गंगा
गंगा व गंगा की सहयोगी नदियां भारत के लगभग 11 राज्यों में बहती हैं तथा भारत के लगभग 50 करोड़ लोगों का जीवन प्रभावित करतीं हैं। गंगा में प्रतिदिन लगभग 300 करोड़ लीटर सीवर गिरता है। एक समय की पवित्र गंगा आज दुनिया की सबसे अधिक जहरीली व विदूषित नदियों में से है। गंगा में प्रतिवर्ष लगभग 10 करोड़ लोग पापों से मुक्ति होने के लिए स्नान, शव-दाह, शव-प्रवाह इत्यादि क्रियाओं से गंगा को विदूषित करने का काम करते हैं।

Ganga
प्रस्तावना
मैंने बिहार राज्य में बिहार का शोक कही जाने वाली कोसी नदी की बाढ़ों की विभीषिकाओं में कई वर्ष सैकड़ों गांवों में राहत व पुनर्वास के लिए काम किए हैं। कोसी नदी की बाढ़ को समझने व राहत कार्यों के लिए मैने सप्ताहों 12 से 14 घंटे प्रतिदिन कोसी बाढ़ में तेज प्रवाहित नदी में बहती हुई सैकड़ों लाशों को देखते हुए नावों में यात्रा करते हुए गुजारे हैं ताकि बीहड़ से बीहड़ गावों में पहुंच कर लोगों का जीवन बचाने में योगदान कर सकूँ।
बाढ़ से ग्रस्त गांवों में ही रहना। जो मिला वह खा लेना। अधिकतर सूखा चूड़ा, नमक व प्याज से ही काम चलता था। खेतों में नदी का पानी भरा होने के कारण बांस से बने जुगाड़ू टट्टी-घर मे टट्टी जाना जिसमें टट्टी जाने के लिए पूरा गांव सुबह पंक्तिबद्ध रहता था। रुके हुए पानी व सड़ी हुई लाशों के कारण संक्रमित बीमारियों का खतरा ऊपर से।

Kosi River Flood
कोसी बाढ़ की विभीषिकाओं को नजदीक से देखने महसूस करने के बाद मेरा यह भी प्रयास रहा कि दुनिया के जल, नदी व बाढ़ प्रबंधन के विशेषज्ञों को जोड़कर सामाजिक प्रबंधन की दिशा मे काम करूं। मैंने नीदरलैंड्स, आस्ट्रेलिया व संबंधित वैश्विक संस्थानों के वैज्ञानिकों से संपर्क किया। एक-एक विशेषज्ञ को जोड़ने में समय, संसाधन व ऊर्जा लगी।
इन्हीं प्रयासों के तहत चाहे-अनचाहे यूरोपियन यूनियन संसद व अन्य वैश्विक स्तर पर जल संबंधित कई वैश्विक दस्तावेजों को तैयार करने में भी मेरा योगदान हो गया।
नीदरलैंड्स समुद्र से घिरा व समुद्री सतह से नीचे स्थित बेहद घनी जनसंख्या वाला भौगोलिक क्षेत्रफल की दृष्टि से छोटा सा देश है। हम लोग हर बात के लिए भारत की जनसंख्या को एक मूलभूत बहाने के रूप में प्रयोग करते हैं। जबकि नीदरलैंड्स की जनसंख्या का घनत्व भारत की जनसंख्या घनत्व से काफी अधिक है। नीदरलैंड्स में वर्ष में कई महीने बर्फ के कारण पूरे देश की जमीनें बंजर पड़ी रहती हैं। समुद्री सतह से नीचे बसे होने के कारण पूरे वर्ष समुद्री व समुद्री नदियों के कारण बाढ़ की स्थिति। नीदरलैंड्स के लोगों ने बाढ़ के साथ व्यवस्थित संतुलन स्थापित करके जीना सीखा परिणामतः दुनिया में नीदरलैंड्स बाढ़ प्रबंधन का विशेषज्ञ माना जाता है। इतनी विषम परिस्थितियों के बावजूद नीदरलैंड्स ने वैज्ञानिक खोजें की, कृषि व दूध पर दुनिया को नए आयाम दिए। दुनिया के सबसे विकसित, सुविधासंपन्न व कल्याणकारी देशों में से एक है। कृषि से संबंधित दुनिया का सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालय भी यहीं स्थापित है। आस्ट्रेलिया का स्थान दुनिया में जल प्रबंधन के लिए विशेषज्ञ माने जाने वाले सबसे ऊपर के देशों में आता है।
भारतीय समाज का मनोविज्ञान
