Hayat Singh
यह क्षोभ, विमोह, हताशा और निराशा
दिन-महीने या साल विशेष से नहीं, बल्कि
कई दशकों से पल रही
असन्तुष्टियों का उबाल थी
यह बात ज्ञात भी सभी को थी, लेकिन अपनी-अपनी सहूलियत के अनुसार
कोई साइकिल में सवार था
कोई हाथी में
कोई नुक्कड़ के खोखे पर
लड़ा रहा था पंजा
राष्टीय से अंतर्राष्टीय की होड़ में
गाँव-गुठार को भूल गए
मार्क्स-लेनिन की रट के चलते
गाँधी-अम्बेडकर से दूरी बना लिए
गीता,कुरान और बाइबिल
चलना था तीनों को साथ लेकर
उलझे रह गए
किसी एक विशेष में
ध्यान रहे
सनद के लिए लिखी जा रही
आखिरी पंक्तियों के लिए
लिखी गयी हैं भूमिका में ऊपर की पंक्तियाँ
पत्तियों का रंग हरा ही रहने दो
फूलों को गुलाबी रहने दो
सब कुछ गेरुआ हो जाने पर
संतुलन बिगड़ जाएगा प्रकृति का।
सावधान!
सावधान!
सावधान!
सावधानी हटेगी तो
फिर से दुर्घटना घटेगी।