ऐसा था वह “रणबांकुरा”

Tribhuvan

वह 65 साल का था, लेकिन आख़िरी के समय तक उसके चेहरे पर युवाओं जैसी ही आभा थी। वह भले पहले जैसा बलिष्ठ नहीं था, लेकिन किसी को कुछ ग़लत करते देखता तो अभी भी दृढ़ता से फ़टकार लगाने में कहां चूकता था। उसका रौबीला व्यक्तित्व कुछ अलग ही अंदाज़ का था। अफ़सर उससे थर-थर कांपते थे। वह आते तो मंत्री चैंबर छोड़कर निकलना ज़्यादा पसंद करते थे। और अगर सत्तारूढ़ दल से होने के बावजूद कुछ मंत्रियों या विधायकों को पता लग जाता कि "वह" भी इसी ट्रेन से जा रहा है तो वे यात्रा रद्द करना ज़्यादा उपयुक्त मानते थे।

उसके एक कार्यकर्ता को किसी ने पीट दिया। वह भरे बाज़ार गया पीटने वाले नेता की दुकान पर और उसे फ़िल्मी अंदाज़ में जमकर पीटा। फिर कार में बिठाकर कोतवाली ले गया और सीआई से कहा : हम दोनों ने एक जैसा अपराध किया है। हम दोनों को गिरफ़्तार कर लो।

Surendra Singh Rathore

वह एक छोटी पार्टी का बहुत बड़ा नेता था। एक चुनाव में उसके किसी कार्यकर्ता को बड़ी पार्टी के नेताओं ने पंचायत समिति के कमरे में बंद कर दिया। वह अकेला था और सामने करीब ढाई हजार कार्यकर्ताओं के साथ उसके प्रतिद्वंद्वी ताल ठोक रहे थे। वह निडर होकर अकेला उनके बीच जाता है और सब ऐसे तितर-बितर हो जाते हैं जैसे आबादी में कोई युवा बघेरा आ गया हो। वह जाता है और अपने कार्यकर्ता को छुड़ाकर ये जा और वो जा। सब हत्प्रभ। उसकी निर्भीकता सम्मोहित करती थी। जैसे आप किसी फिल्म के दृश्य देख रहे हों। सिखों से उनका मा-जाए भाई का-सा रिश्ता हुआ करता था। दलित और मुस्लिम तो उन पर जान छिड़कते थे।

प्रदेश की जेलों में गंगानगर के लोग काफ़ी हुआ करते थे। सरदार लोग भोलेपन में कुछ अपराध कर बैठते और फिर पुलिस और जेल के अफ़सरों की बन आती। बीकानेर के एक नामी जेलर साहब ने किसी सरदार को तंग करने में अति कर दी तो उसकी बहन इससे बोली : देख भाई तू कर कुछ भाई का। भाई अगले दिन ही बीकानेर पहुंचा और ऐसा किया कि ये जेलर की कुर्सी पर और जेलर मेज के नीचे।

जिन दिनों वह सक्रिय था, उसमें ग़ज़ब की फुर्ती थी। वह सौम्य, शालीन और बनावटी किस्म का नेता नहीं था। जो भीतर था, वैसा ही बाहर था। छुपकर कभी कुछ नहीं किया। सब साहस के साथ। चौड़े-धाड़े। जो हूं, वह हूं। उसका रंग, उसकी चाल और उसके बोलने का अंदाज़ सबको दूर से ही मोहित कर लेता था। दोस्त सम्मोहित हाेते थे और दुश्मन चुपचाप किनारे करके दूसरी गली में चले जाते थे। वह हर समय किसी लोडेड एके फोर्टीसेवन जैसा रहता था। न डर, न चिंता और न कोई सावधानी।

उसकी एक अलग ही छवि थी। अंदाज़ भी बहुत अलग था। बहुत बार खु़द अपने साधारण से घर के एक छोटे से कमरे में बैठा रहता और बाहर कई-कई दिन तक दो-ढाई सौ लोग इंतज़ार करते रहते। अचानक बाहर आता और दहाड़ता : क्यों भीड़ लगा रखी है! क्या हो गया!!! सामने करीब पौने सात फुट के एक पार्षद ने कहा : प्रधान जी, आपके दर्शन करने थे! वह बोला : कर लिये दर्शन!!! अब चलो घर अपने-अपने!!! और वह हुजूम निकलता तो दूसरा आ धमकता। फिर वही खेल और वही अंदाज़।

