संघ परिवार (RSS) पोषित आर्थिक नीतियों से देश में गहराता आर्थिक संकट — Dr Surendra Singh Bisht

Dr Surendra Singh Bisht​

​सर्वप्रथम एक उद्घोषणा

यह लेख संघ परिवार की आलोचना करने के लिए नहीं लिखा है, बल्कि इस लेख का उद्देश्य समाज को चेताना है और संघ परिवार के विवेक को झकझोरना है। मोटे तौर पर इस विषय में दो लेख पिछले वर्ष लिख चुका हूँ, पर तब संघ परिवार को सीधे आरोपी के पिंजड़े में नहीं खड़ा किया था। वैसे संघ परिवार से जुड़े अनेक लोग लेखक के शीर्षक को पढ़कर तुरंत प्रतिक्रिया देंगे कि संघ या संघ परिवार की कोई आर्थिक नीतियां नहीं हैं, इसलिए उनकी आर्थिक नीतियों के कारण देश में आर्थिक संकट कैसे हो सकता है ? पर जो संघ और संघ परिवार को नजदीक से जानते हैं वे संघ परिवार की घोषित आर्थिक नीतियों से भी सुपरिचित हैं। यहां पर संघ परिवार की (जिसमें भाजपा भी शामिल है) दो प्रमुख घोषित आर्थिक नीतियों और उनके दुष्परिणामों पर विचार करते हैं।

  1. जब संघ परिवार केंद्र की सत्ता से बाहर रहता है तब उसकी किसी भी प्रकार के विदेशी निवेश के विरोध की नीति और केन्द्र की सत्ता में आते ही सभी प्रकार के वांछित–अवांछित विदेशी निवेश के स्वागत की नीति के दुष्प्रभाव और
  2. ‘रुपया मजबूत, तो देश मजबूत’ इस आर्थिक सिद्धांत के ढोल पीटने से उत्पन्न मानसिकता के दुष्परिणाम।

संघ परिवार द्वारा अपनायी गयी इन दोनों नीतियों का मिलाजुला परिणाम देश के लिए बहुत घातक सिद्ध हो रहा है, यही इस लेख का विषय है।

संघ परिवार में भारतीय मुद्रा के मजबूत होने से देश की आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली बन जाने का भ्रामक दृष्टिकोण व्याप्त है। इस दृष्टिकोण का जनक कौन है और संघ परिवार ने कभी इस तरह का औपचारिक प्रस्ताव पारित किया है, इसकी जानकारी नहीं है, पर वहां के अधिसंख्य विचारक इस दृष्टिकोण से ग्रसित हैं। आपने इस संदर्भ में कुछ भाजपा नेताओं के वक्तव्य भी सुने होंगे। एक नेता ने देश के आर्थिक रूप से शक्तिशाली होने के लिए 30 रुपये में 1 डॉलर हो जाने की सदिच्छा व्यक्त की थी, तो दूसरे नेता ने बहुत आगे जाते हुए 1 रुपया में 1 डॉलर की बात के भी तारे तोड़े हैं। भारतीय रुपये के मूल्य में होने वाले उतार-चढ़ाव को इन्होंने राष्ट्र के गौरव से जोड़कर एक मिथक पाल लिया है। विश्व बाजार में जब रुपये का मूल्य गिरता है तो इन संघ विचारकों की सांसें फूलने लगती हैं और इनकी गर्दन झुकने लगती है, पर अगर रुपये का मूल्य बढ़ता है तो इन संघ विचारकों का सीना फूलता है, और इनके मस्तक ऊंचे हो जाते हैं।

2014 में जब संघ परिवार (भाजपा) की केंद्र में सरकार बनी तभी से इन्होंने विदेशी निवेश को भारत की आर्थिक विकास का सर्वोत्तम साधन माना है और उसके लिए हर प्रकार से प्रयासरत है। उनकी इस धारणा के कारण वे देश में वांछित – अवांछित विदेशी निवेश ला रहें हैं। आवश्यकता से अधिक विदेशी निवेश होने के कारण भारत का रुपया मजबूत बना हुआ है। अतिरिक्त विदेशी निवेश के कारण बाजार में रुपया मजबूत बना हुआ है, पर संघ परिवार की विचारधारा से ग्रसित लोगों को रुपये का मजबूत होना, उनके पुरुषार्थ का परिणाम लग रहा है।

