Dr. Anita Chauhan
हम समाज से कुरीतियां एवं बुराइयां खत्म करने का उपदेश तो बहुत जोर-शोर से देते हैं लेकिन खुद हम भी उन्हीं बुराइयों का हिस्सा हैं कभी जानबूझकर तो भी अनजाने में। समाज की हर एक बुराई एक-दूसरे से जुड़ी है। जैसे कि दहेज मूल कारण है, भू्रण हत्या का जब किसी के पास एक-दो बेटियां हो जाती हैं तो वह यह सोच कर गर्भ में आई हुई एक और बेटी की हत्या कर देता है कि इससे ज्यादा बेटियों की शादीकरने की उसकी हैसियत नहीं है। यही भू्रण हत्या आगे चलकर स्त्री-पुरूष अनुपात में असमानता पैदा करती है। यही असमानता बलात्कार जैसी दुर्घटनाओं का कारण बनती है। उदाहरण हमारे सामने है। हरियाणा और केरल जहां केरल में महिला अनुपात पुरूषों के बराबर है वहां महिलाओं की स्थिति पारिवारिक, सामाजिक एवं आर्थिक हर क्षेत्र में बेहतर है जबकि हरियाणा जैसे विकसित राज्य में महिलाओं की स्थिति आज भी बद से बदतर बनी हुई है।
ये सच है कि शिक्षा ने महिलाओं को आत्मनिर्भर एवं स्वावलम्बी बनाया है, लेकिन शिक्षित एवं कामकाजी महिलाओं को भी दहेज जैसी बुराइयों से गुजरना पड़ रहा है। हमारे समाज में सभी तरह के व्यवसायों से जुड़े हुए पुरूषों का दहेज ग्राफ तैयार है जैसे शिक्षक का मूल्य 15 लाख, पुलिस-आर्मी वाले का 10 लाख, प्राइवेट नौकरी में लड़का ठीक-ठाक कमा रहा है तो 10 लाख से 20 लाख तक लेकिन अगर इन्हीं पदों पर महिलाएं कार्यरत हैं तो यही दहेज उनके माता-पिता को क्यों नहीं मिलता? इस मामले में देखा जाए तो लड़की के माता-पिता को दोहरा नुकसान उठाना पड़ता है उन्हें कमाऊँ एवं योग्य बेटी के लिए दहेज भी देना होता है और बेटी की कमाई में अधिकार भी नहीं मिलता वहीं दूसरी ओर बेटे के माता-पिता अपने निकम्मे बेटे के लिए उससे ज्यादा योग्य बहू पाकर भी दहेज की अपेक्षा करते हैं। ऐसा नहीं है कि दहेज लड़की के भरण-पोषण का एक मूल्य है, जो लड़की के माता-पिता वर-पक्ष को विवाह के समय देते हैं। दहेज की मांग तो उन लड़कियों के माता-पिता से भी की जाती है जो स्वयं अपने होने वाले वर से कई गुना योग्य एवं आर्थिक रूप से सबल होती है। जबकि लड़का जो कुछ भी कमाता है उसका कोई भी लाभ उसके ससुराल पक्ष को नहीं मिलता इसके विपरीत महिला की पूरी आमदनी उसके ससुराल वालों को ही होती है।
तब भी यदि विवाह के समय वह दहेज (वर पक्ष के मुताबिक) नहीं ला पाती तो उसके रूप, गुण, संस्कार, योग्यता एवं जीवन भर लाखों रूपए कमाने के बावजूद भी समय-समय पर अपमान एवं पीड़ा का सामना करना पड़ता है और उसे वो आदर एवं स्थान नहीं दिया जाता जो दहेज लाने वाली बहू को मिलता है। दूसरी तरफ लड़की के माता-पिता भी उसे पुत्र के बराबर शिक्षा देने से इसीलिए हिचक जाते हैं कि जितना खर्च वो बेटी की शिक्षा-दीक्षा में करेंगे उतने में विवाह का व्यय निपट जाएगा। सोचिए महिलाओं को आत्म निर्भर बनाने की मुहिम दहेज कितनी बड़ी रूकावट है ?
