खानपान, किवदंतियां, खानपान का मनोविज्ञान व हमारा शरीर

दुनिया की कोई जलवायु हो, मानव शरीर के लिए जो आवश्यक तत्व हैं वे समान ही रहते हैं। प्रकृति ने जलवायु के आधार पर अनाज, फल इत्यादि बनाए हैं आदमी को नहीं बनाया। दुनिया का आदमी समान है। तभी आदमी किसी भी महाद्वीप, उपमहाद्वीप, देश, राज्य, जिला, गांव में जाकर रह सकता है। खाने पीने की आदतों व मान्यताओं के कारण एडजस्ट करने में परेशानियां भले ही आ जाएं, प्रकृति की ओर से ऐसा कोई अंतर नहीं है।

आदमी धरती में यहां वहां भटकता रहा। जहां-जहां उसने अपना आशियाना बनाया वहां-वहां जो सहजता से उपलब्ध रहा उसके अनुरूप उसने अपनी आदतें बना लीं। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए कुछ नियम बना लिए। पुराने समय के नियम किवदंतियों व श्रुतियों के ऊपर आधारित थे, वैज्ञानिक दृष्टिकोण व शोधों पर नहीं। भारत में तो किवदंतियां, श्रुतियां व पोथियां आज भी विज्ञान पर पूरी तरह से हावी हैं।

विज्ञान के विकास के साथ दुनिया के बहुत क्षेत्रों के लोगों ने अपनी परंपराएं बदल लीं, बहुत क्षेत्रों के लोगों ने पुराने तरीकों के खानपान को चिपकाए रखा, कुछ क्षेत्रों के लोगों ने परंपरा, संस्कृति इत्यादि के नाम पर अहंकार के साथ हानिकारक खानपान के तरीकों को जबरदस्ती चिपकाए रखा। अगली पीढ़ियां खामियाजा भुगत रहीं हैं। यह तो समाज व समाज के लोगों की सोच, मानसिकता, कंडीशनिंग व दृष्टिकोण की बात है।

शरीर यह नहीं समझता कि प्रोटीन, वसा, अम्ल, क्षार, विटामिन इत्यादि मांस से आया है या दाल से या अंडे से या बादाम से या दूध से या किसी और वस्तु से। शरीर को सिर्फ तत्वों से मतलब है, हम उन तत्वों को उपलब्ध कराने का माध्यम कुछ भी चुनें।

माता पिता का शरीर कैसा था, क्या अच्छाईयां खराबियां थीं। माता ने गर्भावस्था में क्या खाया पिया। दुग्धपान के समय माता ने क्या खाया पिया। बच्चे को बचपन में कैसा आहार दिया गया। इन बातों पर भी मनुष्य के शरीर का चरित्र निर्धारित होता है। एक ही प्रकार की जलवायु में पूरा जीवन गुजारने वाले लोगों के शरीरों में विभिन्न अनाज, फल व सब्जी का भिन्न असर होता है। बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि शरीर को कैसे ढाला गया है।

किवदंतियां भी मनोविज्ञानिक असर डालती हैं:

बहुत बच्चे पूरा जीवन यह मानकर जीते हैं कि भूत होते हैं, उनको बाकायदा भूत दिखने का अहसास भी होता है। क्योंकि उनके मन में यह बिठा दिया गया है कि भूत होता है इसलिए उनका मस्तिष्क उनके शरीर व मन की चरित्र उसी प्रकार गढ़ लेता है।

यही खाने के लिए भी लागू होता है। मैं बहुत लोगों को जानता हूँ जो कुछ भी इतर खा लेंगे तो उनको बीमारी सी महसूस होने लगती है। उनके दिमाग में लोगों की कहानियों, किवदंतियों इत्यादि ने बिठा दिया होता है कि यह खाने से ऐसा होता है, वह खाने से वैसा होता है।

