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आप या मैं जिस समय अपने देश, अपने धर्म, अपने राष्ट्र और अपनी दुनिया के अतीत में झांकते हैं और उसके अंधेरे से ही प्रेम करते हैं तो यह उम्मीद करना बेकार है कि आप या मैं वर्तमान के वातायन से झरती आलोक रश्मियों को अपनी मुटि्ठयों में भरना चाहेंगे। यह आपकी या मेरी मानसिकता है। लेकिन सचमुच ऐसा हो रहा है और यह भयानक बात है। यह सचमुच डर जाने जैसी बात है। मेरे लिए भी। आपके लिए भी।
आप अपने अतीत में जाकर किसी बौधायन, किसी नागार्जुन, किसी आर्यभट, किसी वाग्भट, किसी ब्रह्मगुप्त, किसी सुश्रुत, किसी चरक, किसी भास्कराचार्य, किसी वराहमिहिर या किसी कौमारभृत्य जीवक की राह पर चलेंगे तो वर्तमान में आपके समस्त अंधेरे छंट जाएंगे। मेरे भी। लेकिन अगर आप अपने अतीत और वर्तमान का मूल्यांकन किसी आतंकवादी सभ्यता और किसी भयावनी विचारधारा से करके अपने भविष्य के सपने का ब्लूप्रिंट तैयार करेंगे तो इस पर दु:स्वप्न का महल खड़ा होगा और उस वीभत्स निर्माण से घृणा और जुगुप्सा की गंदी बास आएगी। मुझे भी। आपको भी।
भारतीय दर्शन में उस अवस्था को मानसिक विचलन और पश्चिमी दर्शन में इसे केटेगरी ऑव मिस्टेक कहता है, जब हम अच्छे और बुरे, सफेद और काले, पानी और आग, आकाश और धरती और चांदनी और तपती धूप का भेद ही खोने लगते हैं। हमें न श्रेणियों का ज्ञान रहता है और न ही मर्यादाओं की बोध।
मैं भारत-पाकिस्तान सीमा के पास एक बहुत ही छोटे से गांव का रहने वाला हूं। मेरे गांव में स्कूल भी नहीं था। एक परिवारों के अलावा किसी में कोई साक्षर तक न था। मेरा अपना परिवार भी पशुपालक परिवार था। पिता घोड़े पालने का शौक रखते थे और मां घोड़े तो घोड़े, उन्हें दूध पिलाने के लिए भैंसे तक रखती थी। मेरी शिक्षा भी कोई बहुत अच्छी नहीं हुई। अब भी मेरे दिमाग में अज्ञान कूट-कूट कर भरा है। लेकिन जब देखता हूं कि उच्च शिक्षित परिवारों से आए और सुसंस्कृत परंपरा में पले-बढ़े लोग और मुझसे कहीं अकल्पनीय श्रेष्ठ संस्थाओं में शिक्षित हुए युवक और प्रौढ़ कैसी-कैसी बातें करते हैं और कैसी-कैसी सोच रखते हैं तो मन वितृष्णा से भर उठता है। बहुत बार सोचता हूं कि कोई ऐसा सोच भी कैसे सकता है, जिसे वे बड़े गर्व से कहते और लिखते हैं। यह देख आैर सोचकर मैं बेहद उद्वेलित हो जाता हूं।
कभी कोई सरकारी फार्म भरना ही नहीं आया और अखबार बांटने का काम ढूंढ़ने के चक्कर में दुर्घटनावश पत्रकारिता की चपेट में आने से आज तक सड़क पर चलने वाले और जमीन पर पैदल चलने वालों तक के कड़वाहट भरे अनुभवों से आए दिन मुठभेड़ होती रहती है तो यह मुझ मूढ़़ के दिमाग में भी एक चरखा सा चला देती है।