संघ परिवार द्वारा वांछित–अवांछित विदेशी निवेश के स्वागत और संघ परिवार की ‘”रुपया मजबूत, तो देश मजबूत’ वाली मानसिकता से कैसे देश में आर्थिक संकट गहराता जा रहा है और देश को इस संकट से निकालने के लिए क्या सही सिद्धांत स्वीकारने चाहिए, इस पर कुछ विस्तार से विचार करते हैं।

I) गोल्ड स्टैण्डर्ड समाप्त हुए दशकों बीत गए

1930 तक राष्ट्रों की मुद्राएं सोने की इकाई से जुड़ी थीं, इसलिए उनका आधार था। पर 1930 की मंदी के बाद सभी देशों ने मुद्रा को सोने से अलग कर दिया, और अब उसके आधार नए आर्थिक संकल्पनाएँ और आर्थिक मापदंड हो गए। इसलिए मुद्रा का मूल्य घटना – बढ़ना बाजार में होने वाले लेनदेन पर आधारित हो गया और वह राष्ट्रीय अस्मिता का मापदंड नहीं रहा। इस नई व्यवस्था को निम्न उदाहरण से समझते हैं।

1960 आते आते फ्रांस की मुद्रा का अवमूल्यन होते होते वह 100 फ्रैंक में 1 डॉलर के आसपास पहुंच गयी। फ्रांस ने 1960 में घोषित कर दिया कि आज से उसका नया 1 फ्रैंक पुराने 100 फ्रैंक के बराबर होगा। अगले दिन से फिर 1 फ्रैंक का मूल्य 1 डॉलर जितना हो गया। देश की अर्थव्यवस्था पर कोई फर्क नहीं पड़ा, पर कुछ फ्रांसीसियों का आत्मगौरव भी बढ़ गया, क्योंकि अब 1 फ्रैंक में 1 डॉलर मिलने लग गया था। जो फ्रांस कर सकता था, उसे आगे टर्की ने भी किया और कभी भारत भी कर सकता है ! पर भारत मे कुछ लोग, जिसमें अधिकांश संघ परिवार से जुड़े हैं, वे इसी रुपये को मजबूत करना चाहते हैं, चाहे वैसे करते हुए देश दिवालिया हो जाये!

II) मुद्रा युद्ध (Currency War) और मुद्रा घपला (Currency Manipulation)

विश्व बाजार में वस्तुओं का मूल्य केवल उत्पादन लागत (Cost of Production) पर नहीं तय होते हैं, बल्कि जिस देश में वे बने, उस देश की मुद्रा के बाजार भाव पर भी निर्भर होते हैं। इसे संघ परिवार वाले अभी तक नहीं जानते हैं या उस तथ्य की उपेक्षा करते हैं।

अर्थशास्त्र में एक शब्द प्रचलित है – करेंसी वॉर ! अर्थात मुद्रा युद्ध ! जब कोई देश या अनेक देश मंदी जैसे आर्थिक संकट के समय अपने निर्यात को बढ़ाने के लिए और आयात को घटाने के लिए कृत्रिम रूप से अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करते हैं, तो उसे मुद्रा युद्ध कहते हैं। 1930 की महामंदी के समय अनेक देशों ने इस रणनीति को एक साथ अपनाया, जिस कारण से विश्व व्यापार बुरी तरह से प्रभावित हुआ। इसलिए अमेरिका में हुए ब्रेटनवुड समझौते में उस पर रोक लगाई गई। पर अनेक देश उस रणनीति को बड़ी होशियारी से और दीर्घकालिक तौर में अपनाते हैं, जिससे वे अन्य देशों की आंखों में अनेक वर्षों तक धूल झोंकने में सफल हो जाते हैं।

अमेरिका आजकल चीन पर मुद्रा घपला ( Currency Manipulation) का आरोप लगा रहा है। वह भी करेंसी वॉर का छुपा रूप है। चीन ने 1980 से लेकर 2005 तक अपनी मुद्रा का लगातार अवमूल्यन होने दिया। 1980 में 1.53 युवान में 1 डॉलर से लेकर 2005 में 8 युवान में 1 डॉलर तक उसने धीरे धीरे अपनी मुद्रा का अवमूल्यन किया और उस कमजोर मुद्रा के सहारे विश्व बाजार पर कब्जा कर लिया। चीनी अर्थव्यवस्था मजबूत हो जाने के कारण 2005 के बाद युवान कुछ महंगा होते चला गया और 2015 तक 6 युवान में 1 डॉलर तक पहुंचा। लेकिन जैसे ही 2017 में अमेरिका ने चीन के साथ व्यापार युद्ध घोषित किया, मजबूत अर्थव्यवस्था होने के बावजूद और अमेरिका के साथ 500 बिलियन डॉलर का व्यापार मुनाफा होते हुए भी उसने अपने युवान का अवमूल्यन प्रारम्भ कर दिया है, अब 6 युवान में 1 डॉलर की जगह पर 7 युवान में 1 डॉलर हो गया है, अर्थात उसने अपनी मुद्रा के मूल्य को लगभग 15% गिरा दिया है। पर भारत में संघ परिवार अन्य देशों से और आर्थिक इतिहास से कुछ नहीं सीखना चाहता है।

