Dharamraj Singh
कहो धूप
मैं हूँ जमी बर्फ़
ठंडी पत्थर सी
ऊब गई हूँ बिना हिले डुले
छुपी लुकाई अपनी ही खोह में
तुम छितराए हो दूर दूर तक
क्या कोई जीने का और ढंग है
एक रंग भर जाना मैंने
क्या मेरा कोई और रंग है
घेरे रहती मुझको मृत सी चुप्पी
क्या मेरे कंठ में भी छुपा कोई राग है
क्षण भर को भी होता क्या खिलना कोई
किसी स्वाद का इतराना
प्राणों सा उतरना किसी में
किसी हृदय को छका पाना
कहो धूप
क्या मेरा परिचय मेरे जीवन से
तुम दे सकते हो
प्यारी बर्फ़
तुम्हें जानना है कि तुम कौन हो
जस की तस तुम्हें
मेरे सम्मुख रहना होगा
क्या छिपा है तुम्हारे होने में
हो जानना
तो तुम्हें गलकर मिटना होगा
तुम्हारा आपा जब गल जाएगा
कुछ होगा
जिसका तुमको कोई बोध नहीं
तुम्हारा अपना रंग छिन जाएगा
पर धान के खेत में तुम धानी होगी
तुम्हारे अपने गीत न होंगें
पर तुम्हारे गुज़रने भर से
घाटियों में कलकल होगी
बुरुँश के पेड़ों की जड़
जब तुम छू दोगी
उनके सुर्ख़ फ़ूल आकाश में खिलेंगें
भले तुम्हारा अपना स्वाद न हो
तुमसे सींचे जाने पर ही तो
कैंथ कसैला होगा
तुम्हारा अपना ठौर हो न हो
तुम्हारी बिछाई गीली रेत पर
मीठे तरबूजों की बेल पसरेगी
हिरन के बच्चों के प्यासे गलों को तर कर
जब तुम उनके भीतर जाओगी
उनकी कुलाँचें बाहर आएँगी
और शाख़ों से जब चिड़ियाँ भर्र भरेंगी
उनके डैनों को ताक़त
उनके पेट में तुम्हारे हिंडोले से आएगी
कछुआ मछली घड़ियाल
न जाने कितने जीव जंतु
तुमसे अनभिज्ञ होकर भी तुममें होंगे
तुम उनका प्राण रहोगी
महुए के फूल की मादक रस सुगंध
महुए के पोरों में बसी तुम्हारी ही छलाँग होगी
कितने भी सूखे पत्थर हों
तुम उनको भी गीला कर पाओगी
तुम्हें अपनी क़ीमत की ख़बर तब सबसे ज़्यादा होगी
जब तुम इंसान को देखोगी
जिसकी आँखों के कोरों तक में
पानी सूख गया है
अपना पूरा जीवन जीकर एक दिन तुम
उस महासागर से मिलोगी
जिसकी तुम्हें अभी ख़बर नहीं
और कौन जाने
तुम हवाओं पे सवार बादल बन
अनंत उड़ान को ही निकल पड़ो
तुम मानो न मानो मैं देखता हूँ
तुम्हारा वह जीवन भी है
जो पूर्णतया मुक्त और अकलुषित है
बहुत कुछ होगा पर प्यारी बर्फ़
तुम न होगी
शिक्षाएँ कहती हैं
क्या तुम मेरे समक्ष ऐसे हो सकते हो
बिना व्याख्या
जैसे होती है बर्फ़ धूप के
क्या मुझे अनुमति है
तुम्हारे हृदय में उतरने की
जैसे उतरती है धूप बर्फ़ में
मेरी उपस्थिति पर
तुम्हारे हृदय में उपजी कीमिया
क्या तुम्हें बूँद मात्र भी द्रवित कर गई हैं
और तुम्हें अंतर्दृष्टि है
उस अनपेक्षित महारास की
जो समूल मिटने पर पसरता है
यदि तुम सहर्ष तैयार हो मिटने को
तो तुम्हारी धन्यता की तो कौन कहे
तुम बड़वानल होगे
मनुष्य मात्र के दुःख समुद्र का
Dharamraj Singh
वाह!बहुत शानदार