आज कई फेसबुक पोस्टों से आभास हुआ कि अतिवादी दलित-पिछड़ा हों या वामपंथी दोनों ही गांधी के कट्टर विरोध में खड़े हैं. गाँधी की आलोचना नहीं बल्कि गांधी को गरियाते-लांछन लगाते ये पोस्ट और कमेन्ट वस्तुतः बिना किसी नुक्ते के हेर-फेर के संघ की साजिश का कॉपी-पेस्ट ही दिखाई देते हैं. रत्ती भर भी फर्क नहीं. यह भी बताया जाता है कि उनके द्वारा बताये जा रहे किस्से-कहानियाँ जो किसी कुंठित दिमाग की बीमार कल्पना के सिवाय कुछ नहीं, किसी साजिश के तहत पाठ्यक्रमों में शामिल नहीं हैं.
मुझे गहरा संदेह है कि इन विद्द्व्त जनों ने वास्तव में कभी स्वयं आंबेडकर, गांधी या मार्क्स को पढने के बाद यह धारणा बनायी होगी. इसके उलट वो खुद मुझे एक साजिश का शिकार नजर आते हैं जिसमें अल्प-वयस्क चेतना को पहले शुद्धतावाद के नाम पर बख्तरबंद किया जाता है और फिर उसमें ढेर सारे पूर्वाग्रहों का कूड़ा-भूंसा ठूंस प्रचारक में तब्दील कर दिया जाता है . फिर वह ताजिंदगी नकार में जीता हुआ विष-वमन करता स्वयं और देश-समाज के लिए आत्मघाती दस्ते का हिस्सा बन जिन्दा-शहीद हो जाता है.
गांधी का हत्यारा विचार नहीं पूर्वाग्रह युक्त मिज़ाज तैयार करता है.
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छोटा था. पांचवी-छठी में पढता होऊंगा. दादी गाँव से शहर हमारे पास आयीं थीं कुछ दिनों के लिए. तीखे-नाक नक्श , गोरा रंग और झक्क सफ़ेद बॉब-कट कटे हुए बाल . चेहरे पर अनगिनत खूबसूरत झुर्रियां जो बारीक से बारीक मनोभावों को भी लुटाती चलें. प्यार से कोई उन्हें इंदिरा गांधी कहता तो कोई महारानी विक्टोरिया. अपनी भाषा बोलतीं और अपनी ही समझतीं. हम बच्चे इस झंझट में न पड़ उनके भावों को ही पढ़ काम चला लेते. एक दुपहर मैं खेल रहा था और लगा दादी शायद बोरियत महसूस कर रही हैं. हफ्ते भर से ज्यादा हो गए थे उन्हें आये और अब शायद उनका मन ज्यादा उचाट होने लगा था. मैंने लकड़ी के डब्बे वाला ब्लैक-एंड-वाइट टीवी ऑन कर दिया ताकि उनका मन बहल जाए. एकलौता दूरदर्शन लोक-गीत-संगीत का कोई कार्यक्रम प्रसारित कर रहा था. दादी को मोतियाबिंद था…वो ध्यान लगा कर सुनने लगीं और मैं पास ही खेलता रहा. थोड़ी देर में दादी आयीं मेरे पास और कुछ कहा. मेरी समझ में न आया तो देखा कार्यक्रम खत्म हो चुका था. दादी बार-बार कुछ कहतीं जा रही थीं लेकिन मेरे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ रहा था. फिर वो खुद ही झट तेज़ी से रसोई की तरफ गयीं और थोड़ा सा चूड़ा-गुड निकाल लायीं और मुझे देते हुए कहा, ” देई दा”. मैंने पुछा, “किसे?”. उन्होंने टीवी की तरफ इशारा किया और समझते ही मैं ठहाका लगा रहा था. दादी मुझे विस्मित ताक रहीं थीं.
आज सोच रहा हूँ बापू भी तो उन्हीं की पीढ़ी के थे .उन्होंने उस पीढ़ी को आज़ादी का ज्ञान कराया जो आज की पीढ़ी से बहुत ज्यादा भोली-भाली और सुविधा विपन्न थी. जो अपने गाँव के सीवान को ही देश की सीमा कहती और जानती थी.
सत्य और अहिंसा के नये रास्ते ने वाकई चमत्कार किया था.
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सिद्धार्थ विमल