मैंने यह महसूस किया कि भारतीय समाज में ऐसा माना जाता है कि हर बात का समाधान मुख्यमंत्री व प्रधानमंत्री के पास है। बिहार का शोक कोसी नदी की बाढ़ विभीषिका हो या गंगा का निर्मल अविरल होना या कोई अन्य मुद्दा। यह माना जाता है कि यदि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री चाह लें तो कोसी की बाढ़ रुक जाएगी व गंगा निर्मल व अविरल हो जाएगी। धरना, प्रदर्शन, लेखन, मीडिया इत्यादि की दिशा इसी मानसिकता के इर्दगर्द ही रहती है।
राजनेतागण व उनके समर्थक लोग भी यही माहौल बनाते हैं कि उनके पास जादुई ताकत है, वे पलक झपकते ही परिवर्तन कर देंगे। भारत चूंकि पौराणिक मिथकों व जादुई सिद्धियों की कहानियों को मानने वाला सामंती मानसिकता का समाज है इसलिए अवतारवाद व जादुई ताकतों पर विश्वास भी किया जाता है।
मैं मजाक में कहा करता हूं कि यदि बिहार का मुख्यमंत्री कोसी नदी को बाढ़ न लाने का आदेश दे दे, कैबिनेट कोसी नदी को बाढ़ न लाने का प्रस्ताव पारित कर दे तो कोसी बाढ़ लाना बंद कर देगी। देश का प्रधानमंत्री गंगा को आदेश दे कि वह निर्मल व अविरल हो जाए या देश की कैबिनेट गंगा के लिए निर्मल व अविरल होने का प्रस्ताव पारित कर दे तो गंगा निर्मल व अविरल हो जाएगी।
बात केवल दो नदियों की नहीं है। बात किसी भी नदी की हो, जंगल की हो, प्राकृतिक संसाधन की हो, कुरीतियों की हो; हमारे समाज व समाज के लोगों के अधिकतर प्रयास सरकार के खिलाफ धरना, प्रदर्शन, प्रेस कन्फेरेंश, विदेशी फंडिंग संस्थाओं को आकर्षित करने, कुछ दिखावटी जमीनी कामों के तामझाम व अवतारवाद इत्यादि तक ही संकुचित व कुंठित रहते हैं।
गंगा में व्यवसायिक जल-यातायात
एक खबर जोरशोर से आती है कि देश के परिवहन मंत्री श्री गडकरी जी की दृढ़ इच्छा है कि गंगा में व्यवसायिक जल परिवहन शुरू हो, गंगा में जहाज चलें। जैसा यातायात ट्रेनों व सड़कों से होता है वैसा यातायात गंगा नदी में भी शुरू हो। ऐसा हो इसके लिए मंत्री जी व सरकार पूरी तरह से कटिबद्ध है। जोरशोर से प्रयास जारी हैं ऐसा मीडिया में बारबार बताया गया।
किंतु मैंने फेसबुक पर एक पोस्ट अपना संदेह व्यक्त करते हुए, यह कहते हुए लिखी, कि जल परिवहन के लिए प्रथम मूलभूत तत्व गंगा में पर्याप्त व निरंतर जल स्तर व प्रवाह का बने रहना है। यह कैसे संभव होगा। बिना इसके परिवहन संभव ही नहीं। जिन लोगों को यह लगता है कि प्रकृति नियमों, परस्परता व संतुलन की बजाय अवतारवाद, नारों व जादू-टोनों से चलती है, उन लोगों को मेरी यह बात पसंद नहीं आई।
दरअसल गंगा का निर्मल व अविरल होना तथा गंगा में जल-यातायात होना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इनको अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता है, न ही अलग-अलग करके समाधानित किया जा सकता है।
मीडिया से मालूम पड़ा कि भारत के सर्वोच्च तकनीकी संस्थानों, भारत सरकार के जल से संबंधित विभागों के वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने गहन विचार विमर्श करके गंगा नदी में ड्रेजिंग की जाएगी, निष्कर्ष निकाला। सरकार ने तीसियों हजार करोड़ रुपए की लगत से गंगा नदी में ड्रेजिंग की जाने की घोषणा की।
जल यातायात के लिए नदी में निरंतर जल की मात्रा व प्रवाह होना आवश्यक है। नदी में जल की मात्रा व प्रवाह मूलभूत रूप से नदी व नदी की सतह (बेड) के भूजल-स्रोतों पर निर्भर करता है।
ड्रेजिंग
ड्रेजिंग से नदी की सतह को खुरचा जाता है। ऐसा माना जाता है कि नदी की सतह को खुरचने से नदी के भूजल-स्रोत खुल जाएंगे और नदी में जल की मात्रा व प्रवाह बढ़ जाएगा। खुरचने की क्रिया को ड्रेजिंग कहते हैं।
