गांधी जी को मैं भारत के अंदर अपनी सामाजिक क्रियात्मकता का गुरु मानता हूं। जहां तक भी मेरी दृष्टि जाती है मुझे पूरी शताब्दी में गांधी के इतना भारत को समझनें, जीनें वा प्रेम करनें वाला मनुष्य नहीं दिखता है।
गांधी को गलियानें वाले लोगों का अधिकतर प्रतिशत उन लोगों का ही है जिनकी पहली प्राथमिकता मनुष्य और मनुष्यों का समाज नहीं है। और इनमें से अपवादों को छोड़कर लगभग सभी लोग घोर स्वार्थी, लिप्सायुक्त, अहंकारी, द्वेष व राजनैतिक सत्ता की खुली/छुपी विकृत महात्वाकांक्षाओं आदि से भरे पूरे लोग ही हैं।
जिनकी सामाजिक क्रियाशीलता के प्रति न तो कोई समझ है, न ही कोई इमानदारी है और न ही कोई प्रतिबद्धता .. वे लोग गांधी को गाली देनें में ही अपनी सामाजिक इमानदारी/प्रतिबद्धता व क्रांतिकारिता खोजनें व साबित करनें में लगे रहते हैं।
गांधी को इन लोगों नें घरना/अनशन/पाकिस्तान बटवारा/नेहरू को प्रधानमंत्री आदि जैसी मैनीपुलेटेड तथ्यों तक ही सीमित कर दिया है। क्योंकि इन्हीं मुद्दों में गाली बकनें का शानदार अवसर मिलता है।
एक कुंठा दिखती है ऐसे लोगों में गांधी के प्रति। मानसिक विकृत सी दिखती है ऐसे लोगों में। कम से कम मुझे तो ऐसे लोगों में कोई भी सामाजिक इमानदारी व प्रतिबद्धता नहीं ही दिखती है।
जैसा कि मैं समय समय पर कहता ही रहता हूं कि जिन्होंनें कभी खुद अपनें व अपनें परिवार के स्वार्थों से ऊपर उठकर अपनें पड़ोसी के लिये भी साफ दिल से विकास के बारे में करना तो दूर सोचा तक नहीं होगा … ऐसे लोग गांधी, अंबेडकर, नेताजी बोस और भगत सिंह आदि के संबंधों को परिभाषित करनें लगते हैं।
बड़ा ताज्जुब होता है जब स्वार्थ के पुतलों को उन अति-कमर्ठ त्यागी लोगों का चारित्रिक विश्लेषण करते देखता हूं जिननें अपना जीवन बृहत्तर समाज के बृहत्तर भले के लिये होम कर दिया। बड़ी ही घिनौनी पृवत्ति लगती है इस तरह के चारित्रिक विश्लेषण।
“हिंद स्वराज” जैसी चार पन्नें की संुदर पुस्तिका पढ़नें की समझ न रखनें वाले लोग मैनीपुलेटेड “स्वराज” का नारा लगाते देखे जा सकते हैं और “स्वराज” से जुड़ी किसी भी प्रारंभिक ठोस-समझ का ककहरा भी समझे बिना कुतर्कों से लंबी अंतहीन बहसें करते देखे जा सकते हैं, ऊपर से खुद को गौरवांवित महसूस करते हुये दूसरों से श्रेष्ठ होनें का भीषण अहंकार भी जीते हैं।
बड़ी ही घिन आती है जब NGO ग्रांट लेकर आंदोलन चलानें वाले लोग गांधी का रास्ता अपनानें का ढोंग करते हुये नारे लगाते हैं। बड़ी ही घिन आती है जब सामाजिक काम को NGO फंडिंग एजेंसीज का फंडिग प्रोजेक्ट बना दिया जाता है और स्वावलंबन व स्वराज का दावा किया जाता है।
बड़ी ही कोफ्त होती है तब जब “स्वावलंबन”, “स्थानीय समाज” और “सोशल ट्रस्टीशिप” का ककहरा भी न जाननें वाले लोग “स्वराज”, “परिवतर्न” व “आर्थिक विकास व स्वावलंबन” के नारे लगाते व दावे करते देखे जा सकते हैं; ताकि गांधी के देश में आम समाज के लोगों को राजनैतिक रूप से और भरमाया जा सके ….. सामाजिक मूल्यों की जो बची खुची झाड़न बची रह गयी है किसी कोनें में, उसको भी सड़ा दिया जाये ताकि संभावनाओं का सूक्ष्म-बीज भी बचा न रह जाये।
गांधी को लोगों के दिलों से बेदखल करने की घिनौनी साजिशें इतनी आसान भी नहीं।
गांधी को मीडिया या इंटरनेट नें नहीं बनाया “गांधी”। गांधी खुद बनें “गांधी” वह भी खुद को सामाजिक क्रियाशीलता से तपाकर बनाया।
गांधी “सोशल ट्रस्टीशिप”, “स्वराज”, “स्वावलंबन”, “अहिंसा”, “प्रेम”, “मानवता”, “पर्यावरण”, “शिक्षा” व “सामाजिकता” आदि का दूसरा नाम है और इन सामाजिक मूल्यों के बिना बेहतर समाज व देश बनना नामुमकिन है।
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