III) मुद्रा युद्ध नए रूप में

2008 में अमेरिका में वित्तीय संकट आया और उससे मंदी प्रारम्भ हुई। इस बार अमेरिका ने बदनाम हो चुके मुद्रा अवमूल्यन वाले करेंसी वॉर से मंदी का सामना नहीं किया। उसने मंदी से लड़ने के लिए एक नया औजार ईजाद किया – क्वांटिटेटिव ईसिंग ( Quantitative Easing) ! अमेरिका के फेडरल रिजर्व बैंक ने अतिरिक्त डॉलर का बड़े पैमाने पर मुद्रण करके उसे देश की अर्थव्यवस्था में उतार दिया और साथ ही बैंक ब्याज दरों को लगभग शून्य कर दिया। अतिरिक्त डॉलर को छापकर उस देश में लोगों के हाथ में अधिक पैसा दे दिया गया, उससे वस्तुओं की मांग बढ़ गयी और मंदी पर असर पड़ा। पर इसका एक परिणाम और हुआ, जिसका सबसे पहले ब्राजील के अर्थमंत्री ने 2010 में खुलासा किया। उन्होंने घोषित किया कि विश्व में एक नए प्रकार का करेंसी वॉर चल रहा है। कैसे? अमेरिका और यूरोप आदि विकसित देशों ने बहुत नई मुद्रा छापी और ब्याज दर अत्यल्प कर दी। अतः इन देशों के व्यापारियों ने वह अतिरिक्त धन अन्य विकासशील देशो में निवेश करना शुरू कर दिया। इससे उन देशों की मुद्रा का मूल्य बढ़ गया। उन विकासशील देशों की मुद्रा के मजबूत होने से उन देशों में आयात सस्ता हो गया और उन देशों से निर्यात महंगा! अर्थात अमेरिका आदि ने अपने आर्थिक संकट को भारत जैसे देशों के आर्थिक संकट में बदल दिया। इसे समझने में अनेक देश गच्चा खा गए और एक नए प्रकार के करेंसी वॉर के शिकार हो गए।

भारत के रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने अमेरिका में एक खुले भाषण में इस खतरे के प्रति चेताया था। 2015 में उन्होंने कहा था – “विकसित देश मौद्रिक शिथिलता ( QE) के द्वारा उभरते देशों में अधिक निवेश करके उनकी मुद्रा को मजबूत करने में लगे हैं।” जो बात वे खुले मंच से कह रहे थे, उसे वह भारत सरकार को भी अवश्य कह रहे होंगे। पर यहां तो ‘रुपया मजबूत, तो देश मजबूत’ वाले लोग सत्ताधारी थे। अतिरिक्त विदेशी निवेश से उनका रुपया मजबूत होने से उन्हें गौरव महसूस हो रहा था, अतः उन्हें करेंसी वॉर के शिकार होने की अनुभूति कहाँ से हो पाती!

