Tribhuvan
इस धरती पर मानवता के ख़िलाफ़ जितने भी घृणित अपराध हैं, उनमें बलात्कार सबसे घिनौना और भयानक है। इसके ख़िलाफ़ अभी भारत सरकार ने जो कानून बनाया है, उसके एक हिस्से को पढ़ें तो लगता है कि हमारी सरकारों में संवेदना नामकी कोई चीज़ ही नहीं है। क्या किसी 30 साल या 40 साल की महिला के लिए बलात्कार 20 साल की उम्र से कुछ कम पीड़ादायी है? बलात्कार बलात्कार है और यह समान रूप से घृणित है। क्यों कानून बनाने वाले हमारे नेता बलात्कार को महिला की उम्र के हिसाब से टुकड़ों-टुकड़ों में बाँटते हैं? वे क्यों भूल जाते हैं कि सबसे ज्यादा बलात्कार की शिकार महिलाएं 16 से 45 साल की उम्र की होती हैं और आत्मा की कराहों में उम्र से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, बशर्ते नन्हीं बच्चों को अलग रखें।
ये ठीक है कि हम सुकुमार बच्चियों के मामले में फांसी का प्रावधान करने जा रहे हैं, लेकिन 16 या 20 साल की उम्र के मामले में सज़ा को 10 साल और 20 साल में करने से हमारी सरकार के राजनेताआें और विधिवेत्ताओं की हृदयहीनता और अदूरदर्शिता साफ़ दिखती है। वे यह क्यों भूल जाते हैं कि बलात्कार की शिकार महिला अपने त्रासद दु:ख को भूलने की कोशिशें करते हुए या तो कोमा में चले जाना पसंद करती है या फिर ऐमनेशिया की शिकार होना। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि एक बलात्कार पीड़िता निर्णय होेने तक झूठी ही मानी जाती है, जबकि न्यायाधीश के फ़ैसले में अपराधी ठहरा दिए जाने से पहले तक बलात्कार का अपराधी निर्दाेष या फिर आरोपी ही माना जाता है।
किसी भी महिला के जीवन में यौवन के दिन एक खनकती भोर लेकर आते हैं। लेकिन घृणित मानसिकता वाले अपराधी उसके जीवन के सबसे सुखद क्षणों को रौंद डालते हैं। हमारी संस्कृति में आए दिन बच्चियों को शिक्षाएं दी जाती हैं, लेकिन लड़कों को सुसंस्कारवान बनाने की तरफ़ लोग ध्यान नहीं देते हैं। इसीलिए तो बलात्कार तरह-तरह से होता है। शारीरिक न सही, वह मानसिक भी होता है। हम देखते हैं कि बलात्कारी मानसिकता कभी आंख से, कभी हाथ से, कभी जिह्वा से और कभी कानून और संहिताओं के सहारे से बलात्कार करती है। कभी वह धर्म और जाति का सहारा लेती है तो कभी पद और प्रभाव का।
कई बार तो यह भी होता है कि महिला को ही दाेषी ठहरा दिया जाता है। वे कहते हैं, आपने पारदर्शी वस्त्र पहन रखे थे। या उन्होंने पी रखी थी या फिर ड्रग्स ले रखी थीं। वे इसलिए रेप का शिकार हो जाती हैं कि वे पर्याप्त सावधानी नहीं बरततीं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि बलात्कार इसलिए होता है, क्योंकि कोई बलात्कारी होता है। यहां तक तर्क दिया जाता है कि यौनाकर्षण वाला सौंदर्य बलात्कार को जन्म देता है। लेकिन पिछले कुछ साल से बालिकाओं से बलात्कार की घटनाओं ने पूरे समाज को झकझोर डाला है। ऐसा लगता है कि हम एक अंधे कुएं पड़े समाज हैं और हमारी संस्कृति और सभ्यता किसी नींद में सोई हुई है। हमारे हौसले पस्त हैं और हमारे दिलोदिमाग़ में खामोश चीखें भर गई हैं। अपराधियों में न शासन का भय है और न ही पुलिस का ख़ौफ़। अपराधी किसी बालिका को निधड़क ले जा सकता है, क्योंकि हम बच्चियों से बचाने से ज़्यादा गाय को ले जा रहे व्यक्ति को मारने में दिलचस्पी रखते हैं और गाय वैसी की वैसी और उतनी ही तादाद में सड़कों पर भूखी रंभाती रहती है।