ड्रेजिंग तकनीक नदियों के लिए हानिकारक होती है, विशेषकर उन नदियों के लिए ताबूत में अंतिम कील की श्रेणी की हानिकारक होती है जिनके भूजल स्रोत मृतप्राय हो चुके होते हैं। ऐसी नदियों में ड्रेजिंग भूजल स्रोतों के साथ नदी की जल-शिराओं को नष्ट कर देती है, क्योंकि नदी में जल लाने वाले भूजल-स्रोतों के मृत हो जाने से नदी में जल लेकर आने वाले प्रवाह मृत हो जाते हैं, जिसके कारण अंदर से जल-शिराएं बनना कम होकर बंद हो जाती हैं। नई जल-शिराओं के बनने की प्रक्रिया में भयंकर कमी, ऊपर से ड्रेजिंग के कारण जल-शिराओं का अपने बचे-खुचे स्रोतों से रिश्ता टूटना, कुछ समय के लिए अस्थाई रूप से जल स्तर का बढ़ना लक्षित हो सकता है, लेकिन नदी के दीर्घकालीन जीवन के लिए बहुत अधिक भयानक होता है।

Narmada River
भूजल स्रोतों की जल-शिराओं व नदी का रिश्ता समझने के लिए नर्मदा नदी बहुत बेहतर उदाहरण है। नर्मदा नदी की उत्पत्ति एक छोटे से कुंड से होती है, तेज प्रवाह नहीं, यदि बताया न जाए तो अंदाजा लगाना मुश्किल कि नर्मदा इसी कुंड से निकलती हैं। कई किलोमीटर तक नर्मदा नदी एक पतली सी धारा के रूप में बहती है, मोटी भैंस खड़ी होकर नदी का प्रवाह अवरुद्ध सकती है। यही नदी भूजल स्रोतों व जल-शिराओं से संबंधित होते हुए मध्य भारत की सबसे महत्वपूर्ण व विशालकाय नदी के रूप में विकसित होती है।
गंगा के लिए प्रयास
- गंगा महासभा
मदनमोहन मालवीय ने 1905 में गंगा को हिंदुओं की पवित्र नदी के रूप में ब्रिटिश हुकूमत से स्वीकृति दिलाने के लिए गंगा महासभा की स्थापना की। लगभग दस वर्षों के संघर्ष के पश्चात 1914 में ब्रिटिश हुकूमत ने गंगा को हिंदू धर्म की मान्यताओं के तहत पवित्र नदी का दर्जा दिया। 5 नवंबर 1914 को “अविरल गंगा समझौता दिवस” का नाम दिया गया। 1916 में यह समझौता लागू भी हो गया। लेकिन आजादी के बाद गंगा नदी का प्रयोग बिजली उत्पादन, बांध बनाने, सिचाई के लिए नहर निकालने, औद्योगिक अपद्रव्य व सीवर इत्यादि प्रवाहित के लिए राज्य व केंद्र सरकारों व उद्योगपतियों ने लगातार धुआंधार प्रयोग किया।
- गंगा एक्शन प्लान
जनवरी 1986 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने व अविरल प्रवाह के लिए गंगा एक्शन प्लान की स्थापना की।
- नेशनल रिवर गंगा बेसिन अथारिटी व गंगा राष्ट्रीय नदी
गंगा को सन् 2008 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने “राष्ट्रीय नदी” घोषित किया। फरवरी 2009 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार ने नेशनल रिवर गंगा बेसिन अथारिटी की स्थापना की। 2010 में आगामी दस वर्षों के लिए लगभग 20,000 करोड़ रुपयों की घोषणा तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा की गई। 2011 में विश्व बैंक ने लगभग 6000 करोड़ रुपए का अनुदान दिया।
- नमामि गंगे व गंगा मंथन
वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद आगामी पांच वर्षों में 20,000 करोड़ रुपयों की घोषणा “नमामि गंगे” नाम देते हुए कर दी। 7 जुलाई 2014 को गंगा के संदर्भ में विचार विमर्श, चिंतन मनन इत्यादि करने के लिए “गंगा मंथन” कार्यक्रम आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम को आयोजित करने में अरबों रुपए खर्च हुए। नमामि गंगे कर तहत 2014 से 2016 तक दो वर्षों में लगभग 3000 करोड़ रुपए खर्च किए गए।