इस वक्त मुझे आज की उभरती हुई कवियित्री कविता तिवारी की ये कविता याद आती हैं-
जिम्मेदारियों का बोझ परिवार पे पड़ा तो
आॅटो, रिक्शा ट्रेन को चलाने लगीं बेटियां
साहस के साथ अंतरिक्ष तक भेद डाला
सुना वायुयान भी उड़ाने लगीं बेटियां
और कितने उदाहरण ढूंढकर लाऊँ
हर क्षेत्र में शक्ति आजमाने लगी बेटियां
वीर की शहादत पे अर्थी को कान्धा देने
अब शमशान तक जाने लगी बेटियां
कष्ट सहके भी धैर्य धरती हैं बेटियां
प्रश्न ये ज्वलनशील सबके लिए है आज
नित्य प्रति कोख में क्यों मरती हैं बेटियां
महिलाओं की स्थिति परिवार एवं समाज में ही दोयम दर्जे की है। ये स्थिति तो साहब हर क्षेत्र में आपको देखने में आएगी। जहां एक ओर 70 प्रतिशत महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार वहीं हर महिला कहीं न कहीं हर रोज शारीरिक एवं मानसिक शोषण झेल रही है। अगर राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी पर एक नजर डाली जाए तो वहां भी परिणाम कुछ ज्यादा सुखद नहीं हैं। बड़ी-बड़ी बातें करने वाले राजनीतिक दल आज भी महिलाओं को टिकट देने से हिचकिचाते हैं। आप उम्मीदवारों को आधी आबादी होने के बावजूद भी महिलाओं की स्थिति राजनीति में कुछ खास मकान नहीं रखती। जिताऊ महिला उम्मीदवारों में अधिकांश किसी न किसी राजनीतिक घराने से ताल्लुक रखती हैं। इन्हें तो बस इसलिए चुनाव लड़ाया जाता है ताकि परिवार के हिस्से में एक और सीट आ सके।
उत्तर प्रदेश के तमाम गांवों में जहां महिला प्रधान हैं वहां कई लोग ऐसे मिल जाएंगे जो अपना परिचय प्रधानपति के तौर पर देते हैं। ये वो लोग हैं जो आरक्षण की वजह से खुद चुनाव नहीं लड़ सके, तो खानापूर्ती के लिए पत्नी के नाम पर परचा भरवा देते हैं। ये लोग अभी भी अपनी पत्नी को घर की चहार दीवारी में कैद किए हुए हैं। जिसको ये भी नहीं पता कि वास्तव में उसके पद का क्या औचित्य है वो सिर्फ एक स्टाम्प मात्र हैं। आज भी हम संसद सत्र पर नजर डालें तो महिलाओं की उपस्थिति ज्यादा बेहतर नहीं है।
मैं ये कतई नहीं कहती कि जिस तरह अब तक समाज में पुरूषवादी सोच हावी रही है अब आगे महिलाओं का सर्वोच्च वर्चस्व हो जाए। दरअसल जब तक एक का स्थान ऊपर और दूसरा द्वितीय पायदान पर रहेगा तब तक हम सुन्दर समाज एवं राष्ट्र की कल्पना नहीं कर सकते। हमारा परिवार, हमारा समाज एवं हमारी दुनियां सुन्दर, सबल एवं सफल कहलाएगी। जब स्त्री-पुरूष एक-दूसरे के पूरक बन हर क्षेत्र में कदम से कदम मिलाकर बिना किसी भेदभाव के आगे बढ़ेंगे। अब वक्त आ गया है कि हम अपने परिवार से ही इसकी शुरूआत करें जो स्थान परिवार में बेटे को प्राप्त है वही बहू एवं बेटी को भी दिया जाए। जब हमारी दृष्टि में समानता का भाव आ जाएगा समाज खुद व खुद सुन्दर एवं सामर्थ्यवान बन जाएगा।
प्रश्न यह है कि माता पिता अपनी लड़की की योग्यता के समकक्ष योग्यता वाले लड़कों चाहे वह गरीब परिवार या नीची जाति से हों, के साथ वैवाहिक संबंध क्यों नहीं करते हैं।