हमारा औपचारिक परिचय कुछ महीने पहले हो चुका था और लेकिन जो पहली मुलाकात थी, वह बहुत यादगार थी। हाड़ कंपा देने वाली शीत की वह आधी रात थी। भारी बारिश हो रही थी। तेज झंझा चल रही थी। उस समय दरवाज़े पर थपकियां ज़ोर-ज़ोर से लगीं और त्रिभुवन-त्रिभुवन की आवाज़ गूंजने लगी। मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने आते ही वह बोला : "कुकुरमुत्ता" दो। मैं हैरान। आप और 'कुकुरमुत्ता’! और वह भी इस समय। जिस व्यक्ति की छवि को मैं उन दिनों एक खालिस गुंडे के रूप में प्रचारित पा रहा था, वह मुझसे कह रहा था : देखो "कुकुरमुत्ता’ निराला की रचना है और मैं भी प्रकृति की निराली रचना हूं। मैं भी निराला हूं।

मैं पुरानी आबादी थर्ड ब्लॉक के अपने छोटे से कमरे की अलमारी से किताब ढूंढ़ रहा हूं और उस व्यक्ति के कद के लिहाज से मेरा कमरा बहुत छोटा था, क्योंकि उस व्यक्ति का किसी भी जगह खड़े होने का ही अर्थ था कि सौ-पचास लोग प्रधानजी-प्रधानजी कहकर उमड़ आएंगे।

मैं अभी किताब ढूंढ़ ही रहा था कि उन्होंने याददाश्त के हिसाब से ही पढ़ना शुरू कर दिया :

आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब,
बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब;
वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता
पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता-
“अबे, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पायी खुशबू, रंग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!

वह कहने लगा, मैं यह कविता कुछ जगहों से भूल गया था। मैं कुछ महीनों पहलेे आखिरी बार उससे मिला तो महान कवि केशव दास को उद्धृत करते हुए कहने लगा : केशव केसनि असि करी, बैरिहु जस न कराहिं। चंद्रवदन मृगलोचनी बाबा कहि कहि जाहिं! और जोर से हंस पड़े। उन्हें केशवदास की रसिकप्रिया और रामचंद्रिका के बहुतेरे हिस्से कंठस्थ थे।

उसे तरह-तरह की कारों, शराबों और हथियारों का भी बहुत शौक था। वे एक बार फ़ीरोज़पुर के पास किसी गांव में मुझे ले गए और बोले : चलो, तुम्हें अपनी लाइब्रेरी दिखाता हूं। वहां एक आलीशान अलमारी में तीन चार सौ किताबें। एक से सुंदर एक और एक से बढ़कर एक। बोले : देखो। पढ़कर देखो। मैंने एक बहुत सुंदर पुस्तक निकाली, जिस पर मीन कैंफ और अडोल्फ़ हिटलर लिखा था। वह पुस्तक मेरे हाथ से फिसलते-फिसलते बची। दरअसल वह पुस्तक नहीं, पुस्तक की तरह दिखने वाली स्कॉच की एक बोतल थी।

चुनावों में विरोधियों ने जैसे हमले उस पर किये, वैसा आम तौर पर नहीं होता। उसके विरोधी नेताओं ने उसे गुंडा और शराबी कहा तो उसने चुनाव की पूरी धारा ही मोड़ दी। सभाओं में कहना लगा : हां, मैं गुंडा हूं। और हर उस आदमी के लिए गुंडा हूं, जो इस शहर में गरीब लोगों के साथ बेइन्साफ़ी करेगा। जो मज़दूर का खून चूसेगा। जो बेईमानी करेगा। वह सभाओं में गरजता : माताओ-बहनो, मैं शराब पीता हूं, लेकिन मैं अपने विरोधी की तरह कभी किसी का खून नहीं पीता। मैंने ग़रीब और किसी मज़लूम की अस्मत नहीं लूटी। मैंने किभी किसी का शोषण नहीं किया। लेकिन हां, मैं गुंडा हूं और वह गांधीवादी है, जो खून पीता है…आप सबका। क्या तेवर थे उसके!

