ईरोम चानु शर्मिला

Vivek Umrao Glendenning “सामाजिक यायावर”

Irom Chanu Sharmila

बिना शक ईरोम चानु शर्मिला मजबूत इच्छाशक्ति की महिला हैं। लेकिन उनकी इच्छाशक्ति सीमित दिशा की इच्छाशक्ति लगती है। सीमित दिशा की इसलिए कह रहा हूं क्योंकि उनकी इच्छाशक्ति उनके अपने शरीर को कैसे प्रयोग करना है, तक ही सीमित है।

जब तक AFSA नहीं हटेगा, मैं भोजन नहीं करूंगी, अपने बालों में कंघी नहीं करूंगी, आईना में अपना चेहरा नहीं देखूंगी। यह था ईरोम शर्मिला का आंदोलन। व्यक्तिगत शरीर तक सीमित आंदोलन। खाना नहीं खाना, बालों में कंघी नहीं करनी, चेहरा आईना में नहीं देखना।

ईरोम शर्मिला का उपवास सांकेतिक उपवास रहा क्योंकि ईरोम शर्मिला का शरीर भोजन प्राप्त करता रहा। ईरोम शर्मिला के उपवास की परिभाषा यह है कि उन्होंने अपने मुंह से भोजन नहीं ग्रहण किया।

ईरोम शर्मिला मणिपुर में मास-लीडर कभी नहीं रहीं। वे युवा थीं, संवेदनशील थीं। उनको लगा होगा कि गांधी उपवास रखते थे, मैं भी रखूं तो AFSA हट जाएगा। जैसे गांधी जी के उपवास से सरकार दबाव में आती थी, मेरे उपवास से भी सरकार दबाव में आ जाएगी। अपने उपवास को मजबूती देने के लिए उन्होंने कहा कि वे अपने बालों में कंघी भी नहीं करेंगीं, आईना में अपना चेहरा नहीं देखेंगी।

उन्होंने उपवास शुरू कर दिया, कुछ दिनों बाद उनको हिरासत में लेकर चिकत्सीय पद्धति से आहार देना शुरू कर दिया गया।  ईरोम शर्मिला का शरीर आहार प्राप्त करता रहा और ईरोम शर्मिला उपवास करने वाले आइकन के रूप में स्थापित होती रहीं। यह प्रक्रिया तकरीबन 16 वर्षों तक चली। इन 16 वर्षों में राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने ईरोम शर्मिला का बिना शर्त खूब साथ दिया। ईरोम शर्मिला को अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले।

मैं ईरोम शर्मिला से पहली बार तकरीबन 11-12 साल पहले दिल्ली में मिला था। कुछ देर साथ रहा था। ईरोम शर्मिला के भाई व दिल्ली में मणिपुर के छात्रों से कई बार मिला, कई बार उनके कमरों में भी गया जहां वे छोटी-छोटी मीटिंगे करते थे। मुझे जनांदोलन खड़ा कर पाने की दृष्टि, सोच व स्पष्टता दिखी नहीं। शुभकामनाएं रखते हुए भी मैं धीरे-धीरे दूर होता चला गया। सक्रिय रूप से जुड़ने की संबद्धता बन नहीं पाई।

जो मुझे जानते हैं, वे जानते ही हैं कि जब पूरा देश अरविंद केजरीवाल जी व अन्ना हजारे जी के पीछे पगलाया हुआ था। तब मैं यह कह रहा था कि कुछ नहीं रखा इनके आंदोलन में। दरअसल मैं समाज, सामाजिक मुद्दों, सामाजिक समाधान व आंदोलन को सूक्ष्मता से देखने का प्रयास करता हूं। सब्जेक्टिविटी की बजाय ऑब्जेक्टिविटी से समझने व देखने का प्रयास करता हूं। इसलिए मेरे विश्लेषण भिन्न होते हैं, अधिकतर लोगों को पसंद भी नहीं आते हैं। यह बात अलग है कि कुछ वर्षों बाद उनको लगता है कि मेरे विश्लेषण सही थे। विभिन्न सामाजिक मुद्दों व घटनाओं में इसी प्रक्रिया का दुहराव होता रहता है।

भारतीय समाज भावुकता से चलता है। ईरोम शर्मिला ने भावुकता में निर्णय लिया कि वे भोजन नहीं करेंगीं, बालों में कंघी नहीं करेंगीं, आईना नहीं देखेंगी। पहले AFSA हटाओ तब यह सब करूंगी। एक महिला मुंह से भोजन नहीं ग्रहण करती है, सुंदर बनने व दिखने का त्याग कर दिया है इस बात पर भारतीय समाज की भावुकता ने ईरोम शर्मिला को आइकन बना दिया। आइकन बनने का आधार – मुंह से भोजन ग्रहण न करना, बालों में कंघी न करना, चेहरा आइने में न देखना।

16 वर्षों में पहुंचे कहां :

16 वर्षों में ईरोम शर्मिला सेलिब्रिटी बन गईं, पुरस्कार मिल गए, उनके भाई व परिवार आदि का आर्थिक विकास भी जबरदस्त हो गया। 

ईरोम शर्मिला ने उपवास रखने वाला अपना व्यक्तिगत आंदोलन भी खतम कर लिया।

सवाल यह खड़ा होता है कि इतना सब संसाधन, मीडिया, आर्थिक, सहयोग व सेलिब्रिटी तामझाम आदि होने के बावजूद 16 वर्षों जैसे लंबे समय में ईरोम शर्मिला मणिपुर में ठोस जनांदोलन की नींव रख पाने में असमर्थ रहीं।  मणिपुर के लोग वहीं के वहीं रहे।  AFSA भी वहीं का वहीं रहा।

चलते-चलते :

यदि ईरोम शर्मिला नहीं होतीं तो मणिपुर में पिछले 16-17 वर्षों में कुछ ठीक-ठाक जमीनी सामाजिक आंदोलन खड़े हो सकते थे। बहुत ऐसे छोटे-छोटे प्रयास जिनका वास्तविक जमीनी आधार था, उनकी ओर हमारा ध्यान नहीं गया, उनको हमने प्रोत्साहित नहीं किया।  हमने ईरोम शर्मिला को मणिपुर मान लिया, हमने मान लिया कि पूरा मणिपुर ईरोम शर्मिला के साथ खड़ा है।

ईरोम शर्मिला को 80-90 मत मिलने पर हम भोचक्के इसीलिए हैं क्योंकि हमने यह मान रखा था कि ईरोम शर्मिला मणिपुर की मास-लीडर हैं, जमीनी आंदोलन व संघर्ष से निकली हुई लोक-नेता हैं। मणिपुर के लोग उनके साथ खड़े हैं। वे मणिपुर के लोगों का सामाजिक प्रतिनिधित्व करती हैं।

ईरोम शर्मिला एक मजबूत इच्छाशक्ति की संवेदनशील महिला हैं। लेकिन वे मणिपुर के लोगों की मास-लीडर कभी नहीं रहीं।  वे उपवास रूपी अपने व्यक्तिगत आंदोलन को सामाजिक आंदोलन के रूप में विकसित करने में असफल रहीं।

मुझे यह लगता है कि उनके पास दूरगामी योजना कभी रही नहीं, आंदोलन की समझ नहीं रही। वे बहाव में बहती चली गईं।

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