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अंग्रेज़ जब जम्बूद्वीप (भारतवर्ष) आये तो शिक्षा के नाम पर गुरुकुल कहलाने वाले संस्कृत विद्यालय या फिर मदरसे के नाम से जाने जाने वाले उर्दू- फ़ारसी शिक्षा केंद्र ही मौज़ूद थे। अल्पसंख्यक आबादी ही शिक्षा की अधिकारी हुआ करती थी और बहुसंख्यकों को बलपूर्वक इससे दूर रखा गया था। शिक्षा का मूल उद्देश्य धर्म के नाम पर सवालों का निषेध करना और मध्ययुगीन बर्बर व्यवस्था की जड़ों को जमाये रखना ही था।
अंग्रेज़ों के लिए यह शिक्षा व्यवस्था वैसे ही किसी काम की न थी जैसे यहाँ की लचर सैन्य व्यवस्था। अंततः रेल, डाक आदि ज़रूरतों की तरह ही उन्होंने लार्ड मैकाले के सुझावों पर आधारित एक नई शिक्षा व्यवस्था की नींव डाली। स्वभाविक तौर पर इसका भागीदार भी वही वर्ग बन पाया जो पहले से ही शिक्षा का अधिकारी था। अंग्रेज़ों की ज़रूरत भी बेहद सीमित थी इसलिए वंचित वर्गों को हिस्सा बनाने की कोई मज़बूरी भी उनके सामने प्रस्तुत न हुई। शिक्षा का उद्देश्य प्रशासनिक पदों पर कब्जा जमा लेना ही बन गया। ज्ञान, विज्ञान, खोज, आविष्कार, प्रगतिशील समाज की रचना इसके लिए कभी कोई मुद्दा ही न बना। इस व्यवस्था में भी उसी वर्ग का प्रभुत्व कायम रहा जो स्वभाव से प्रतिक्रियावादी था और चरित्र में घनघोर नस्लवादी था। ब्रिटिश राज की समाप्ति के बाद इस शिक्षा व्यवस्था का विस्तार तो हुआ लेकिन एक आधुनिक चिंतनशील पीढ़ी तैयार करने के उद्देश्य से कभी भी इसमें गुणात्मक परिवर्तन की कोई पहल न ली गयी।
आज भी शिक्षा के सम्भ्रांत केंद्रों में अल्पसंख्यक ब्राह्मण वर्ण का कब्जा बना हुआ है। इनका एकमात्र उद्देश्य नौकरियों के मलाईदार हिस्सों में वर्ण विशेष के लोगों का कब्जा बनाये रखना है।
लोकतन्त्र और विकास के नाम पर सरकारी दायरे में गैर सम्भ्रांत शिक्षा केंद्रों का उद्देश्य भी उत्पादक वर्ग को महज साक्षर बना डालने तक ही सीमित है। बाज़ार की डिमांड इससे ज्यादा नहीं फिलहाल। इन शिक्षा केंद्रों के निति नियन्ता, संचालक और शिक्षक भी व्यापक तौर पर सवर्ण ही बने हुए हैं।
गैर सवर्ण हिस्सेदारों की नियति भी अंततः ब्राह्मण संस्कृति का अनुपालन करते हुए उसके महिमामण्डन और प्रमोशन तक ही सीमित है।