कविता – “टचवुड”

Mukesh Kumar Sinha

अव्यवस्थित भावनाओं को
बेवजह समेटने की कोशिश भर हैं
मेरी प्रेम कविताएं

जिसकी शुरूआती पंक्तियां
गुलाबी दबी मुस्कुराहटों के साथ
चाहती हैं
हो जाएं तुम्हें समर्पित

पर स्वछंद हंसते डिंपल से जड़ी मुस्कान और
तुम्हारे परफेक्ट आई क्यू के कॉकटेल में
कहीं खोती हुई ये कविता
प्रेम की चाहत को जज़्ब करती है
जैसे जींस के पीछे के पॉकेट में बटुए को दबाये
तुमसे कहना चाहती है
‘आज तो कॉफी का बिल तुम ही भरना’
प्रेम भी तो अर्थव्यवस्था का मारा हुआ है आखिर

सारी वैचारिक्ताएं शहीद हो जाती है
जब तुम कॉफी हाउस में
टेबल पर उचककर
चाहती हो मेरे आँखों में झांकना
लेकिन मेरी फिसलती नज़र
मौन होकर भी पूछती है
तुम्हारे टीशर्ट का साइज़ एक्सएल है न?

बिना इतराये, ख़ार खाये
कहती हो तुम, शोख मुस्कराहट के साथ
‘ओये! ऊपर देख।’

मैं भी, तब
इस ‘ओये’ पर चाहता हूँ
हो जाऊं कुर्बान
पर पढ़ा है, अब मजनूं मरते नहीं

मेरा तुम्हारे लिए आकर्षण
तुम्हारा मेरे प्रति झुकाव
हम दोनों के बीच
पनपता रहस्यमयी अहसास
जैसे जेम्स हेडली चेज़ का जासूसी उपान्यास
अंतिम पन्ने से पता चलेगा
प्रेम ही तो है,
अनबिलिवेबल प्रेम!

नहीं मेरे अहमक!
वी आर ओनली फ्रेंड्स
– तुम्हारे मादक होंठ काँपे थे
कोई न,
दोस्त तो हैं न!
टचवुड!


फेसवुक वाल से साभार

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One Response to कविता – “टचवुड”

  1. Mukesh Kumar Sinha says:

    शुक्रिया साहब

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