IV) जापान की मुद्रा को मजबूत करने से उसकी अर्थव्यवस्था में आ गया ठहराव

आज जैसे चीन की अर्थव्यवस्था अमेरिका के लिए चुनौती बनी हुई है, वैसे 1980 के दशक में जापान की अर्थव्यवस्था बनी हुई थी। लग रहा था जापान जल्दी ही अमेरिका को पछाड़ देगा। पर वह चीन की तरह सैनिक शक्ति नहीं था। अमेरिका ने जापान पर आरोप लगाना शुरू किया कि उसने रणनीति बना कर अपनी मुद्रा को कमजोर बनाया है, जिससे जापान से निर्यात सस्ता हो और जापान में आयात महंगा हो। अतः उसे अपनी मुद्रा को मजबूत करना होगा। अंत में अमेरिका के न्यूयार्क शहर के प्लाजा होटल में एक समझौता हुआ, जिसमें जापान की मुद्रा को मजबूत करके 235 येन का 1 डॉलर से बढ़ाकर 150 येन में 1 डॉलर कर दिया गया। आगे 1990 आते आते 80 येन में 1 डॉलर हो गया। वहां अगर कोई संघ परिवार रहा होगा, तो येन के 150% से अधिक मजबूत हो जाने के लिए उसने होली – दिवाली एक साथ मनायी होगी ! पर येन के मजबूत हो जाने का क्या परिणाम हुआ। जापान में एक आर्थिक बुलबुला पैदा हुआ और उसके फूटने से जापान की अर्थव्यवस्था में ऐसा ठहराव आ गया कि उसके बाद उसे कोई अमेरिका का प्रतिद्वंदी अर्थव्यवस्था नहीं कहता है। जापान में उस दशक को आर्थिक दृष्टि से ‘गवांया दशक’ (Lost Decade) कहा जाता है।

जापान के येन के मजबूत होने से अगर उसकी अर्थव्यवस्था बैठ गयी तो भारत में संघ परिवार किस आधार पर कहता है कि– “रुपया मजबूत, तो देश मजबूत!”

V) भंगुर अर्थव्यवस्था (Fragile Economy) में भारत की गणना

मॉर्गन स्टैनले नामक संस्था के अर्थशास्त्री ने 2013 में विश्व की 5 अर्थव्यवस्थाओं का नामकरण भंगुर अर्थव्यवस्था ( Fragile Economy) किया था। उसमें ब्राजील, इंडोनेशिया, तुर्की और दक्षिण अफ्रीका के साथ भारत को भी शामिल किया था। भंगुर अर्थव्यवस्था कहने के लिए उन्होंने कारण दिया था कि इन देशों को अपना व्यापार घाटा और विदेशी देनदारियां चुकाने के लिए विदेशी निवेश पर अति निर्भर रहना पड़ रहा है। उसके बाद 2014 में संघ परिवार की सरकार केंद्र में आयी, और देश को पहले से अधिक विदेशी निवेश पर निर्भर होना पड़ रहा है। 2018-19 में व्यापार घाटा (Trade Deficit) 150 बिलियन डॉलर से अधिक हो गया था, इसी से आप अनुमान लगा सकते हैं कि “रुपया मजबूत, तो देश मजबूत!” के सिद्धान्तवादियों की मानसिकता ने देश की अर्थव्यवस्था को कितना अधिक भंगुर (Fragile) अवस्था तक पहुंचा दिया है।

उपरोक्त 5 तथ्यों के प्रकाश में अब शीर्षक में संघ परिवार द्वारा लागू आर्थिक नीतियों के दुष्परिणाम पर पुनः विचार करते हैं। कुछ पुनरुक्तियाँ होंगी, पर इसे फिर से समझने की कोशिश करते हैं।

भारत के रुपये का बाजार भाव इस समय लगभग 70 रुपये में 1 डॉलर है। रिजर्व बैंक के अनुसार जिन 6 प्रमुख देशों के साथ भारत का व्यापार होता है, उन देशों की मुद्रा के साथ तुलना करने पर भारतीय रुपये का वास्तविक मूल्य (REER – Real Economic Exchange Rate) 120% था। अर्थात रुपये के बाजार भाव (Market Rate) उसके वास्तविक मूल्य (REER) से 20% अधिक था। 70 रुपये में 1 डॉलर बाजार भाव था तो वास्तविक भाव हुआ 84 रुपये में 1 डॉलर! अर्थशास्त्रियों के अनुसार अगर किसी मुद्रा का बाजार भाव उसके वास्तविक भाव से 5% कम – अधिक हो तो वह स्वस्थ दशा मानी जाती है। पर भारत का रुपया स्वस्थ दशा से कहीं अधिक महंगा बिक रहा है !

संघ परिवार में हावी विचारकों के अनुसार रुपया मजबूत है, तो देश के हित में है । पर देश के जाने – माने अर्थशास्त्री इससे सहमत नहीं हैं। वे आयात घटाने और निर्यात बढ़ाने के लिए रुपये का उसके वास्तविक मूल्य से नीचे गिरना लाभदायी मानते हैं। आपने ऐसी सलाह देने वाले रघुराम राजन, जगदीश भगवती, अरविंद पनगढ़िया, शंकर आचार्य, राजवाड़े आदि अनेक अर्थशास्त्रियों के लेख समाचार पत्र–पत्रिकाओं में पढ़े होंगे। पर उनकी नेक सलाह का संघ परिवार में हावी विचारकों पर कोई असर नहीं पड़ रहा है।