दुर्भाग्य से कुछ पढ़ने-पढ़ाने की भी असभ्यता पड़ गई और किसी तरह के विचार की दासता या किसी विचार का भक्त या अनुयायी बनने के प्रति भी विमोह सा रहा है। इतना जरूर है कि दिमाग की सब खिड़कियां खुली रहें और विचार की जो भी ताज़ा हवा आए तो वह हमारे दिलोदिमाग को भी जरा भिगो दे।
राजनीति, धर्म, संस्कृति और विज्ञान के इतिहास को पढ़ते हुए मुझे अपने देश के अतीत में बहुत रोशनी और बहुत सा अंधेरा मिलता है। कितने ही दीपस्तंभ और आलोक निर्झर भारतीय इतिहास में हैं। कितने ही विकराल अंधेरे और अन्याय अट्टहास कर रहे हैं। किसी सभ्यता का निर्माण किसी असभ्यता के बिना नहीं होता। आप सभ्य तभी कहला सकते हैं, जब आपके सामने कोई बड़ा असभ्य हो। आप तभी रौशन होंगे, जब कोई अंधेरे से पुता खड़ा होगा। ऐसे समझ ही नहीं आता। लेकिन अगर आप किसी और के धूल-धक्कड़ से परेशान हैं तो इसका मतलब यह कतई नहीं होता कि आप कीचड़ में लोटने लगें। कोई अगर पागल होकर अपने भाई-बंधुओं के नरसंहार का महाभारत रच रहा है तो आप क्यों उससे प्रभावित होते हैं। अाप अपनी शुचिता की पंचवटी में किसी रामायण की रचना कीजिए।
इतिहास इतिहास होता है। न तो वह वर्तमान हो सकता और न ही भविष्य। इतिहास काला हो सकता है और आप भविष्य को सफेद बना सकते हैं। इतिहास बहुत चितकबरा हो सकता है और आप भविष्य को बहुत काला कर सकते हैं। लेकिन काल के साथ आपने दिक् या स्पेस का ध्यान न रखा तो बहुत गड़बड़ हो जाएगी। इतिहास में जितनी ऐतिहासिक गड़बड़ियां हुई हैं, वे काल और दिक् यानी स्पेस का बोध ठीक से न रख पाने के कारण ही हुई हैं। इतिहास में मतभेदों ने कई बार भयानक युद्धों का रूप भी लिया है। आप स्वयं सोचिए, एक ही परिवार के सदस्य कौरव और पांडव अगर अपने मतभेदों को आपस में बैठकर आपसी चर्चा और बहस से सुलझा लेते तो क्या महाभारत होता? कौरव और पांडव वास्तव में बहुत बुद्धिमान और दूरदर्शी परिवार के सदस्य थे और उन्होंने दुनिया में सबसे पहले युद्धविहीन सत्ता हस्तांतरण का तरीका ईजाद किया था। इसे जुए का नाम देकर बदनाम कर दिया गया, लेकिन यह एक बौद्धिक खेल था और आप एक खेल खेलकर अगर सत्ता का हस्तांतरण करते हैं तो यह वाकई उस युग में एक अकल्पनीय बात रही होगी।
अभी जो लोग इतिहास के सच से डर रहे हैं, वे दरअसल अपने भीतर की कायरता से डरे हुए लोग हैं। आपके भीतर अगर कोई ग्रंथि किसी रोग से ग्रस्त है तो आपको उसकी सही जांच और परख आनी ही चाहिए। क्रिकेट में आप आए दिन जीतते या हारते हैं। लेकिन हारते हैं तो निराशा जरूर होती है, लेकिन आप तब या तो अपनी टीम के खिलाड़ियों को नया प्रशिक्षण देते हैं और उनकी गलतियों को दूर करते हैं या फिर टीम में नए चेहरों को जगह देते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि आप हार को स्वीकार ही न करें। अगर आप ऐसा व्यवहार करते हैं तो यह ऐसा लगता है, मानो आप किसी बहुत छोटी क्लास के बच्चे हैं।
