Veeru Sonker[divider style=’right’]
[१]
‘निरुत्तर’
मैंने गंभीरता ओढ़ कर
एक हलकी सी मुस्कुराहट के सहारे
वह कई प्रश्न,
जो मुझे फसा सकते थे
उन्हें वापस प्रश्नकर्ताओ की ओर लौटा दिया.
अब वह फसे थे और मैं गंभीर था
मुस्कुराहट के निहितार्थों में
वह एक जायज उत्तर तलाश रहे थे.
और मैं तैयार था
उन उत्तरो पर एक बार फिर
गंभीर मुद्रा में मुस्कुराने को.
[२]
‘तरीका’
मैंने सोचा
मेरा तरीका सबसे सही है.
अपनी मूर्खता के हर जिक्र पर
मेरा ठठा कर हँस देना
या
बेबाकी से हर बात को स्वीकार करना.
मैं उनसे बेहतर था
जो सोच कर हँसते थे
नकारने की तमाम कोशिशो के बाद स्वीकारते थे.
खुद को हर बार सही न ठहराने का
मेरा तरीका सही था!
[३]
‘उबालना’
इससे पहले जब
मैं उबलते पानी सा बिलबिलाया था
तब जाना था
पतीले से बाहर आने का मतलब
बिखर कर दुबारा उबलने के लायक न बचना.
इसके बाद मैंने
पतीले में बने रह कर उबालना सीखा.
[४]
‘अजीब’
वह अजीब लोग थे
वह अजीब से सवालो के साथ थे
और अपने हिसाब से
वह अजीब लोगो के बीच थे.
उनकी दुनिया
एक सरसरी नजर में बेहद सामान्य थी.
कुछ लोग चुप थे
यह चुप लोगो के हिसाब से अच्छा ही था.
चुप रहने से वह मानते थे
कि
उनकी वह दुनिया
एक सरसरी नजर में बेहद सामान्य थी.
अजीब लोगो के लिए
यह बेहद अजीब बात थी!

Veeru Sonker
[५]
‘लोग’
उन्होंने पूछा!
वह कौन थे
और उन्होंने ने क्यों खोजी भाषा
व्याकरण और बोलने की विभिन्न स्वर-लहरियाँ.
वह कौन थे
जिन्होंने संकेतो को अपर्याप्त माना.
वह कौन थे
जिन्हें मौन रहना पसंद नहीं आया.
उन्होंने पूछा
क्या वह लोग अब भी मौजूद है ?
जिन्होंने पूछा
वह आईने के सामने रो रहे थे!