दुनिया के अधिकतर देशों के लोग, दुनिया की कुल जनसंख्या का 85% से भी अधिक का मुख्य भोजन चावल ही है, चाहे जिस भी जलवायु के हों, चावल ही खाते हैं। लेकिन भारत में बड़ी जनसंख्या वाले कई राज्य ऐसे हैं जहां बुखार आने पर, खासी, जुकाम होने पर वैद्य, हकीम, डाक्टर इत्यादि सबसे पहले चावल बंद करते हैं। जो कंडीशनिंग गहरे घुसी है वह निकाले नहीं निकलती है।

दुनिया की 85% से अधिक जनसंख्या चावल खाती है, रोटी नहीं खाती। दुनिया को छोड़िए, भारत को ही लीजिए बंगाल, उड़ीसा, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, तेलांगाना व केरल जैसों राज्यों के लोग क्या करें। चावल न खाएं तो भूखे रहें। लेकिन भारत में ऐसे बहुत लोग हैं जिनके मन में यह बैठा हुआ है कि चावल नुकसान करता है, रात में नहीं खाना चाहिए, पता नहीं क्या-क्या। चूंकि मन में बैठा हुआ है इसलिए चावल देखते ही मन के माध्यम से शरीर में प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है, चावल खाने के बाद बीमार महसूस करने लगता है। ऐसा ही अन्य खाद्य पदार्थों से जुड़ी किवदंतियों से ग्रस्त मन के विकार के कारण होता है।

मेरा रहन-सहन:

मैं शाकाहारी हूँ, आप मुझे किसी भी जलवायु में शाकाहार में जो भी खाने योग्य उत्पाद हैं, कुछ भी खाने को दीजिए, मैं सबकुछ खाता हूँ, मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरा शरीर सामान्य रूप से काम करता रहता है। मैं बहुत ही कम बीमार पड़ता हूँ। मैंने व मेरी पत्नी ने दिल्ली में रहते हुए बिना दवाओं के डेगूं तक ठीक कर लिया था। मैं कई-कई वर्ष एक भी दवा नहीं खाता। जबकि शरीर की ऐसी तैसी भी खूब करता हूँ। कभी कभी 36-36 घंटे या 48-48 घंटे सोता ही नहीं हूँ, लगातार काम करता हूँ। कभी-कभी 24-24 घंटे गाड़ी चलाई है वह भी भीड़भाड़ वाले इलाकों में रात दिन दोपहर। शरीर बिलकुल ठीक से काम करता है। कभी बहुत ही अधिक मुलायम गद्दे कभी पथरीली जमीन, कहीं भी सोने को मिल जाए सो लेता हूं। कभी-कभी दिन-दिन भर पैदल चलना तो कभी सप्ताहों एक ही घर में रहना। कभी-कभी खड़े-खड़े ही सो लिया, कभी-कभी बैठे-बैठे ही सो लिया। चर्चा करते हुए बीच में दो-चार मिनट की नींद मार ली और फिर आगे के दस-बारह घंटों के लिए तैयार।

मतलब यह कि शरीर ऐसा ढला हुआ है कि कभी भी किसी भी परिस्थिति के लिए हर पल तैयार। अभी तक तो ऐसा ही चल रहा है। अब आगे भविष्य में कुछ गड़बड़ हो तो नहीं कह सकता हूँ। आगे गड़बड़ की संभावनाओं को कम करने के लिए। शरीर के लिए आवश्यक तत्वों का अध्ययन करने में भी लगा हूं, ताकि तत्वों की डिफीशियंसी से शाकाहारी उत्पादों के सेवन से बचा जा सके।

जब से आस्ट्रेलिया आया हूँ तबसे किस सब्जी में कौन सा तत्व होता है, किस फल में कौन सा तत्व होता है, किस मेवे में कौन सा तत्व होता है। इस सबका अध्ययन करता हूँ। फिर उसी हिसाब से शरीर को पोषक तत्व उपलब्ध कराता हूं। अपना तो प्रयास यही है कि शरीर लंबे समय तक सक्रिय बना रहे। चूंकि यहां इस प्रकार की सब्जियां, साग, फल व मेवे इत्यादि सहजता से उपलब्ध हैं, इसलिए शरीर की भी देखभाल करने के प्रयास में भी हूं।