रुपया का बाजार भाव 2014 से लगातार वास्तविक भाव से अधिक बना हुआ है। इसके कारण आयात सस्ता हो गया है, और निर्यात महंगा। रुपये के बाजार भाव के अधिक होने से आयात सस्ता हो गया है, जिससे देश में अनेक वस्तुओं का उत्पादन स्पर्धा में नहीं टिक पा रहा है, इसलिए उन्हें बनाने वाली कंपनियां या तो बंद हो रहीं हैं या बीमार पड़ गयीं हैं। इससे देश मे रोजगार घट रहा है। इसीप्रकार अन्य मुद्राओं के सामने रुपये के मजबूत होने से निर्यात महंगा हो गया है। अतः अन्य देशों से हमारे निर्यातक स्पर्धा नहीं कर पा रहें हैं। उस कारण भी निर्यात करने वाले कारखाने बीमार या बंद हो रहें हैं। जिससे रोजगार भी घट रहा है। सस्ता विदेशी माल के खपत से देश का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) बढ़ते हुए दिख रहा है पर रोजगार घट रहें हैं। इसीको रोजगार रहित वृद्धि (Employmentless Growth) कहा जा रहा है।

जब निर्यात कम है और आयात अधिक है तो सामान्य अर्थशास्त्र के नियमानुसार रुपये का बाजार भाव उसके वास्तविक भाव से नीचे होना चाहिए था, पर भारत में 2014 से तो उल्टा दिखाई दिखाई दे रहा है। रुपया अपने वास्तविक मूल्य से बाजार में महंगा है। रुपये का अपने वास्तविक मूल्य (REER) से मजबूत बने रहना, वांछित – अवांछित विदेशी निवेश का परिणाम है, या अमेरिका, यूरोपीय देश, चीन आदि द्वारा प्रारम्भ नए मुद्रा युद्ध (Currency War) का परिणाम है, पर रुपया का मजबूत बने रहना देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हो रहा है। इस प्रकार के मुद्रा युद्ध से अनभिज्ञ संघ परिवार के विचारक अपने ‘रुपया मजबूत, तो देश मजबूत’ के कारण रुपये की मजबूती को अपनी विजय मान रहे हैं।

अमेरिका यूरोप चीन आदि आर्थिक महासत्ताओं द्वारा मौद्रिक शिथिलता (QE) द्वारा जारी नए मुद्रा युद्ध का परिणाम है भारत में रुपया का मजबूत होना। भारत जैसे विकासशील देशों की मुद्रा मजबूत होने के कारण चीन आदि से सस्ते में आयात हो रहा है और भारत से निर्यात नहीं हो पा रहा है। ऊपर से विदेशी निवेश करने का उपकार और जता रहे हैं। और हमारे ‘रुपया मजबूत, तो देश मजबूत‘ वाले आत्ममुग्ध हैं कि हमारा रुपया भी मजबूत है और अधिक से अधिक विदेशी निवेश लाने में भी सफल हो रहें हैं!

पर वास्तविकता क्या है? जब केंद्र में 2014 में भाजपा सत्तारूढ़ हुयी, तो उसने अगले 5 वर्षों में अर्थात 2019 तक वस्तुओं का निर्यात 500 बिलियन डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य निर्धारित किया था। 2013-14 में भारत से वस्तुओं का निर्यात (Merchandise Export) 314 बिलियन डॉलर हुआ था। भाजपा सरकार के आने के बाद 2014-15 में 310 बिलियन डॉलर निर्यात हुआ। अगले वर्ष 2015-16 में केवल 266 बिलियन डॉलर का ही निर्यात हुआ। आगे 2016-17 में 275 बिलियन डॉलर हुआ। 2017-18 में 303 बिलियन डॉलर निर्यात हुआ। अब 2018-19 में जाकर 2013-14 से अधिक 330 बिलियन डॉलर निर्यात हो पाया है। अर्थात 2014 में जितना निर्यात किया था, लगभग उतना ही निर्यात भाजपा के 5 वर्ष के बाद हो पाया। इस विफलता का प्रमुख कारण है – भारतीय रुपये का अपने वास्तविक मूल्य से लगातार महंगा बने रहना!

