Rajeshwar Vashistha
पिता चाहते थे
जब वह शाम को थक हार कर घर लौटें
मैं बिना सहारे अपने पावों पर चल कर
दरवाज़े तक आऊँ
और वह मुझे गोद में उठा लें।
पर बहुत दिनों तक ऐसा हो नहीं पाया।
निराश पिता कुछ देर मुझे सहारा देकर चलाते
माँ की गोद में डालते और फिर मुँह-हाथ धोकर
चौंके में भोजन के लिए बैठ जाते।
पंखा झलते हुए दादी धीरे से कहती –
धीरज रखो, लड़के देर से चलना सीखते हैं।
वे लड़कियाँ नहीं होते।
मुझे लगता है गूँगा है यह लड़का,
इशारों से बातें करता है।
अपने भाई की बात से दुखी पिता
मुझे छत पर ले जाकर
आँ से माँ तक का ध्वनि परिवर्तन सिखाते।
दादा जी कहते – लड़के देर से बोलना सीखते हैं।
छोटी बहनें दौड़ कर माँ के पास आतीं
और खाद्य-पदार्थों के नामों की झड़ी लगा देतीं।
मुझे कभी समझ नहीं आए सब्ज़ियों और दालों के नाम
रोटी, पराठे या पूड़ी में से क्या चुनूँ ।
मेरे लिए खाने का अर्थ
सदा भूख से लुका-छिपी खेलना ही रहा।
मेरे अवसाद के क्षणों में वह मेरे निकट आई
उसने मुझे धैर्य से सुना और नर्स की तरह कहा
ज़िंदगी यहीं खत्म नहीं होती।
मैं विस्मय से काँपा,
प्रेम को व्यक्त करने में खो जाने का भय था।
पर वह स्त्री थी इसलिए सब कुछ समझ गई।
वह मेरे लिए प्रकृति की चुलबुली हँसी है,
रात के धुँधलके में सम्मोहित करती
रजनी गंधा के पुष्पों की गंध है,
ब्रह्मा की पुष्करिणी में भरा प्रेम-अमृत है।
पर मैं वही छोटा बच्चा हूँ
जिसने सदा सभी को निराश किया है।
सुनेत्रा,
क्या पुरुषों की चिरंतन अपरिपक्वता ही
स्त्रियों के दायित्वबोध की नियंता है!
Rajeshwar Vashistha
वाह। बहुत बढ़िया