यह लेख उन लोगों को समर्पित है जो लोग मुझे मेरे जातिवाद के ऊपर लिखे लेखों में ज्ञान-प्रवचन देते हैं या प्रतिक्रिया स्वरूप तर्कों व शब्दों के जाल से यह बतानें का प्रयास करते हैं कि जातिवाद खतम हो रहा है या जातिवाद अपनें भीतर बहुत ही मानवीय व दूरदर्शी भाव व मानवीय लक्ष्य को समाहित किये हुये है/या था ::
मैंनें अपनें छात्र-जीवन में भी कुछ ऐसे गावों में समाज के लिये काम किये जिन गांवों में “दलित-वेश्यायें” और “दलित” ही रहते थे और आज तक रहते हैं।
यह बातें तब की हैं जब मैं स्नातक का छात्र हुआ करता था और सेमेस्टर्स में बंक मारकर, हर शनिवार-रविवार, सर्दियो/गर्मियों/सेमेस्टर-अवकाशों में 200 किलोमीटर की दूरी स्थानीय बसों या मोटरसाइकिल में तय करके पहुंचता था और इन्हीं दलितों के घरों में रहता था, खाता था और कभी कभी इनके साथ खेतों में या किसी और काम में मजदूरों की तरह काम करता था ताकि मेरे मन को यह नैतिक सकून मिल सके कि मैं अपनें भोजन के लिये इन पर अवांछित बोझ नहीं बन रहा हूं।
- “दलित-वेश्याओं” वाला गांव, कुछ सौ वर्ष पूर्व उस इलाके के ऊपरी जाति के लोगों नें बसाया था। इस गांव में पति नाम की कोई वस्तु नहीं होती थी। आसपास के इलाके के गांवों से कोई भी आकर इस गांव की महिलाओं को वस्तु की तरह भोग सकता था। बिना पिता की पहचान व नाम के पैदा होनें वाली इनकी संतानों में यदि पुत्र हुआ तो वह ऊपरी जाति के लोगों के घरों में बेगारी करनें में उसको अपनें जीवन की नियति माननी होती थी, और यदि लड़की हुयी तो उसको तो महज 13-14 साल की उम्र से ही वेश्या बनना तय था ही। इस गांव की लड़कियां आज भी वेश्या बनतीं हैं और यदि 35 साल से अधिक उम्र के पुरुष से यह पूंछा जाये कि उसका पिता कौन है तो 90% से अधिक पुरुष गोलमाल जवाब देगा क्योंकि उसको पता ही नहीं कि किस पुरुष के साथ रात-बितानें से उसका जन्म हुआ।
जब लोग जागरूक होनें लगे तो ऊपरी जाति के लोगों नें नया तरीका निकाला- इस गांव की लड़कियों को मुंबई जैसे भारतीय मेट्रो शहरों, अरब देशों और दूसरे देशों के वेश्यालयों में बेचा जानें लगा।
यह वही गांव है जहां कि लड़कियों को मैंनें अपनीं धर्म-बहनें माना और उन्होनें मुझे रक्षाबंधन में राखी बांधी। कुछ स्थानीय युवाओं के साथ मिलकर इस गांव के लोगों के लिये गैर-परंपरागत ऊर्जा के उपकरण, प्राथमिक शिक्षा व स्वास्थ्य आदि के काम भी शुरु किये गये थे।
- “दलित” वाला गांव में सिर्फ एक घर पंडित जी का था उसमें भी केवल एक पंडित जी ही रहते थे और उनका पूरा परिवार मेट्रो शहर में रहता था। पंडित जी थे अकेले लेकिन पूरा गांव उनका गुलाम था क्योंकि पूरे गांव की जमीन लगभग मानिये कि उनकी ही थी। इसलिये 60 परिवारों के दलित उनके अघोषित गुलाम।महज 15 वर्ष पूर्व की ही बात है कि एक 12 साल के दलित बच्चे नें उनके खेतों में बेगार करनें से मना कर दिया तो उसको खेत में जिंदा जला दिया गया था और किसी की हिम्मत न हुयी कि पंडित जी को कोई किसी कानून आदि बता पाता। यह घटना उन पंडित जी की है, जिनके परिवार के लोग न तो बहुत बड़े पदों में थे और न ही कोई राजा या नवाब आदि।
मेरा बहुत ही दृढ़ता से यह मानना है कि “जातिवाद” का घिनौनापन व हिंसा समझनें के लिये मनुष्य को अपनें स्वार्थ, अहंकार, शाब्दिक-तर्कों के कथित ज्ञान की महानता के गौरव आदि ओछेपन से बाहर आकर सच्ची मानवीय-संवेदनशीलता से घिनौनेपन को समझना होगा।
ऊपर की बातें तो तब की हैं जब मैं छात्र होता था। तब से अब तक तो मैं कितना भारत देख चुका हूं मुझे खुद भी याद नहीं रहता…. मैं सैकड़ों घटनायें बता सकता हूं जो कि ऊपरी जातियों के वीभत्स व घिनौंनें अमानवीय आत्याचारों पर हैं। सारी घटनायें सत्य हैं और आधुनिक भारत व समाज की हैं।
“जातिवाद” को खतम करना है तो पहले खुद में इमानदार और मानवीय होईये और तार्किक, शाब्दिक और पौराणिक-कथाओं वाला दर्शन किनारे रखकर इमानदार चिंतन कीजिये। अपनें इर्द-गिर्द की दस-पांच घटनाओं को दुनिया की कसौटी न मानिये। दुनिया आपके मुहल्ले से बहुत ही अधिक बड़ी है।
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