Vimal Kumar
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कितनी बार कहा मैं एक देह नहीं हूँ
सिर्फ एक स्त्री हूँ
मुझे इस जंगल से बाहर निकल जाने दो .
कितनी बार कहा चीखकर
मैं कोई तितली नहीं हूँ
तुम्हारे बगीचे में उडती हुई
तुम्हारी नींद में कोई ख्वाब नहीं हूँ .
मुझे इस ख्वाबसे बाहर निकल जाने दो
नहीं हूँ कोई कटी पतंग
जिसे लूटने के लिए तुम दौड़ते रहो..
नहीं हूँ कोई नदी
प्यास बुझाने तुम आते रहो बारबार
मुझे इस नदी से बाहर निकल जाने दो
मैं एक स्त्रीहूँ .
कितनी बार कहा मैंने
कोई अँ धेरी सुरंग नहीं हूँ
नहीं हूँ कोई फूल
न कोई खुशबू
मुझे इस सुरंग से बाहर निकल जाने दो
मैंने इतनी बार कहा तुमसे
मैं सबसे प्रेम नहीं कर सकती
नहीं सोसकती सबके साथ
मैं एकस्त्री हूँ
मैं वक्ष नहीं हूँ
कोई योनि नहीं हूँ
एक बच्चे की माँ हूँ
तुम्हारे लिए कोई बिस्तर नहीं हूँ
कोई तकिया नहीं हूँ
मेरी देह ही मेरे लिए एक पिंजरा है
मुझे आज इस पिंजरे से बाहर निकल जाने दो