यह मामला सीधे तौर पर इस बात से जुड़ा है कि आप मुसलिम काल को अंधकार युग मानते हैं। लेकिन मेरा खयाल है, वह संक्रांति काल था, जो जरा लंबा चला। अंधकार युग तो वह था जब हमारी कमज़ोरियों का फायदा उठाकर विदेशी आक्रमणकारी सफल हुए। हार जाने के बाद कोई अंधकार नहीं होता। वहां तो रोशनी का सूर्य पल रहा होता है, लेकिन जब हम हारते हैं तो हार, पराजय या पराभव की घटना से पहले अंधेरा रहा होता है, जो अपनी शक्ति का पूरा बोध नहीं होने देता और इनसान अपने पागलपन में हार बैठता है। लेकिन यह हार कोई हार नहीं है। हारा हुआ दौर और निराशा का दौर वह समय है जब आप अतीत के किसी कालखंड में झांकने जाकर उसे सुधारने की कोशिश करते हैं। यह संभव नहीं है। यह बचपना है। ऐसा ही जैसे बच्चा अपनी कॉपी में चांद बनाकर कल्पना करता है कि चांद उसके पास आ गया। वह खिलखिलाता है। वह प्रसन्न होता है। आप इस प्रसन्न बच्चे जैसे प्रसन्न हैं।
अभी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ताजमहल को अपने राज्य की पर्यटन सूची में नहीं रखा है। ताजमहल का निर्माण शाहजहां ने करवाया था और शाहजहां का बेटा औरंगज़ेब पसंद नहीं करता था कि उसका पिता यह ताजमहल बनवाए। उसने बहुत विरोध किया। आैरंगजेब जिस समय 14 साल का था तो ताजमहल उसकी मां की स्मृति में उसके पिता ने बनवाना शुरू किया था और यह खत्म तब हुआ जब औरंगज़ेब 35 साल का हो गया था। औरंगज़ेब एक धार्मिक कट्टर लेकिन ईमानदार आदमी था। जैसा कि अपनी धार्मिक कट़्टरता के लिए कुख्यात लोग अक्सर ईमानदार हुआ करते हैं। औरंगजेब देख रहा था कि उसकी जवानी बीतती जा रही है और उसके सनकी पिता की आदत के कारण सरकारी धन संपदा ताजमहल में लगने से रीतती जा रही है। शाहजहां ने सरकारी खजाने से तीन करोड़ 20 लाख रुपए उस समय लगा दिए थे। औरंगजे़ब को बहुत गुस्सा आया और जब उसका बस चला तो उसने ताज़महल पर पूरा धन अपव्यय करने के कारण अपने सनकी ओर फजूलखर्च पिता को सत्ताच्युत कर कैद में डाल दिया। लेकिन पिछले पौने चार साै साल में किसी भी शासक की आत्मा में औरंगज़ेब की आत्मा नहीं जगी, उसने सिर्फ़ योगी आदित्यनाथ सिंह के हृदय को ही अपने लिए सही ठिकाना पाया।
लेकिन यह बहुत ही असहिष्णुता भरा कदम है कि आप इतिहास से पीठ फेरबकर बैठ जाएं। किसी शासनकाल विशेष की अच्छी चीजों को बुरा बताएं और किसी शासनकाल की खराब चीजों को अच्छा प्रस्तुत करें। यह अपने वर्तमान के बोध और भविष्य के निर्माण का सवाल भी है। क्या आप काल्पनिक ईंटों पर महल बना सकते हैं? लेकिन खराब खंगर ईंटों पर तो बहुत सुंदर और मजबूत महल खड़ा हो सकता है। आप भारतीय संगीत का इतिहास खंगालिए। आप भारतीय चित्रकला को देखिए। आप भारतीय कला और साहित्य को बांचिए। आप भारतीय दर्शन और इतिहास का अवलोकन कीजिए। क्या कृष्ण की प्रशंसा में किसी हिन्दू ने रसखान से अधिक सुंदर और सम्मोहक सवैए लिखे हैं? क्या आपके घर रखी रामायण किसी मुस्लिम के हाथों कुरआन के लिए तैयार की गई रहल के बिना किसी और चीज़ पर ठीक से रखी जा सकती है? क्या बाबर के साथ कोई मुसलिम फाैज आई थी? नहीं।
