संजीव कुमार शर्मा
जामनगर भले ही गुजरात में हो लेकिन असली जामनगर तो बेंगलुरु है| वैसे बेंगलुरु का जिक्र आते ही आँखों के सामने एक मनोहारी नजारा घूम जाता है| आँखों को लुभाती हरियाली, देह गुदगुदाती ठंडी हवाएं और शहर से बाहर निकलते ही एक-से-एक नयनाभिराम दृश्य| एक तरफ सिलिकॉन क्रांति का परचम लहराती इलेक्ट्रॉनिक सिटी तो दूसरी तरफ जगह-जगह पर झीलें, बाग़, बगीचे, पेड़ों की कतारों की बीच बनी साफ़-सुथरी सड़कें मानो किसी शौक़ीन चित्रकार ने बड़े मनोयोग से इस शहर के कैनवास को अपने नायब स्ट्रोकों से गढ़ा हो|
लेकिन हकीकत की कठोर जमीन से टकरा कर ख्वाब के शीशों पर रची गयी ये कल्पनाएँ सहज ही चकनाचूर हो जाती हैं| जैसे ही आप बेंगलरु की सडकों पर उतरते हैं ऐसा महसूस होता है जैसे पूरा शहर भयंकर दमे का शिकार है| ज्यादातर चौराहे, सड़कें, मोड़ सब जाम रहते हैं, कहीं ट्रैफिक रेंग रहा है तो कहीं ओलिंपिक में भारत की उम्मीदों की तरह एक ही जगह पर फंसा है| एक-दो घंटे किसी जाम में बिलकुल एक जगह पर ही फंसे रहना सामान्य बात है, बेहतर होगा आप अपना लंच बॉक्स, काम करने के रजिस्टर या टैब व मोबाइल में कुछ पसंदीदा मूवीज रखें ताकि इस समय में आपका मानसिक संतुलन बना रहे और आप बाल नोचते या कपड़े फाड़ते हुए अपने वाहन से बाहर न आ जाएँ|
हाल ही में भारत के प्रमुख शहरों के वाहनों की औसत रफ़्तार का आकलन करने के लिए विभिन्न टैक्सी चलाने वाली कंपनियों के साथ एक सर्वे किया गया| उसमें जहाँ पुणे और दिल्ली ने 23 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ़्तार से सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया वहीं कोलकाता और बेंगुलुर ने क्रमशः 17 और 18 किलोमीटर प्रतिघंटा की औसत रफ़्तार के साथ अपने हालात खुद ही बयां कर दिए|
बहुत जल्द चिकित्सा विज्ञान में एक नयी विधा का सूत्रपात होगा – ट्रैफिक जाम में फंसने से होनी वाली बीमारियाँ और उनके उपचार| नए तरह के विशेषज्ञ पैदा होंगे – ट्रैफिक सिकनेस एक्सपर्ट| अलग हॉस्पिटल खोले जाएंगे – ट्रैफिक जाम डिजीज मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल्स| योग वाले भी पीछे नहीं रहेंगे और ट्रैफिक जाम में फंसने पर करने वाली विशेष यौगिक क्रियाएं बताएंगे वह भी साक्षात पतंजलि के हवाले से| विशेष ध्यान पद्धितियां और विपासना भी बाजार में आ जाएगी, खास तौर ट्रैफिक जाम के शिकार लोगों के लिए| वह दिन दूर नहीं जब बेंगलुरु इन सब का अंतरराष्ट्रीय हब बन जाएगा, सूचना तकनीकी से भी बड़ा|
उच्चस्तरीय नीति निर्माता, बेहतरीन इंजीनियर और वास्तुविद, अधिकारीयों की फ़ौज और राजधानी होने के कारण राजनैतिक व्यक्तित्वों का जमावड़ा, इसके बावजूद ऐसा क्या हो गया कि पिछले दस वर्षों के अंदर बेंगलुरु के फेफड़े जाम हो गए और उसके लिए सांस लेना दूभर हो गया| दमे का तो फिर भी स्प्रे हैं जिसे सूंघ कर कुछ राहत की उम्मीद होती है लेकिन यहाँ की सडकों का जो दमा है उसका तो कोई स्प्रे भी नहीं है|
मुंबई, दिल्ली और बेंगलुरु भारत के सबसे ज्यादा आबादी वाले शहर हैं| एक अनुमान के मुताबिक बेंगलुरु की आबादी हर साल 10% की वृद्धि के साथ 11.5 करोड़ पार कर चुकी है| और इसके साथ ही बढ़ती जा रही है वाहनों को ले कर दीवानगी| मार्च 31, 2015 तक करीब 60 लाख वाहन बंगलुरु की सड़कों पर दौड़ रहे हैं| इनमे से लगभग पांच लाख वाहन महज एक साल में बढे थे| इसके बाद कितने वाहन और बढ़ गए होंगे इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है|