जब तक माता पिता के संरक्षण में रहता रहा तब तक हमेशा कमजोर रहा, बहुत कमजोर। क्योंकि मेरी माता किवदंतियों पर चलती हैं। नींबू नहीं खाना, टमाटर नहीं खाना, अचार नहीं खाना, मिर्च नहीं खाना। केवल लौकी, तरोई, कद्दू, पालक पानी व नमक में उबाल कर खा लीजिए। शरीर को इसके अलावा किसी तत्व की जरूरत नहीं। हमेशा बीमार रहा, दिन में पंद्रह से बीस तीस बार पेचिस जाने वाली स्थिति महीने में कम से कम पंद्रह दिन तो रहती ही थी। नारफ्लाक्स-टीजेड का एक दस टेबलेट वाला पत्ता मेरी जेब/पर्स/झोले में हमेशा पड़ा ही रहता था।

जबसे माता पिता के संरक्षण में रहना छोड़ा तबसे शाकाहार में विभिन्न तत्वों वाले उत्पाद खाने शुरू किए। कभी कोई बीमारी नहीं हुई, उल्टे शरीर और दुरुस्त होता चला गया। जेब या पर्स में छोड़िए घर में दवा नहीं मिलेगी। नारफ्लाक्स-टीजेड तो भूल ही चुका हूँ कि क्या चीज होती है।

सामाजिक कार्यों को करते हुए हजारों गावों में गया। हजारों गांवों में पानी पिया, खाना खाया, सोया। कभी बीमार नहीं हुआ। कभी थकावट महसूस नहीं की। आप मेरे जमीनी साथियों से पूछ सकते हैं, मेरी जीवन शैली के बारे में।

कहा जाता है कि ठंठा गरम एक साथ नहीं पीना चाहिए। मुझे आप पहले ठंठा फिर गरम, पहले गर्म फिर ठंठा कैसे भी दीजिए कोई फर्क नहीं पड़ता। सर्दियों में फ्रिज का पानी गटकता हूँ, बर्फ चूसता हूँ। दो-दो दिन का फ्रिज में रखा खाना, फ्रिज से निकाल कर बिना गर्म किए ठंठा ही खाता हूँ, कोई फर्क नहीं। कहा जाता है कि मूली रात में नहीं खानी चाहिए, बहुत नुकसान करती है। मैं रात में खूब मूली खाता हूँ, कभी कोई परेशानी नहीं।

चलते-चलते:

मुझे आप किसी भी जलवायु वाले इलाके में कुछ भी शाकाहार खाने को दे दीजिए सब पचा जाता है। मेरा तो अभी तक का पूरा जीवन ही गुजरा है यात्राएं, यात्राएं और यात्राएं करते हुए, विभिन्न जलवायुओं के इलाकों में रहते हुए। मैने आजतक कभी भी किसी भी गांव में खाना परोसने वाले से यह नहीं कहा कि मैं यह नहीं खाता या मुझे फलानी चीज नुकसान करती है। मैं शाकाहार में जो भी खाने योग्य वस्तु परोस दिया गया है, वह मैं खा लेता हूँ। हां खाना परोसने वाले व खाना खिलाने वाले का भाव जरूर जानना समझना चाहता हूँ। यदि कोई भार समझ कर खाना खिलाता है, परोसता है तो मैं उसके यहां खाना कम खाता हूँ या संभव हुआ तो कोई बहाना बना कर खाना खाने से मना कर देता हूँ, भूखे रहना पसंद करता हूँ। मेरा मानना है कि भोजन भले ही बिलकुल साधारण हो लेकिन प्रेम से बनाया व खिलाया जाना चाहिए।


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3 Responses to खानपान, किवदंतियां, खानपान का मनोविज्ञान व हमारा शरीर

  1. Sunny says:

    वाह

  2. ajay kumar pal says:

    Very nice

    • रोहतास राणा says:

      आपने अपने शरीर को हर परिस्थितियों में डाला और दृढ़ता के साथ अपने कर्म को प्रमुखता दी ।वैसा ही शरीर बन गया।

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