छमिया

Mukesh Kumar Sinha

"छमिया" ही तो कहते हैं
मोहल्ले से निकलने वाले
सड़क पर, जो ढाबा है
वहाँ पर चाय सुड़कते
निठल्ले छोरे !
जब भी वो निकलती है
जाती है सड़क के पार
बरतन माँजने
केदार बाबू के घर !!

Mukesh Kumar Sinha

एक नवयुवती होने के नाते
हिलती है उसकी कमर
कभी कभी खिसकी होती है
उसकी फटी हुई चोली
दिख ही जाता है जिस्म
जब होती है छोरों की नजर
पर इसके अलावा
कहाँ वो सोच पाते हैं
भूखी है उसकी उदर !!

आजकल “छमिया”” भी
जानबूझ कर
मटका देती हैं आंखे
साथ ही लहरा देती है
वो रूखे बालों वाली चोटी
जो छोरों के दिल में
ला देती है कहर
आखिर घूरती आँखों
के जहर
से, वो शायद हो गई
है, बेअसर !!

“छमिया” आखिर समझने
लगी है
मिटाने के लिए भूख
भरने के लिए उदर
जरूरी है ये सफर
अंतहीन सफर !!!

कुछ शब्द, कुछ दर्द और जिंदगी
 बस इतना ही है मुख़्तसर !

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