संघ परिवार द्वारा भ्रामक आर्थिक नीतियों से छुटकारा ही है उपाय

संघ परिवार की नीति “रुपया मजबूत तो देश मजबूत” के कारण से हो रहे दुष्परिणामों को दूर करने के उपायों को समझने से पहले निम्न बातें स्पष्ट हो जाना आवश्यक है।

  1. ​भारत अन्य देशों की भांति विश्व व्यापार संगठन (WTO) का सदस्य है। जब ऐसा नहीं था, तब हम आयात पर अपनी सुविधा के अनुसार आयात शुल्क लगा सकते थे। उस जमाने में 300 से 500% तक भी आयात शुल्क ( Custom Duty) लगाते थे। पर अब विश्व व्यापार संगठन का सदस्य होने से अधिक आयात शुल्क नहीं लगा सकते। अतः रुपये की स्थिर दर (Fixed Rate) या रुपये का मजबूत होना अब देश के आयात को नियंत्रित करने के खिलाफ जाता है। जैसे आजकल केंद्र में संघ परिवार की मजबूत रुपये की नीति के कारण हो रहा है। अगर आयात को नियंत्रित करने के लिए विश्व व्यापार संगठन में बनी सहमति से अधिक आयात शुल्क लगाते हैं, तो अन्य देश भी भारत से होने वाले आयात पर शुल्क बढ़ा देंगे या विश्व व्यापार संगठन में भारत की शिकायतें करके निपटारा करेंगे। इसलिए अत्यधिक आयात शुल्क बढ़ाना अब सीमित विकल्प बचा है।
  2. आज की अर्थव्यवस्था, पश्चिम में विकसित अर्थशास्त्र के अनुसार चलती है। भारत भी लगभग उसी अर्थशास्त्र के नियमों को पालन करता है। पर अगर 99% उनके अर्थशास्त्र के नियम पाले, पर रुपये के बाजार में मूल्य को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश की, तो वह बात हमारे खिलाफ भी जा सकती है, जैसे आजकल संघ परिवार के मजबूत रुपये की नीति हमारे देशहित के खिलाफ जा रही है।
  3. आंतरिक बाजार में किसी वस्तु का बिक्री मूल्य उसके उत्पादन लागत पर निर्भर होता है, पर निर्यात करते समय उत्पादन लागत के साथ ही उस देश की मुद्रा का मूल्य भी उसके बिक्री मूल्य को प्रभावित करता है। अगर कोई मुद्रा अपने वास्तविक मूल्य (REER) से अधिक मजबूत हो तो उससे उस देश से होने वाला निर्यात महंगा हो जाता है और महंगा होने से विश्व बाजार में स्पर्धा में पिछड़ जाता है, जैसे आजकल संघ परिवार की नीतियों के कारण हो रहा है।
  4. हम यहां पर रुपये के बाजार भाव को उसके वास्तविक भाव (REER) तक गिरने देने की वकालत कर रहें हैं, रुपये का उससे अधिक अवमूल्यन की सलाह नहीं दे रहें हैं। अतः विश्व का अन्य कोई देश हम पर मुद्रा घपला (Currency Manipulation) मुद्रा युद्ध (Currency War) का आरोप भी नहीं लगा सकता है। दुर्भाग्य से अधिकांश संघ विचारक रुपये को वास्तविक मूल्य तक नीचे गिरने देने की सलाह को रुपये का अवमूल्यन (Depriciation) करने की सलाह मानने की गलती करते हैं।
  5. रुपये का अपने वास्तविक मूल्य से मजबूत होने के आयात-निर्यात के अलावा और क्या परिणाम होते हैं? पहले रुपया के मजबूत होने के सकारात्मक का आभास करने वाले परिणाम कुछ परिणाम। भारत पेट्रोलियम पदार्थों के लिए 80% से अधिक आयात पर निर्भर है। इसलिए रुपया मजबूत होने से पेट्रोलियम सस्ता मिलता है। पेट्रोलियम के सस्ता मिलने का अप्रत्यक्ष दुष्प्रभाव यह होता है कि देश में उसके विकल्प उससे महंगे बने रहते हैं, इसलिए हमारी आयात पर निर्भरता बनी रहेगी। रुपया मजबूत रहने से देश द्वारा लिए विदेशी कर्ज रुपये के बाजार भाव से नहीं बढ़ता।पर आयात सस्ता और निर्यात महंगा होने से देश का व्यापार घाटा हमेशा बढ़ते रहता है। अतः रुपये के मजबूत रहने से जो विदेशी कर्ज नहीं बढ़ता है, वहीं व्यापार घाटे को भरने के लिए हमारी विदेशी निवेश पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। पहले व्यापार घाटे को पाटने के लिए विदेशों से ऋण लिया था 3 से 5% ब्याज पर, और अब रुपये के मजबूत होने से बढ़े व्यापार घाटा को पाटने के लिए अधिकाधिक विदेशी निवेश बुला रहें हैं। विदेशी निवेश आएगा 10 से 15% लाभांश की आशा में ! तो भारत के अधिक हित में क्या है – रुपये के मजबूती से बढ़ा व्यापार घाटा या रुपये के कमजोर होने से घटने वाला व्यापार घाटा? इसका विचार कौन करेगा?

