकी भी मूल जिम्मेवार भी सरकार ही है।
इस तरह पशु शक्ति के प्रचलन बाहर होने से एवं रासायनिक खेती के प्रयोग से किसान को डीजल, पेट्रोल, बिजली के भरोसे होना पड़ा। इनका मूल्य सुरसा के मुह की तरह किसानों के उत्पादन से बड़ा ही रहता है। इन की कीमत सत्तर के दशक की तुलना मे आज सत्तर गुना बढ़ी हैं।
एक भ्रम ने जो किसानों के मध्य प्रचलित किया गया, ने किसानों की एवं उनकी जमीनों की उर्वरता की कमर ही तोड़ दी वह है एक तरह की खेती करना (monocroping) से अधिक उत्पादन होता है। जबकि बुंदेलखंड मे किसान खरीफ मे 5 से 6 फसले, रवि मे 3 से 4 फसलें एक साथ ले लेते थे। इससे जमीन की उर्वरता बनी रहती थी,मौसम से सुरक्षा थी,किसी न किसी फसल का बहुत बढ़िया उत्पादन हो जाता था और बाज़ार मे भी किसी न किसी फसल को अच्छी कीमत मिल जाती थी,अर्थात किसान सब तरह से सुरक्षित रहता था।
इस तरह सरकार प्रायोजित खेती करने से,किसान की लागत मे अनावश्यक वृद्धि हुई, आत्मनिर्भरता समाप्त होकर खाद, बीज, मशीनों, डीजल ,पेट्रोल, कीटनाशक, बिजली, पानी, श्रम आदि सबमे निर्भर हो गया। इनके मूल्य और किसानों के उत्पादों के मूल्य ,जो की सरकार ने ही अपने हाँथ मे ले रखे हैं, मे कोई अनुपात नहीं है। एक तरफ लागतों का मूल्य निर्धारण अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों के आधार पर किया जाता है,जबकि किसानों के उत्पादों के मूल्य निर्धारण हेतु आज भी सरकारी बिभाग बना रखे हैं, यह भी सरकार की किसानों के प्रति नियति के उपर प्रश्न चिन्ह है। हमारे किसान आंदोलनो को मूल नीतिगत मुद्दों से हटाकर बिजली, पानी, मूल्य, सब्सिडि आदि के भ्रामक तथ्यों मे उलझा कर समाप्त कर दिया जाता है। और किसानों को जाति,वर्ण,पार्टी आदि मे बांटे रह कर संगठित नहीं होने दिया जाता।
परिणाम स्वरूप,एक तो, आज किसान कर्ज ग्रस्त है और खेती के लिए बाज़ार आश्रित। इस दशा मे पहुंचाने का काम किसने किया? यह मूल प्रश्न है। दूसरे,जमीन की उत्पादकता,जो बुंदेल खंड की मार जमीने औषतन 10 से 12 कु./एकड़ उत्पादन देती थीं, वह भी बिना किसी बाहरी लागत के, आज भारी लागत लगाने के बाद भी, 4से 5 कु/एकड़ से अधिक नहीं है। इसी प्रकार खरीफ़ मे पूरे बुंदेलखंड मे ज्वार,बाजरा,मूंग,उड़द,तिल आदि इतनी अधिक मात्रा मे होता था कि ज्वार के खरीद दार न होने कि वजह से किसान भूसे मे मिला कर जानवरों को खिला देते थे,आज नदारद है। धान जो केन कैनाल के किनारे बुंदेल खंड के कुछ हिस्से मे होता था, 20कु/एकड़ तक गुरमटिया, लकड़ा, बाबा धान आदि, वह भी बिना रासायनिक के प्रयोग के, लेकिन आज सब गायब है। अब मूल प्रश्न यह है, कि यदि किसानों के खेतों की उर्वरता ही नष्ट हो गई है, उत्पादन ही घट गया है,तो किसान दे कहाँ से? जो थोड़ा बहुत पैदा भी होता है, उससे पूरा भर पेट खाना भी नहीं चलता, ऊपर से बढ़ी हुई लागतों एवं बैंक की साहूकारी प्रव्रत्ति की ब्याज का बोझ, मंहगी शिक्षा, महंगी स्वस्थ्य सुबिधाए, महंगा न्याय और भ्रस्ताचर के अंतिम शिकार हम किसान ही हैं। ऊपर तक पहुँचने वाली घूस अंततः किसान (उत्पादक)से ही वसूली जाति है, कोई भी अपनी कमाई से नहीं देता। इन सबका ज़िम्मेवार कौन है? क्या यह किसानों कि प्रायोजित हत्या नहीं है? ऐसे मे हम क्या करें जब न्यायालय भी हमारे विरुद्ध है। क्या अकेले किसान ही दोषी हैं? या सरकार और आधुनिक कृषि विज्ञान भी है?
इस देश के जिम्मेदार लोगो, सांसदो, न्यायालयों, राज नैतिक दलों से विनम्र अनुरोध है, कि हम किसानों को, जो कि आज़ादी के बाद 85 प्रतिशत थे, घटकर 50 प्रतिशत रह गए हैं ( यह 35% स्वावलंबी किसान ही टूटकर मजदूर बन गए हैं और हर बड़े शहर के किनारे तथा कथित बिकास को आईना दिखते हुए झुग्गियों मे रहते हैं।) उनको बचाने के लिए आगे आए। यह जो बुंदेल खंड मे (वही सरकार जो हमारी इस दशा कि जिम्मेदार है) बैंक के साथ मिल कर समूहिक किसानों के नर संघार की ओर बढ़ रही है, को रोके। न्यायालयों को तर्क दें एवं न्याय दिलाएँ। अन्यथा समय माफी नहीं देगा। ऐसा भारत के बाहर कई देश की सरकारें किसानों को खत्म करने का काम कर चुकी हैं, उसके परिणाम भी विश्व , विश्व युद्ध और मंदी के रूप मे भोग चुका है। आज भी पूरा यूरोप और अमेरिका इसी मंदी का शिकार हैं। हमारा देश,आज भी किसानों की अधिकता, बहुत उत्पादन के विकल्पों एवं उनके आत्म निर्भर परम्पराओं के कारण उक्त मंदी की चपेट से बचा हुआ है। । किसानों को बचाना ही देश को बचाना है।
एक आखिरी अंतर विरोध यह भी है कि जिन किसानों के बल बूते सरकार खाद्यान्न उत्पादन मे अपने को आत्म निर्भर बताती है, उन्ही किसानो को क्या फांसी देना चाहती है? क्या यही नैतिकता है? और यदि ऐसा है तो हमारे हजारों वर्षो से परीक्षित ज्ञान, बीज, पशु, सामाजिक अंतर संबंध, कौशल आदि का क्या होगा? क्या पूरा देश किसानो को इस संकट काल मे अकेला कर देगा?
यह लेख किसी विशेष सरकार के लिए नहीं है, वरन सभी सरकारें इस प्रकार कि खेती को प्रोत्साहित करती रही हैं। अतः किसानो कि इस दशा के लिए सभी जिम्मेदार हैं।

Prem Singh