यह सच है कि बाहर से आने वाले लोगों का ज्यादा होता दवाब, लगातार बढ़ती आबादी और उसकी निरंतर फैलती जरूरतों ने इस शहर पर बहुत बोझ बढ़ा दिया है लेकिन यह कोई अनपेक्षित नहीं था| यहाँ सूचना क्रांति की शुरुआत अस्सी के दशक में ही हो गयी थी नब्बे के बाद आर्थिक सुधार लागू होने बाद तो जैसे इसे पर लग गए| जब इसे सिलिकॉन वैली के रूप में विकसित किया जा रहा तभी यह स्पष्ट हो गया था कि आने वाले समय में यहाँ की आबादी बहुत अधिक बढ़ने वाली है| लेकिन उससे निबटने के लिए जो उपाय किए गए वे विस्तृत और उपयुक्त विज़न के अभाव में बोने साबित हुए| बस फौरी तौर पर किसी तरह से समस्यों से निबटने के प्रयास किए गए|
इसी का परिणाम है कि आज सड़कें जाम हो गयीं और पर्यावरण को नुकसान हुआ वो अलग| ट्रैफिक की समस्या तो सुलझी नहीं लेकिन आधी से ज्यादा झीलें सूख गयीं, बेशकीमती पुराने पेड़ कट गए और उनकी जगह लगाए थोड़े-बहुत बाहरी पेड़ों पर घोंसला बनाते हुए परिंदे भी हिचकने लगे| सीएनजी वगैरह के बारे में कोई जागरूकता नहीं होने के कारण बेहताशा धुंआ उगलते वाहनों की कतारें बढ़ती हीं गयीं|
मेट्रो ट्रेन यहाँ की ट्रैफिक समस्या से निबटने का एक प्रभावी उपाय हो सकती थी लेकिन घोंघे की रफ़्तार से चलती मेट्रो योजना कयामत के दिन से एक दिन पहले पूरी होगी या उसी दिन पूरी होगी कहना कठिन है| मेट्रो का काम राज्य सरकार और केंद्र सरकार के सम्मिलित उपक्रम के रूप में विधिवत रूप से अक्टूबर 2011 को शुरू हुआ| पहला चरण जुलाई 2016 को खत्म हुआ और अभी लगभग कई चरण बचे हैं| जो चरण पूरा हो चुका है उसमें भी अभी सीमित यात्री हैं क्योंकि या तो वह रूट उपयोगी नहीं है या लोगों को जानकारी नहीं है और कई लोगों को बस की तुलना में वह महँगा भी लग रहा है| अगर मेट्रो का काम युद्धस्तर पर चले, सुनियोजित ढंग से चलाया जाए, लोगों को पर्याप्त जानकारी दी जाए और किराया उपयुक्त रखा जाए तो ट्रैफिक में काफी राहत मिल सकती है| लेकिन यह मृग तृष्णा है या हकीकत ये तो आने वाला समय ही बताएगा|
सबसे चमत्कारी रवैया इस उच्चशिक्षित, सूचना क्रांति के उद्गम और साधन-सम्पन्न शहर के नागरिकों का है| चाहे बाहर से आकर यहाँ बस गए लोग हों या यहाँ के मूल निवासी, लगता है प्रकृति के उपहार इस खूबसूरत शहर की किसी को परवाह ही नहीं है| ढेरों झीलों, खूबसूरत पहाड़ियों, अद्भुत हरियाली और मनोहारी जलवायु वाले इस शहर के नागरिकों की उदासीनता अपराध की सीमा को छूती है| ट्रैफिक का रोना रोएंगे, रोज यंत्रणा भुगतेंगे, अपने जीवन के कीमती घंटे सड़कों पर गुजार देंगे लेकिन कहीं कोई पहल नहीं करेगा, कहीं कोई कदम नहीं उठाएगा| यहाँ तक कॉलोनियों की समितियों में इस बात पर कोई चर्चा तक नहीं होती|
चाहे व्यक्तिगत जीवन हो या सामूहिक, लगातार कम्प्लेन मोड पर रहना लेकिन हकीकत में कुछ नहीं करना ये हमारे जीवन की एक बड़ी महामारी बन कर आयी है| इस बात में आलोचना जैसा कुछ नहीं है बल्कि यह हम लोगों की हकीकत है| अगर हम इस महामारी से निजात पा सकें तो शायद बंगलुरु के ट्रैफिक के लिए कुछ किया जा सकता है वरना जिन्दगी तो बेशरम है ही, येन केन प्रकारेण चलती ही रहती है|