साहित्य और इतिहास का वह बहुत अच्छ जानकार था। लेकिन उस जैसी निर्भीकता और साहसिकता मैंने कभी किसी में इस तरह लपलपाती नहीं देखी। पिछले दो-तीन दिन से उस पर आ रही प्रतिक्रियाएं देख रहा था कि ज़माना उसे किस तरह देखता है। बहुतेरे लोग उसकी प्रतिभा को ज़ाया होना मानते हैं और बहुतेरे लोग नाकाम। लेकिन उसने अपनी हर सांस को अपनी शर्त पर जीकर दिखाया। वह कभी न तो सत्ता के बल के आगे झुका और न किसी के बाहुबल के आगे। वह न न्यायबल के आगे समर्पित हुआ और न बुद्धिबल के आगे। यह सब उसने उस दौर में करके दिखाया, जब बड़े-बड़े राजनीतिक लोग छोटी-छोटी बातों के लिए शीर्षासन करने लगते हैं।

करीब पांच साल उसने मुझे बुलाकर बताया था कि ब्लड कैंसर के बाद अब पता नहीं कब क्या हो जाए। पूरा शरीर भीतर से जर्जर हो गया है, लेकिन मैं किसी को क्या बताऊं। तुम भी मत बताना। उसके कारण निराश नागरिकों में उम्मीदें जगती थीं। टूटे हुए युवाओं में एक बलभाव तैरने लगता था। उसका अपना ही धर्म और अपनी अलग ही जाति थी। इतिहास में जिसे वीरता कहा जाता है, वह उसको जीता था। उसने गुंडापन भी किया और बहुत धमक के साथ किया, लेकिन सिंह-वृत्ति से। उसने प्रतिद्वंद्वियों पर हमले भी किए और खुले आम किए, लेकिन कभी किसी सताए हुए को नहीं सताया। कई लोगों को उनसे प्राण भिक्षा मांगते भी देखा। ताकतवरों को चुनौतियों देने का आनंद अगर किसी ने लिया तो उसी ने लिया। मैंने पूरे प्रदेश में ऐसा तो कोई नहीं देखा।

उसके एक बहुत नज़दीकी प्रतिद्वंद्वी पर एक प्राणघातक हमला हुआ। आरोप उसी पर लगा। लेकिन वह हमला उसने नहीं, किसी और ने किया था। वह कहने लगा : ये मेरी मॉडस ऑपरेंडी है क्या? क्या मैं ऐसे घटिया हमले करता हूं।

वह जिस तरह हथेली पर प्राण लिए फिरता था, उसकी क्या वज़ह थी? वह बोला : मैं नहीं बना। जैसे तुम्हें तुम्हारे पिता ने ऐसा बना दिया, वैसे ही मेरी मां ने मुझे ऐसा बना दिया। बचपन में जाड़ दर्द करती और मां शराब का फाहा दबा देती। मैं तो तभी से यह रस चूस रहा था। एक बार बड़े भाई को कक्षा में बिना कारण ही शिक्षिका ने पीट दिया। वह बिना कारण ही बार-बार ऐसा करती थी। मां तो पता चला तो भाई कहीं बाहर खेल रहा था और मैं हाथ लग गया। मां ने मेरी बाजू पकड़ी और बोली : देख भाई को मैडम ने बिना कारण मारा और तू देखता रहा! शर्म नहीं आती। कैसा राजपूत है रे। राजपूत क्या कभी अन्याय देखता है। और अगले दिन जाते ही मैंने मैडम के बाल खींच लिए, धूल डाल दी और बुरा हाल किया। अब जहां कहीं अन्याय होता है तो मुझे लगता है : मां कह रही है, कैसा राजपूत है रे तू। अन्याय देखता है?

उसकी मां अनपढ़ थी, लेकिन हीरे गढ़ती थी। घर में जिस समय बेटी की शादी हुई तो वह आमंत्रित करने वालों के नाम और पते सिर्फ़ बोले जा रही थीं और लिखने वाला थके जा रहा था। पांच हजार से ज्यादा पते उन्हें कंठस्थ थे। इसलिए यह बेटा भी कभी किसी को चीज़ को किसी डायरी में नहीं लिखता था और जब मौका आता था तो सब अचानक याद आ जाता था।

