Ganga Sahay Meena
भारतीय लोकतंत्र अपनी इंद्रधनुषी छवि के कारण दुनिया का अनोखा और खूबसूरत लोकतंत्र है। सत्ता प्रतिष्ठानों में विभिन्न तबकों की हिस्सेदारी इस लोकतंत्र की आत्मा है। इस हिस्सेदारी को सुनिश्चित करने हेतु संविधान में प्रावधान किये गए हैं। इस तरह की संवैधानिक व्यवस्था दुनिया के कई देशों में है जिसके माध्यम से ऐतिहासिक रूप से वंचित तबकों की लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं में हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाती है। भारत की आरक्षण व्यवस्था अपने लक्ष्य समावेशी लोकतंत्र को पाने की दिशा में लगातार अग्रसर है।
शिक्षा सामाजिक बदलाव का सशक्त माध्यम है इसलिए सरकारी शैक्षिक संस्थाओं में वंचित तबकों की भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु विभिन्न प्रावधान किये गए, जैसे- अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए प्रवेश योग्यता में रियायत, विभिन्न स्कॉलरशिप और फैलोशिप, विभिन्न श्रेणियों के लिए संविधानसम्मत सीटें आरक्षित करना आदि. इसी क्रम में अन्य क्षेत्रों की तरह शैक्षिक क्षेत्र की सरकारी नौकरियों में सभी श्रेणियों को अवसर देने के लिए आरक्षण के प्रावधान किये गए हैं। इनमें भी उच्च शिक्षा का क्षेत्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यह सामाजिक न्याय की नीति के तहत किये गए संवैधानिक प्रावधानों का ही प्रतिफल है कि देश के तमाम विश्वविद्यालयों में वंचित तबकों के विद्यार्थियों के अलावा शिक्षक भी दिखाई देने लगे हैं। ये शिक्षक अपनी मेहनत और लगन से अपने विश्वविद्यालयों में विशिष्ट स्थान बना रहे हैं।
अभी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में में वंचित तबकों के लोग दिखने ही लगे थे कि अकादमिक क्षेत्र की नौकरियों में संविधान प्रदत्त आरक्षण-व्यवस्था पर बड़ा खतरा आ खड़ा हुआ है। UGC ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के कहे अनुसार 5 मार्च को एक चिट्ठी लिखी है जिसमें इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक फैसले का हवाला देते हुए विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के शिक्षकों की भर्ती में आरक्षण के रोस्टर को विभागवार लागू करने का आदेश दिया है। इस आदेश के अनुसार विभाग में भी आरक्षण कैडर (असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोशिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर) आधारित होगा। यानी पहली बात तो यह कि अब संस्था को एक इकाई मानने के बजाय विभाग को इकाई माना जाएगा और उसमें भी संबंधित कैडर में जब किसी श्रेणी की बारी आएगी, तभी उसके लिए एक पोस्ट आरक्षित हो पाएगी।
विभाग को इकाई मानकर 13 पॉइंट रोस्टर लागू करना आरक्षण व्यवस्था की हत्या जैसा है। इसको इस प्रकार समझिए- कल्पना कीजिए कि किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी में शिक्षकों के कुल 200 पद हैं। संविधान प्रदत्त आरक्षण व्यवस्था के अनुसार उनमें से 56 पद (27%) ओबीसी के लिए, 30 पद (15%) अनुसूचित जाति के लिए और 15 पद (7.5%) अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित होने चाहिए। अभी तक जारी रोस्टर (200 पॉइंट) पद्धति के अनुसार ऊपर दी गई संख्या के आसपास सीटें विभिन्न श्रेणियों की बन जाती थी। संबंधित कॉलेज/विश्वविद्यालय भले ही बहाने बनाकर उन्हें पूरा नहीं भरते थे, लेकिनसीटें तो उतनी ही बनती थी। अब नई पद्धति के अनुसार 13 पॉइंट रोस्टर होगा। विभागवार। यानी विभाग को एक यूनिट मानकर कैडर आधारित संबंधित श्रेणी के आरक्षण में प्रतिशतानुसार देर सवेर