आप विद्वानों, कलाकारों, चित्रकारों, मूर्तिकारों, शिल्पकारों और स्थापत्यकलावानों को हिन्दू या मुसलमान मत मानिए। उनका धर्म तो कला है। संगीत है। कोई मुसलमान अगर संगीतज्ञ या चित्रकार हो यह जरूरी नहीं, लेकिन किसी संगीतज्ञ का ऐसा होना जरूरी है। ऐसा ही हिन्दू के साथ है। ऐसा ही सिख के साथ और जैन या बौद्ध के साथ। यह मुसलमान या हिन्दू की उपलब्धि नहीं, यह समृद्ध भारतीयता है। आज हम दोनों तरफ और पूरी दुनिया में धर्म (कहना तो चाहिए अधर्म) के नाम पर जो लड़ाकापन देख रहे हैं, उसमें कलाएं विकसित करने का माद्दा ही नहीं है। उसमें विध्वंस का दम तो है, सृजन की प्रतिभा नहीं है। सृजन विध्वंसक मानसिकता नहीं कर सकती। सृजन सृजनशील ही कर सकता है। धर्म सच में तो मनुष्य को किसी रासायनिक यौगिक की तरह संवेदनशील और करुणा से आप्लावित करता है। वह विध्वंसक नहीं बनाता। वह पर्वत, पहाड़, नदी, जल, नभ, वायु और अग्नि की पवित्रता की बात करता है। अगर किसी धर्म में सुसांस्कृतिक संवेदनाएं और करुणा नहीं है तो वह सभ्यता नहीं कहलाता। वह असभ्य ही बना रहता है।
अगर आप चारों वेदों को देखें, छहों शास्त्रों को पढ़ें और उपनिषदों का अध्ययन करें, जो कि भारतीय सभ्यता की पुख्ता आधारशिलाएं हैं, तो आप पाएंगे कि वहां झूठ और अज्ञान को सबसे बड़ा खतरा बताया गया है और हर स्तर पर प्रयास किया गया है कि मनुष्य अविद्या का शिकार न हो। उपनिषदों का ज्ञान विलक्षण है। वह तर्क नहीं, निश्छलता उपजाता है। वह पवित्रता लाता है। आप ब्रह्मगुप्त या शंकराचार्य के दर्शन को पढ़ेंगे तो उनका अदभुत ज्ञान कट्टरतावादियों को असभ्य ही ठहराता है। भास, शूद्रक और कालिदास का साहित्यिक वैभव किसी से छुपा है क्या? अगर किसी ने इनमें से एक को भी ठीक से हृदयंगम किया हो तो वह किसी अन्य धर्मावलंबी के प्रति असहिष्णु और प्रतिहिंसक हो ही नहीं सकता।
क्या कोई सोच सकता है कि बीज गणित की अगुवाई करने वाला भारत घृणा के गणित का अभ्यास करेगा? युुक्लिद से भी पहले पाइथोगोरस थियोरम और शुल्वसूत्र का सृजन करने वाले बौधायन ने या कात्यायन ने क्या कभी सोचा होगा कि ज्यामिति की पहली आधारशिला रखने वाले भारत में संकीर्णता की त्रिज्या तान दी जाएगी?
क्या चरक और सुश्रुत ने कभी कल्पना की होगी कि भारतीय आयुर्वेद को पश्चिमी दबाव में दफन करने वाले समस्त फैसले उनके नाम लेने वाले लोग ही करेंगे और प्रवाल पिष्टि सहित कितने ही समुद्रीय तत्वों पर रोग लगा देंगे?