वह बहुत ही अलग अंदाज का बिंदास बंदा था और उसका जीवन किसी उपन्यास से कम में नहीं आ सकता। एक बार वह टाइटैनिक फिल्म दिखाने अपने कई दोस्तों और बच्चों को ले गया । रात को घर आने के बाद वाल्मीकि बस्ती में वाल्मीकि समाज के लोगों के बीच खूब ठुमके लगाए और गीत गाए। अंबेडकर जयंती पर लोग उसे सम्मान से बुलाते तो एससी ऑफिसर बहुत परेशान हाेते थे, क्योंकि वह उन्हें मंच से बहुत खरीखोटी सुनाता था। दलितों की बदहाली के लिए वह दलित अफसरों को बहुत खींचता था। लेकिन उनका साथ भी देता था।

उसका गोरा रंग बहुत आभा बिखेरता था। एकदम चिकना और बिंदास। कॉलेजों के नए नए चुनाव हुए थे और वह गर्ल्स कॉलेज का चुनाव जीतने के बाद आई और पांव छूकर बोली : अंकल, आई लव यू! वह बोला : हट मरज्याणिए, तेरा बाप तो मेरा छोटा भाई है!

दोस्तों और परिजनों की बेटियों के प्रति उसके मन में जितना सम्मान और गर्वभाव था, वह बहुत कम देखने में आता है। एक बार उसका एक कार्यकर्ता उसके पास पिटाई किए जाने की शिकायत लेकर आया तो उसने सामने वालों को बुलाया, जैसा कि उनके यहां दरबार लगा करता था। सामने वाले बुजुर्ग ने बताया कि यह मेरे बेटे का दोस्त है और इस नाते मेरी बेटी इसकी बहन हुई। तो इसने उसे गलत निगाह से क्यों देखा? उन्होंने कार्यकर्ता की तरफ देखा, तो वह बोला : अंकल, हम दोनों लव करते हैं! इतने में ही लड़का दूर फर्श पर जाकर गिरा। उसे उसने इतना झन्नाटेदार थप्पड़ लगाया और कहा : हरामजादे, दोस्त की बहन अपनी बहन होती है।

वह बहुत छोटी उम्र में प्रधान बन गया था। एक बीडीओ ग्रामीण इलाके में महिलाओं के सेंटर चेक करने गया तो उसने किसी महिला से छेड़छाड़ कर ली। प्रधानजी के पास गांव वाले आए तो उन्होंने बीडीओ से पूछा : बीडीओ बोला, सर गलती हो गई। माफ कर दो। और पंचायत समिति पहुंचकर उन्होंने बीडीओ को कमरे में बंद किया और उसी की कुर्सी के हत्थे से जमकर सुताई  की और उसे पुलिस में लेकर गए कि इसकी एफआईआर दर्ज करो। इसे इसके प्रधान ने इसके दफ्तर में मारा!

Tribhuvan

पांच साल पहले वह बहुत बीमार थे। मैं मिलने गया तो मुझे मेरे मित्र गजराजसिंह जी ने एक दिलचस्प वाकया सुनाया। बोले : मैं 23 साल पहले की बात है। मैं यूथ हॉस्टल में बैठा था इनके पास। हम ठहाके लगा रहे थे। अचानक मुझे संदेश देने कोई और आया। मैंने सुना और मैं वापस आकर बैठा था तो मेरा चेहरा रुंआसा हो गया। साहब ने मुझे पूछा : अरे कौन क्या कह गया। अभी ठीक करता हूं। ऐसी राेनी सूरत क्यों बना ली? गजराज बोले : हुकुम बेटी हुई है मेरे। यह सुनकर वह बोले : अरे, खुश हो। लक्ष्मी आई है। और हां, भूल जा कि ये तेरी बेटी है। ये मेरी बेटी है। इसे मैं अपने घर ले जाऊंगा। बात आई-गई हो गई। 23 साल चले गए। एक दिन हुकुम अचानक घर पधारे और बोले : मेरी बेटी कहां है? घर ले जाना है। वह तब जयपुर के महारानी कॉलेज में फाइनल में ही थी। और हुकुम ने याद दिलाया कि देख तेरे साथ 23 साल पहले यूथ हॉस्टल में उस दिन वादा किया था कि यह मेरी बेटी है और इसे मैं अपने घर ले जाऊंगा। आैर आज समय आ गया है। आैर आज वह लक्ष्मी उस उसी के आंगन में है। बेटी का पिता तो भूल गया वह बात, लेकिन इस मरजीवड़े को यह सब याद रहा।

ऐसा था वह इस युग का रणबांकुरा।

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