इन सब बातों के आधार पर हमें अमेरिका जैसे देशों द्वारा प्रारम्भ अभिनव मुद्रा युद्ध को पहचानना चाहिए, जिससे देश में आवश्यकता से अधिक विदेश निवेश हो रहा है, उस अधिक विदेशी निवेश के कारण हमारे देश की मुद्रा अपने वास्तविक मूल्य से अधिक मूल्य पर बाजार में बिक रही है। इस प्रकार रुपये के मजबूत होने से आयात सस्ता हो गया है और निर्यात महंगा हो गया है। आयात सस्ता और निर्यात महंगा होने के कारण देश में पुराने उद्योग बीमार हो रहें हैं या बंद हो रहें हैं और नए उद्योग नहीं खुल पा रहें हैं।

उपरोक्त सभी तथ्यों को ध्यान में रख कर संघ परिवार की “रुपया मजबूत, तो देश मजबूत” वाली मानसिकता से अर्थव्यवस्था पर हो रहे घातक दुष्परिणामों को समझ सकते हैं। संघ परिवार के विचारक भी उपरोक्त तथ्यों के प्रकाश में आर्थिक नीतियों पर पुनर्विचार करें और देश में गहरा रहे आर्थिक संकट से देश को उबारने में पहल कर सकते हैं। अमेरिका आदि द्वारा प्रारम्भ या संघ परिवार के “रुपया मजबूत, तो देश मजबूत” की मानसिकता के कारण या दोनों कारणों से आज भारत की मुद्रा अपने वास्तविक मूल्य से महंगी बिक रही है।

भारत पर आए आर्थिक संकट को दूर करने के लिए रुपये को अपने वास्तविक मूल्य (REER) के आसपास तक नीचे गिरने देने की रणनीति बनाना और उस अमल करना ही एकमेव प्रमुख उपाय है। अभी आर्थिक संकट को दूर करने के लिए सरकार हड़बड़ी में कुछ उपाय कर रही है। उसमें अधिक विदेशी निवेश का स्वागत भारत के खिलाफ ही जाने वाला है, विदेश से आने वाली अतिरिक्त पूंजी भारतीय रुपये को और अधिक महंगा बनाने का काम करेगी, जो निकट भविष्य संकट को अधिक विकट करेगा। बिना रुपये को सस्ता किये देशी निवेश को बढ़ावा देने के बैंकों से सस्ता ऋण उपलब्ध कराने के लिए किए जा रहे उपाय भी अधिक फलदायी नहीं हो पाएंगे, क्योंकि रुपये के मजबूत रहते विदेशों से सस्ता माल से बाजार पर कब्जा किये रहेंगे, रुपया मजबूत बने रहने से निर्यात कठिन बना रहेगा, इन दोनों कारणों से मांग में वृद्धि की संभावनाएं क्षीण होने से सस्ते ब्याज पर ऋण उपलब्ध होते हुए भी कोई उद्योगपति क्यों निवेश करेगा ? हां, भारत के बाजार पर कब्जा करने के लिए में अकूत लाभ कमाई विदेशी कंपनियां अवश्य कुछ वर्षों तक सस्ते में सामान या सेवाएं बेचने के निवेश करने का सामर्थ्य रखती हैं, जैसा आजकल दिखाई दे रहा है। अतः एक तरफ अवांछित विदेशी निवेश के मोहजाल से बचना होगा और दूसरी तरफ रुपये को उसके वास्तविक मूल्य (REER) तक गिरने देना होगा। तभी आर्थिक संकट को दूर करने के लिए किए जाने वाले अन्य उपाय भी वांछित फल देने में सफल हो पाएंगे।

रुपये को अपने वास्तविक मूल्य (REER) तक नीचे गिरने देने से निम्न सकारात्मक परिणाम होंगे।

