Mukesh Kumar Sinha
घिसी हुई चप्पल
पड़ी थी पायताने में
थी एक उलटी पड़ी
एक थी सीधी
औंधा पडा था चेहरा मेरा
तकिये में दबी पड़ी थी आँखे
था आँखे मीचे
सोच रहा था देखूं कोई हसीं सपना
पर बंद आँखों के परिदृश्य में
नीचे पड़ी
घिसते चप्पल की बेरुखी
दिख ही जा रही थी
बता दे रही थी, अपने तलवे के प्रति बेरुखापन
तभी खुल गयी आँख
खुद से खुद ने कहा
लगता है जाना है किसी यात्रा पर
तभी तो दिख रही है चप्पल
पर ये टूटी चप्पल ही क्यों
क्योंकि बता रही मुझे
मेरे स्थिति की परिस्थिति
साम्राज्यवाद के प्रतीक पलंग पर लेटे हुए
मजदूरवाद को जीवंत करता हुआ
घिसा हुआ चप्पल
बार बार मस्तिष्क में डेरा जमा कर
खुलते बंद आँखों में पर्दा हटाते हुए
बता रहा था
कि चलो किसी यात्रा पर
झंडे का डंडा पकडे
ताकि सार्थक क़दमों के
एक दो तीन चार के कदमताल के साथ
हम भी समझ पायें
चप्पल की अहमियत
एक पल को मुस्काते हुए
हुई इच्छा कि खुद को कहूँ
मत चलो नंगे पाँव
चुभ जायेंगे कील या कोई नश्तर
पर
वीर तुम बढे चलो - के देशभक्ति शब्दों से
मर्द के दर्द को पी जाने व्यथा
आ गयी चेहरे पर
नींद टूट चुकी थी
पहन ली थी चप्पल
जा रहा था .........!
नए चप्पल को खरीदने
ताकि
चेहरे की इज्जत बरकरार रहे पांवों में !
Mukesh Kumar Sinha

Mukesh Kumar Sinha