क्या ढाई हजार साल पहले कौमारभृत्य जीवक को स्वप्न् में भी यह खयाल आया होगा कि जिस धरती पर उन्हें एक भी पौधा अनुपयोगी नहीं मिला, उस देश में एक दिन सरकारें वनस्पतियों को तहस-नहस करने की परियोजनाओं को विकास का नाम देंगी? यह वही जीवक थे, जो कहते थे कि साधु अगर व्यापार करता है तो वह पूरे राष्ट्र को नरकगामी बनाता है।
यह वही जीवक थे, जिन्होंने तक्षशिला के योजन भर में कई दिन तक गुरु के आदेश से ऐसे पौधे की तलाश की, जो किसी ओषधि में काम न आता हो और अंतत: विफल साबित हुए।
यह वही जीवक था, जिसने सम्राट बिंबिसार के गुदाद्वार के पास नासूर का इलाज किया था और उन्हें रानियों के उपहास से मुक्ति दिलाई थी। यह वही जीवक था, जिसने बिंबिसार के इलाज की घोषणा की तो एक ब्राह्मण मित्र ने उसकी बांह पकड़ कर कहा कि क्या वह एक निकृष्ट नास्तिक बौद्ध का इलाज करेगा तो पलटकर जीवक बोले : इस विश्व में कौन नास्तिक? सभी तो ईश्वर की संतान हैं और ईश्वर की किसी संतान को जो विधर्मी समझता है, वह स्वयं निकृष्ट और विधर्मी है! ब्राह्मणों के इसी कट्टर आचरण के कारण जीवक बाद में बौद्ध हो गए।
क्या कभी पाई का सबसे एक्युरेट मान बताने वाले आर्यभट ने कभी सोचा होगा कि उनके देश में लोग विवेकवाद के बाद कट्टरतावाद की भेंट चढ़ जाएंगे और ज्योतिर्विज्ञान की पूजा करने के बजाय ज्योतिष के अंधकार में डूब जाएंगे? क्या दुनिया को खगोलविद्या का ककहरा सिखाने वाले भारत के किसी ऋषि ने कल्पना की होगी कि यहां के लोग अपरिग्रह को त्यागकर धन और वैभव के बजबजाते अमानुषिक ढेर लगाएंगे और शासक उनकी उंगलियों पर नाचेंगे?
शतरंज जैसे खेल का आविष्कारक भारत कभी इस खेल को भूल जाएगा और एक विदेशी खेल के लिए मर मिटेगा और उस खेल के खिलाड़ियों को भगवान घोषित कर देगा? काम शिक्षा का अाविष्कारक और कामसूत्र का प्रणेता भारत एक दिन काम शब्द से ही घृणा करने लगेगा और कामुकता के बजबजाते कीड़ों को साधुता का बाना पहना देगा!
क्या कभी भारतीय मनीषियों ने यह कल्पना की होगी कि मूर्ख, हुड़दंगी, अंधभक्त और धर्म के नाम पर कट्टरता फैलाने वाले इतने ताकतवर हो जाएंगे कि वे सनातन धर्म की बुराइयों पर वार करने वाले दयानंद सरस्वती से पूछेंगे कि क्यों तूने इस्लाम पर तो सिर्फ चार पन्ने लिखे और हिन्दू धर्म पर पूरा सत्यार्थप्रकाश ठोक मारा और काशी में पाखंड खंडिनी भी गाड़ दी! क्यों न तुझे दूध में शीशा पिघलाकर दे दिया जाए?
क्या हिंट्स फॉर सेल्फ कल्चर जैसा ग्रंथ लिखने वाले क्रांतिकारी लाला हरदयाल ने कभी सपने में भी सोचा होगा कि उनके महान देश के महान वैभव को खत्म करने पर आमादा और बौद्धिक रूप से कंगाल लोग दुनिया की इस श्रेष्ठतम धरती को बेहूदा विचारों और जंगलीपन से भर आप्लावित कर देने के लिए एक दिन गली-गली डिंडिंम घोष करेंगे? और अगर उनसे किसी ने तर्क करने का प्रयास किया तो वे उसे देशद्रोही कहकर गाली देंगे?
कोई चाहे कुछ करे, लेकिन चरैवेति-चरैवेति का घोष करने वाले इस देश में विवेकशीलता और परिवर्तनशीलता सदैव जीवित और जीवंत रहेगी। जैसा कि दयानंद सरस्वती ने कहा था : मनुष्य स्थावर वृक्ष नहीं, वह जंगम प्राणी है। चलना मनुष्य का धर्म है। जिसने इस धर्म को छोड़ दिया, वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है। समस्त देवता और राक्षस इसी धरती पर हैं। जो चलना छोड़ देते हैं, घृणाओं में जलते हैं। जो चलते रहते हैं, करुणा के सागर बने रहते हैं। मुनष्यता वहीं निवास करती है।
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