जोनाथन की माता जी मतलब हमारी साली साहिबा ने हमसे कहा कि मैं जोनाथन से हिंदी में बात किया करूं ताकि उसके मस्तिष्क में हिंदी के शब्द भी उसकी अपनी सहज भाषा के रूप में स्थापित होना शुरू हों। जोनाथन अभी भाषा का प्रयोग नहीं कर पाते हैं लेकिन हम लोगों की बातें समझने लगे हैं और बिना भाषा के ही हमारी बातों का प्रतिउत्तर देते हैं। मुझे बहुत अच्छा लगा उनकी सहजता को देखकर कि उन्होंने अपने पुत्र के लिए हिंदी भाषा जानने की इच्छा मुझसे जाहिर की।
मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई क्योंकि दिखावटी व खोखले राष्ट्र व भाषा गौरव के कारण मैं उनको ईमानदारी से अपने समाज की भाषा-कुंठा की असलियत बता नहीं पाया। आखिर कैसे बताता कि हमारे देश भारत में अपने उन बच्चों को देखकर माता पिता बलइयां लेते हैं जो बच्चा हिंदी न जानने का ढोंग करता है और अमेरिकन स्टाइल में अंग्रेजी बोलने का बेढंगा ड्रामा करता है। उन रद्दी स्कूलों की फीस बहुत ऊंची होती है जिनकी खासियत सिर्फ यह होती है कि वे स्कूल में और घर में हिंदी की जगह अंग्रेजी भाषा के प्रयोग को प्राथमिकता देते हैं।
मैंने अपने जीवन में बहुत सारे समुदायों से मिला हूं, बहुतों के साथ काम भी करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है लेकिन हिंदी भाषी लोगों के इतना भाषा कुंठित किसी समुदाय को नहीं देखा। भारत के अंदर भी उड़िया, बांग्ला, तमिल, तेलगू, मलयाली, कन्नड़, पंजाबी किसी समुदाय को देखिए कोई भी उतना भाषा कुंठित नहीं है जितना कि हिंदी भाषी समुदाय भाषा कुंठित है। पढ़ा लिखा तरक्की किया माना जाने वाला हिंदी भाषी समुदाय तो अपने बच्चों को हिंदी का प्रयोग न करने के लिए प्रोत्साहित करता है। खुद हिंदी भाषी ही खुद को दोयम दर्जे का मानता है।
चलते-चलते यह भी बताना चाहूंगा कि विदेशों में लोग हिंदी या संस्कृत इसलिए नहीं सीखना चाहते कि इन भाषाओं में कोई दिव्यता है या महानता है।हमारे समाज की भाषागत कुंठा का स्तर यह है कि दिव्यता व महानता की फर्जी या तोड़े-मरोड़े तथ्यों के साथ उदाहरणों की बकवास पोस्टें व खबरें सोशल मीडिया व मुख्य मीडिया में सुर्खियों के साथ देखने को मिलती रहतीं हैं।
दरअसल सच तो यह है कि पाश्चात्य देशों के लोगों को कई भाषाओं को जानने समझने का शौक होता है। वे अपने पूरा जीवन भाषाएं सीखने का प्रयास भी करते हैं। मैं आजतक जितने भी पाश्चात्य देशों के लोगों से विदेशों में मिला हूं वे चाहे मेरे मित्र हों या रिश्तेदार या जानपहचान वाले सभी बिना अपवाद कई कई अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं के जानकार हैं।
हिंदी व संस्कृत भाषा को भी जानने वाले विदेशियों की संख्या तो बहुत ही कम है। जिस भाषा के प्रयोग खुद उस भाषा के मूल समुदाय के लोग ही करने में दोयम दर्जे का महसूस करते हों उस भाषा को प्रतिष्ठित कैसे किया जा सकता है।
अभी मेरे कोई संतान नहीं है लेकिन जब कभी मेेरे संतान होगी। मैं ऐसी व्यवस्था करने का प्रयास करूंगा कि शैशवावस्था से ही मेरी संतान हिंदी, अंग्रेजी, फ्रेंच, इटैलियन, जापानी व डच आदि भाषाओं को अपनी सहज भाषाओं के रूप में जानना पहचानना सीखे। क्योंकि इन भाषाओं को जानने वाले लोग मेरे निकट आस्ट्रेलियन परिवार में मौजूद हैं। कुछ निकट रिश्तेदार तो ऐसे भी हैं जो 15-20 अंतर्राष्ट्रीय भाषाओं के जानकार हैं। और तो और मैं उसको अपने गांव की गवांरू भाषा, पूर्वजों की भाषा राजस्थानी, मित्रों की भोजपुरिया भाषा व छत्तीसगढ़ की गोंडी आदिवासी भाषाओं को सीखने का भी बंदोबस्त करूंगा।
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