सीट बनेगी। कॉलेज या विश्वविद्यालय में भले ही कुल पद 200 हो, विभागवार अगर 4 या 5 या 6 सीटें ही अनुमोदित हैं और उनमें भी मान लीजिए असिस्टेंट प्रोफेसर की 3 सीटें हैं, एसोशिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर की 1-1 सीटें हैं तो एसोशिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर कैडर में 1-1 सीट होने के कारण कभी कोई आरक्षित सीट नहीं बन पाएगी. असिस्टेंट प्रोफेसर में भी पहली बार की नियुक्तियों में अजा, अजजा और ओबीसी को किसी विभाग में कोई सीट नहीं मिलेगी। 3 असिस्टेंट प्रोफेसरों में से किसी एक के रिटायर होने पर ओबीसी को एक सीट मिलेगी। अजा को 6 अध्यापकों के रिटायर होने के बाद पहली सीट मिलेगी और अजजाको 13 अध्यापकों के रिटायर होने के बाद पहली। यानी इस पद्धति में सभी आरक्षित श्रेणियों का उचित प्रतिनिधित्व रेगिस्तान के सागर की तरह ही रहेगा। सबसे ज्यादा खामियाजा अजजा को उठाना पड़ेगा। जिन विभागों में तीनों कैडर में एक-एक, यानी कुल 3 ही पद अनुमोदित हैं, उनमें किसी सीट पर कभी कोई आरक्षण नहीं हो पाएगा। अगर ज्यादा पद अनुमोदित हुए भी तो आरक्षित श्रेणियों को उचित प्रतिनिधित्व कभी नहीं हो पाएगा. अनुसूचित जाति की सीट बनते-बनते तो मुमकिन है पूरी एक सदी लग जाए। तब तक कोई नई पद्धति आ जाएगी और इस तरह नए आदेशानुसार प्रकारांतर से उच्च शिक्षण संस्थानों में आरक्षण-व्यवस्था पूरी तरह निष्प्रभावी हो जाएगी। एक तो अभी तक हजारों आरक्षित सीटों को वर्षों से भरा नहीं गया है, ऊपर से यह आदेश! विश्वविद्यालयों को सरकार विभागवार अनुदान नहीं देती, इसलिए विभागवार रोस्टर अतार्किक है। यूजीसी का ही एक पुराना आदेश (2006 के आदेश का 6-C) पूरे विश्वविद्यालय या कॉलेज की पोस्टों की ग्रुपिंग की वकालत करता है, जबकि ताजा आदेश उसका विरोधी प्रतीत होता है. इससे इसके निहितार्थों पर प्रश्न उठता है।
यही वजह है कि जब से यूजीसी का यह आदेश आया है, देशभर के विश्वविद्यालयों में शिक्षक आंदोलित हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक सुरेन्द्र कुमार एक हफ्ते से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर हैं। संसद में इस आशय के सवाल पूछे जा रहे हैं. आर टी आई के माध्यम से सूचनाएं एकत्रित की जा रही हैं। 12 मार्च को संसद की अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कल्याण समिति ने संबंधित तीन-चार मंत्रालयों के साथ बैठक कर यूजीसी चेयरमेन की अध्यक्षता में इस मामले में सरकार की भूमिका की संभावनाएं पता करने हेतु एक समिति बना दी है। गत 15 मार्च को दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ की अगुवाई में विभिन्न कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के हजार से ऊपर शिक्षकों ने दिल्ली के मंडी हाउस से जंतर मंतर तक प्रदर्शन किया. इसमें तमाम विचारों और विभिन्न सामाजिक तबकों के प्राध्यापक शामिल थे। इससे निश्चिततौर पर सरकार पर दबाव पड़ा है। विभिन्न पार्टियों के वंचित नेता एक होने लगे हैं और स्वयं सरकार के भीतर से भी यूजीसी के आदेश के विरोध में स्वर उठने लगे हैं।
निश्चित तौर पर प्रथम दृष्टया यह मामला कानूनी है। इस पर न्यायालय की मुहर है इसलिए इसका हल भी उच्चतम न्यायालय के माध्यम से निकलेगा। हां, केन्द्रीय सरकार को सामाजिक न्याय और समावेशी लोकतंत्र के हक में इस कठिन समय में देश के वंचितों के साथ खड़े होना चाहिए। इससे देश के वंचितों की लोकतंत्र में आस्था मजबूत होगी।
Ganga Sahay Meena PhD
Associate Professor
Centre of Indian Languages
Jawaharlal Nehru University
New Delhi-67
INDIA