  1. ​आयात महंगा होगा, जिससे अनेक वस्तुओं का देश में उत्पादन स्पर्धा में टिकने लायक हो जाएगा। अतः देश में आयात कम होने के साथ रोजगार के अवसर बढ़ेंगे। अभी रुपया मजबूत होने कारण आयात सस्ता है, उस आयात के कारण देश में नहीं,विदेशों में रोजगार बढ़ रहें हैं।
  2. रुपया सस्ता होने से निर्यात भी सस्ता हो जाएगा। अतः अन्य देशों की अपेक्षा भारत की अनेक वस्तुएं सस्ती हो जाने से निर्यात बढ़ेगा, उस बढ़ते निर्यात के लिए देश में उत्पादन बढ़ेगा। उस उत्पादन के लिए देश में रोजगार भी बढ़ते जाएंगे।
  3. रुपये के अपने वास्तविक मूल्य तक कमजोर होने से आयात घटेगा और निर्यात बढ़ेगा, जिससे व्यापार घाटा (Trade Deficit) कम होगा। अतः कम घाटे को भरने के लिए कम विदेशी पूंजी निवेश की आवश्यकता पड़ेगी। अतः अवांछित विदेशी पूंजी निवेश को स्वीकारने की लाचारी दूर होगी।

लेख विस्तृत हुआ है, अनेक बातों को दोहराना पड़ा है। पर विदेशी अभिनव मुद्रा युद्ध से और सत्ताधारी संघ परिवार की मजबूत रुपये की मानसिकता से 2014 से देश की अर्थव्यवस्था पर घातक प्रभाव हुए हैं, और अब उन नीतियों से देश में मंदी का संकट गहरा गया रहा है।आने वाले कुछ वर्षों में अत्यधिक विदेशी निवेश के कारण भारत के विदेशी जाल में फंस जाने की संभावना भी बलवती हो रही है। संकट की गंभीरता के कारण अति विस्तार से सब बातों को रखना पड़ा है। सभी प्रबुद्धजनों से इस विषय पर अपने विचार अभिव्यक्त करने का अनुरोध है।

राष्ट्रीय संयोजक - भारत अभ्युदय प्रतिष्ठान (वैकल्पिक नीतियों के लिए शोध, चिंतन व सामाजिक प्रयोगों पर कार्यरत बौद्धिक ​संस्थान)
मुख्य संपादक - भारत अभ्युदय पत्रिका

Dr Surendra Singh Bisht

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4 Responses to संघ परिवार (RSS) पोषित आर्थिक नीतियों से देश में गहराता आर्थिक संकट — Dr Surendra Singh Bisht

  1. Vijendra Diwach says:

    बहुत ही सारगर्भित लेख।सरलता से गहरी बाते कही गयी हैं।

  2. Sheela Daga says:

    लेखक ने बहुत सरल भाषा में स्पष्टता से आर्थिक परिप्रेक्ष्य को सामने रखा है। यद्यपि यह मेरा विषय नहीं है, पर बात समझ आई है। देश की गिरती अर्थव्यवस्था चिंता का विषय है, बेरोजगारी के सन्दर्भ में।
    लेखक को साधुवाद देती हूं।

  3. Suresh Singh says:

    अर्थव्यवस्था के संबंध में मेरा ज्ञान बहुत सीमित है।लेकिन लेख इतनी सरल भाषा में है कि मैं अर्थव्यवस्था के जटिल विषय को आसानी से समझने में सफल हो सका। इसके लिए लेखक को साधुवाद।
    लेख में जापान के के विषय में जैसा उदाहरण दिया गया है अगर वैसी स्थिति भारत में भी हुई तो सचमुच बहुत चिंता की बात होगी क्योंकि लक्षण तो कुछ-कुछ वैसे ही दिख रहे हैं।

  4. Prem Singh says:

    वैकल्पिक अर्थ व्यस्था प्र भी विचार करें।
    प्रचलित सभी अर्थव्यवस्थाये
    प्रतिस्पर्धात्मक,प्रतिक्रियात्मक व तुलनात्मक विकास के सिद्धांत पर आधारित हैं। जो संघर्षवादी राजनैतिक दर्शन की अनिवार्य परनिति है।
    इससे किसी भी देश के समान्य नागरिक संतुष्ट नहीं हैं।
    भारत जैसे प्राचीन अनुभव सम्पन्न देश के लिये इन दशों द्वारा विकसित किये मानकों से तुलना के बजाय अपने मानवीयता आधारित समाजिक विकास के आधार राजनैतिक और आर्थिक संरचनाएँ खड़ी करनी चाहिये।

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