यह देश ही ऐसा है। यहां न गाय के लिए कोई ठौर ठिकाना है और न ही बेटियों के लिए। ख़ासकर गु़रबत में जी रहे लोगों की हालत तो एक जैसी है। हमारी सरकारों के होश गुम हैं और बांहों का दम एकदम खत्म है। हम उनींदी आंखों वाले लोग सोए हुए पांवों के साथ कानून बनाते हैं और बलात्कारी को फांसी दिलाने की बातें करते हैं, लेकिन हमारी व्यवस्था की लौ इतनी बुझी हुई है कि बलात्कार के मामले की एफआईआर तक दर्ज नहीं हो पाती। हमारी राजनीतिक पार्टियां और सरकारें एक नुमाइशी व्यवस्था सजा कर बैठी हैं और ऐसा आभास देती हैं कि वे एक मंतर फूंकेंगी तो सब कुछ बदल जाएगा।
ये इस पीड़ा को समझने को ही तैयार नहीं है कि बलात्कार के बाद पीड़िता को जिस आंसू, सिसकी, पीड़ा, अवसाद, प्रतिहिंसा और आत्महीनता के मिलेजुले नारकीय लैबरिंथ से निकलना पड़ता है, वह एक बहुत जटिल, मुश्किल और असहनीय प्रक्रिया है। क्या इस पीड़ा के बाद किसी अपराधी को फांसी पर चढ़ा देने से भर से आप किसी महिला या बालिका को वैसा का वैसा जीवन दे सकते हैं? क्या वही हंसी उसके भीतर गूंजेगी? क्या उसकी रगों में दौड़ते लहू में थिरकने की आवाजें उसी तरह आएंगी? क्या वह फिर वैसी चुहल कर पाएगी?
कई बार तो ऐसा होता है कि सरकारें और व्यवस्थाएं खुद बलात्कारों का आयोजन करती हैं। युद्ध क्या हैं? बार-बार सेना और अर्धसैनिक बलों का लगाया जाना क्या है? जहां सेनाएं और अर्धसैनिक बल तैनात होते हैं, क्या वहां बहुत ही सुनियोजित तरीके से बलात्कार नहीं करवाए जाते हैं? क्या इसीलिए स्थानीय समाजों में इन बलों के प्रति प्रतिहिंसा और घृणा के भाव नहीं होते हैं? दुनिया का कौनसा हिस्सा इस तरह के घृणास्पद पापों से बचा है?
लेकिन क्या इसका मतलब ये है कि पीड़िताएं चुप रह जाएं? बलात्कार जिस पावर के बल पर होता है, दरअसल यह लड़ाई उस पावर के ही खिलाफ़ है। बलात्कार करके अपराधी भी तो पावर ही दिखाता है। बलात्कारी से तो कोई महिला बचकर भी भाग सकती है, लेकिन जब बल एकत्र होकर सुनियोजित नृशंसता दिखाता है तो यह त्रासद कोरस होता है।
मेरा प्रश्न इतना सा है कि बलात्कारी को फांसी देने के बजाय उसकी आखिरी सांस तक नारकीय ढंग से सड़ाया जाना चाहिए, क्योंकि किसी को कोई अधिकार नहीं कि वह किसी अन्य को ऐसी पीड़ा पहुंचाए। लेकिन इससे भी बड़ी बात ये है कि हमारी सरकार पीड़िता के लिए कोई ऐसी व्यवस्था करे, जिससे वह अपनी पीड़ा और त्रासद अनुभव को विस्मृत कर सके। उससे मुक्त हो सके। वह अवसाद के भंवर से बाहर निकल सके। वह ऐसा जीवन जिए कि कभी भी उसकी यादों की तहों में दर्द का कोई कांटा न उगे। उसे एक खुला और हवादार जीवन मिले। उदासियां उसकी हदों से दूर रहें। वह एक अच्छे जीवन के तारों तले झूम सके और अपनी उमंगों को लहरा सके। वह प्रसन्नताओं के समंदर में डुबकियां लगा सके और जब मन चाहे तो दमकती रेत पर जिजीविषा की रेत में अपनी आत्मा को सेक सके।
हर पीड़िता को हक़ और अधिकार है कि वह खनकती भोर को अपने भीतर फिर लौटा सके। और इसका एक मात्र तरीका यह है कि उसके जिस्मानी घावों के साथ-साथ उसकी आत्मा पर लगे अनचीन्हे घावों पर प्रेम की मरहम लगा सकें। हम प्रेम की ऊष्मा के बिना यह सब प्राप्त नहीं कर सकते।
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