न्यायपूर्ण मूलभूत संपत्ति अधिकार, समाज की अनिवार्य आवश्यकता

रोशनलाल अग्रवाल


हर आदमी अधिक से अधिक भय मुक्त अभाव मुक्त सुख शांतिपूर्ण सुरक्षित और स्वतंत्र जीवन जीना चाहता है लेकिन हर आदमी की यही इच्छा उनमें परस्पर टकराव पैदा करती है इस टकराव पर अंकुश रखने के लिए ही हमें एक व्यापक समझोते की ज़रूरत पड़ती है जिसे हम सामाजिक व्यवस्था कहते हैं।

मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या अपनी सीमाहीन व अनंत इच्छाओं की पूर्ति के लिए दूसरे लोगों से होने वाला टकराव ही मुख्य है और इसके समाधान का एक ही मार्ग है एक व्यक्ति की इच्छाओं की अधिकतम न्याय पूर्व सीमा निर्धारित करना।

वैसे तो हर आदमी की सुखी जीवन की जरूरतें बहुत कम होती हैं परंतु मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मनुष्य कभी भी संतुष्ट नहीं होता और भविष्य की अनिश्चितता के भय और लोभ लालच के चलते सीमाहीन संपत्ति का मालिक बनना चाहता है जो कभी भी पूरी नहीं हो सकती।

एक व्यक्ति के संपत्ति अधिकार की सीमा ताकत या बुद्धि के आधार पर कभी निर्धारित नहीं की जा सकती बल्कि यह समानता और स्वतंत्रता मैं समन्वय करके ही स्थापित की जा सकती है जिसे हम बोलचाल की भाषा में न्याय कहते हैं व्यावहारिक दृष्टि से यह सीमा औसत संपत्ति अधिकार ही हो सकती है और किसी से समाज में स्थाई शांति की स्थापना भी संभव हो सकती है इसी से समानता और स्वतंत्रता में परस्पर कोई टकराव नहीं होगा।

हर व्यक्ति के ओसत सीमा तक मूलभूत संपत्ति अधिकार की रक्षा करने के लिए उससे अधिक संपत्ति रखने पर रोक नहीं होनी चाहिए बल्कि उससे अधिक संपत्ति का व्यक्ति को मालिक नहीं माना जाना चाहिए बल्कि उसे समाज का कर्ज़दार माना जाना चाहिए और उससे ब्याज की दर से संपत्ति कर लिया जाना चाहिए।

इसलिए किसी भी व्यक्ति को सीमाहीन संपत्ति का स्वामी मानकर समाज में कभी भी शांति की स्थापना नहीं नहीं की जा सकती अर्थात अमीरी रेखा का निर्माण समाज की अनिवार्य आवश्यकता है जिससे कोई समझोता नहीं किया जा सकता।

ओसत सीमा से अधिक संपत्ति पर संपत्ति कर लगाकर उससे होने वाली आए हो सामूहिक आए होना ही चाहिए और इससे व्यक्ति की लोग लालच की प्रवृत्ति पर न्याय पूर्ण अंकुश लग जाने से लोगों में टकराव को खत्म करने के साथ-साथ अर्थव्यवस्था मैं भी निरंतर गतिशीलता आ जाएगी जिससे यह बहुत टिकाऊ और संतुलित बनी रहेगी।

मनुष्य प्रारंभ काल से ही शांति की स्थापना का सूत्र तलाशता रहा है और अनेक प्रकार की विचारधाराएं इसका प्रमाण है लेकिन आप देख सकते हैं कि यह विचारधाराएं स्वतंत्रता और समानता के बीच न्याय पूर्ण समन्वय स्थापित नहीं कर पाई और इसीलिए अपने मूल उद्देश्य में सफल भी नहीं हो सकी।

मुझे तो लगता है कि पूंजीवाद मार्क्सवाद समाजवाद ही नहीं बल्कि प्राचीन भारतीय वर्ण व्यवस्था से भी अधिक अच्छी व्यवस्था समाज में स्थापित हो सकती है।

इसलिए मेरा निवेदन है कि अपने अपने दुराग्रहों से मुक्त हो कर विद्वानों को इस परिकल्पना का गहरा परीक्षण करना चाहिए। समानता और स्वतंत्रता में समन्वय होने के कारण यह सोच किसी के भी विरुद्ध नहीं हो सकती।

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