खुद की मौत !

Mukesh Kumar Sinha

[themify_hr color=”red”]

सोने से कुछ देर पहले
तकियें में चेहरा भींचे
कुछ पलों के लिए रोकी थी साँसे
महसूसना चाहता था
खुद की मौत !
आखिर आत्महत्या भी तो कुछ होती है न

मरने के बाद होगा क्या
नहीं समझ पाया
पर, मरने से कुछ पल पहले कि
यातना की रिहर्सल
बता गयी, नहीं है क़ुव्वत मुझमे मरने की
न चाहते हुए भी
आई आवाज, अन्दर से, मत मारो !

किसी दिन देखा था
शांति व मोहब्बत के दूत
सुर्ख सफेद फ़ाख्ते को
कमरे में, चलते पंखे से टकरा कर
थके-हारे टूटे डैने के साथ
औंधे मुंह गिरते, बिस्तर पर
दिल ने कहा – ऐसे ही चाहिए मौत !

आह भरते मरने को अधीर फ़ाख्ते पर
एक बिल्ले ने मारा था झपट्टा
जैसे था, उसे इन्तजार एक मौत का
पहुंच पाता फाख्ते के कंठ तक कुछ पानी की बूंदे
बिल्ले के म्याऊं में थी आवाज
‘राम नाम सत्य है !’

भोरे-भोरे
निकला था सैर पर, कोई एक दिन
एक सरपट दौड़ती मोटरकार ने
रौंद दिया था एक आवारा कुत्ते को
पल में, फटाक की आवाज़ के साथ
सारी अंतड़ियाँ व पेट के अन्दर का मांस
पड़े थे सड़क पर
पर चिहुँकते हुए, दिल ने घबरा कर कहा
नहीं मरना कुत्ते की मौत !

चीटियाँ भी तो
दब ही जाती हैं राहों में
कहाँ रहता है ध्यान कि
पैरों तले हुई हैं बहुत सी बिलखती मौत

यानी है जिंदगी तो होगी मौत
है मौत तो बहाने अनेक
है मौत के अंदाज अलग अलग
मरते हैं कमजोर लाचार
पाते हैं वीरगति बलशाली

बेशक कहूँ नहीं मरना है मुझे
पर
कुछ आँखे होंगी नम
कभी न कभी, मेरे लिए भी ,
शायद मेरे वजह से भी होगी
छलकते पानी की सांद्रता उच्चतम स्तर पर !
कुछ नमक तो मुझमे भी है ही न

आखिर मौत के बाद का सन्नाटा
क्यों दहाड़ें मारता प्रतीत होता है !!

Tagged . Bookmark the permalink.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *