सामाजिक यायावर
जब मैं बालक था तब मुझे रटाया गया कि कर्म ही पूजा है, कर्म ही प्रधान है, कर्म ही ईश्वर है। खूब किस्से कहानियां सुनाए गए, नैतिक शिक्षा में रटाया गया। जब स्वतंत्र चिंतन शुरू किया तो पाया कि भारतीय सामाजिक ढांचे में कर्म का तो कोई महत्व ही नही है, उल्टा कर्म तिरस्कारित है। सबसे महत्वपूर्ण तो जाति है। जो जाति जितना अधिक कर्मशील है वह उतना ही नीच मानी जाती है, वह उतना ही अधिक अछूत है। आधुनिक काल में भी यही दिखाई दिया कि जो जितना अधिक कर्म करता है वह उतना ही अधिक शोषित है।
लगभग 17 साल पहले रात में 9 से 12 का मूवी शो देखने जा रहा था। मिथुन चक्रवर्ती की कोई मूवी थी। जिस रिक्शे में मैं बैठा था उसको एक किशोर चला रहा था। उससे यूं ही कर्म पर बातचीत शुरू हो गई। वह बोला कि कर्म ही पूजा है, कर्म ही ईश्वर है।
मैंने कहा कि आपके पिता क्या करते थे, बोला कि वे पूरा जीवन रिक्शा चलाते रहे। मैंने पूछा कि रिक्शा चलाना कर्म है कि नहीं, बोला बहुत ज्यादा कर्म है। मैंने कहा कि आपके पिता पूरा जीवन कर्म किए, आप कर्म कर रहे हैं आपके पिता ने किसी का शोषण नहीं किया होगा, आप भी शोषण नहीं करते होगें। फिर भी आपका जीवन कष्ट से भरा है।
आपको तो बड़े व प्रतिष्ठित मंदिरों में घंटों लाईन में धक्के खाते हुए भगवान की मूर्ति के दर्शन दूर से होते होगें जबकि बड़े व्यापारी को, बड़े नेता को, बड़े नौककशाह को, पुजारी को मंदिर में विशिष्ट व्यवस्था दी जाती है। जबकि कर्म को ईश्वर कहा गया है, इसलिए आपको विशिष्ट माना जाना चाहिए।
मैंने कहा कि एक नौकरशाह ने केवल कुछ किताबें रटकर किसी परीक्षा में कुछ अंक लाकर इतना बड़ा कर्म कर लिया कि उसको पूरा जीवन कुछ भी करने की जरूरत नहीं, आजीवन मौज ही मौज। यहां तक कि उसके पति/पत्नी व बच्चों को भी कोई कर्म करने की जरूरत नहीं। सबकी मौज और खूब मौज।
किताब रटना कर्म हो गया इतना बड़ा व महान कर्म हो गया कि केवल साल दो साल कुछ किताबें रट लीं और आजीवन की मौज, दूसरों का शोषण करने का अधिकार, दूसरों की मेहनत पर कानूनी हक भी मिल गया। जबकि रात दिन हाड़तोड़ मेहनत करना कर्म नहीं हुआ। बाप हाड़तोड़ मेहनत करता रहा, बेटा भी करता रह गया। फिर भी आजीवन शोषण, तिरस्कार व दुत्कार। वह भी उस समाज में जहां सबको रटाया जाता है कि कर्म ही पूजा है, कर्म ही ईश्वर है।
मैंने पूछा कि टैक्सी खरीदने वाला अधिक कर्म करता है या टैक्सी को रात दिन चलाने वाला ड्राईवर। जवाब आया ड्राईवर, मैंने पूछा कि तब ड्राईवर टैक्सी के साथ मुफ्त क्यों मिलता है और पूरा लाभ बिना कर्म किए ही टैक्सी खरीदने वाले के पास क्यों जाता है और ड्राईवर को उसी के द्वारा कमाई गई रकम में से बहुत ही कम रकम वेतन के रूप में साथ में गाली गलौच व तिरस्कार बोनस में मिलता है।
ऐसे ही उदाहरण भरे पड़े हैं। रिक्शावाला किशोर बोला कि क्या कर्म से कुछ नहीं होता। मैने पूछा कि अमीर अधिक कर्म करता है कि गरीब, जवाब आया कि गरीब अधिक कर्म करता है। पूछा कि अमीर का बच्चा अधिक कर्म करता है कि गरीब का बच्चा, जवाब आया कि अमीर का बच्चा को कोई काम न करना पड़े यही तो अमीरी है।
मैंने कहा कि इन सब असल जीवन के लाखों जीवंत उदाहरणों से क्या संदेश मिलता है। किशोर बोला कि यह संदेश मिलता है कि गरीब अधिक कर्मशील है और अमीर बहुत ही कम कर्मशील है। मैंने उससे कहा कि हर बात को रटने के पहले उसको वास्तविकता में तौल कर देखिए। नहीं तो हजारों सालों तक पिता व पुत्र रिक्शा ही चलाता रहेगा और तिरस्कारित व शोषित भी होता रहेगा।
मैंने कहा कि भारत सिर्फ कर्म की महानता का नारा लगाने का ढोंग करता है जबकि कर्म को बेइंतहा तिरस्कारित करने की परंपरा चलती आई है। जरूरत है कि कर्म को नारेबाजी से इतर वास्तव में प्रतिष्ठित किए जाने की। कर्म को यदि भारतीय समाज सच में ही महान मानता और तिरस्कारित नहीं करता होता तो इस समाज में न जाति होती, न दहेज और न ही हर स्तर पर भ्रष्टाचार।
.