उपसंहार
सन् 2014 में जब माननीय नरेंद्र मोदी जी देश के प्रधानमंत्री बने तब मित्र सचिन खरे को प्रधानमंत्री आवास में प्रधानमंत्री से मिलने व भोजन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वहां से लौटने के बाद जब मित्र सचिन खरे ने बताया कि उनको प्रधानमंत्री आवास में बेहद स्वादिष्ट आमों का स्वाद लेने का अवसर मिला तो हम अपना मन मसोस कर रह गए, आमों के बारे में मुझे अपने वे दिन याद आ गए जब भारत के “औद्यानिकी विभाग” के राष्ट्रीय महानिदेशक महोदय प्रतिवर्ष देश के सबसे बेहतरीन कई प्रकारों के आमों के कई बड़े डिब्बे हमारे घर भिजवाते थे। उन आमों में कई प्रजातियां तो ऐसी थीं कि खाने के बाद कई-कई दिन तक पेट के भीतर से मुंह में अच्छी सुगंध आती रहती थी, स्वाद बना रहता था।
मित्र सचिन खरे ग्राउंड रिपोर्ट इंडिया के पुराने पाठकों में से हैं। उन्हें पता था कि मैंने भारत देश के कई राज्यों के सैकड़ों गांवों में भूजल व कृषि मुद्दों पर स्थानीय सामाजिक स्तर पर हो रहे जमीनी प्रयासों के संदर्भ में “जल व कृषि” पर आनलाइन व प्रिंट दोनों पत्रिकाओं में लाखों रुपयों की लागत से विशेषांक निकाले थे।
उन्होंने हमसे पूछा कि गंगा के लिए सरकार को क्या करना चाहिए, वे कोशिश करेंगे कि मेरे सुझावों को सरकार, प्रधानमंत्री व गंगा मंत्री तक पहुंचाएं। हमने उनको एक सीधा फार्मूला बताया और कहा कि इस फर्मूले के अलावे कोई अन्य वास्तविक समाधान भी नहीं है, यह भी कहा कि इस फार्मूले को तभी लागू किया जा सकता है जब प्रधानमंत्री महोदय नौकरशाही व सरकारी मंत्रालयों, विभागों व संस्थानों में ऊंचे पदों व ऊंचे वेतनमानों व सुविधाओं के साथ कार्यरत इंजीनियरों व वेतनभोगी जल वैज्ञानिकों की नहीं सुनेंगे। मित्र महोदय ने “जल व कृषि” के विशेषांक की कुछ प्रतियां मुझसे लीं और कहा कि कुछ दिनों में उनकी मुलाकात गंगा मंत्री सुश्री उमा भारती से होने वाली है। वे कोशिश करेंगे कि मेरे सुझाव व प्रतिकाएं उन तक पहुंचा दें, आगे मंत्री जी जानें सरकार जाने।
अब तक तो इन्हीं सब तथाकथित जल-विशेषज्ञों की बातें ही सुनी व मानी जा रहीं हैं। पिछले कुछ दशकों में गंगा व देश की लगभग सभी नदियां मरणासन्न स्थितियों में पहुंच गईं हैं, गांवों में तालाब, कुएं व सोख्ते नष्ट हो चुके हैं, जमीन के पानी का जलस्तर लगातार तेजी से नीचे जा रहा है। अब चेतने का अंतिम समय है, बेहतर कि इन तथाकथित विशेषज्ञों व कार्यकारी ढांचे को लक्ष्य दिया जाए, लक्ष्य को प्राप्त करने का तरीका बताया जाए। ये लोग सिर्फ लक्ष्य व लक्ष्य प्राप्ति के तरीकों का अनुसरण करें। इन लोगों की विशेषज्ञता, ज्ञान व समझ का परिणाम स्पष्ट दीख रहा है। बेहतर कि प्राकृतिक नियमों, संबंधों व संतुलनों का अनुसरण किया जाए, दुनिया के जो समाज वास्तव में विशेषज्ञ हैं उनसे सीखा जाए।
चलते-चलते :
इतने रुपए, संसाधन, चिंतन मनन, तामझाम इत्यादि के बावजूद गंगा नदी दिन प्रतिदिन मरती जा रही है। कारण सिर्फ यह है कि हम भूजल व नदी के प्राकृतिक संबंध, तालमेल व समता को समझना नहीं चाह रहे हैं। हम अपने-अपने स्वार्थों, लोभों, ग्लैमर, भोगों व अहंकारों में लिप्त हैं। हम भोगने की दौड़ में हैं, अगली पीढ़ियां भोग सकें इस चकरघिन्नी में लिप्त हैं, रात दिन व्यस्त हैं, लेकिन एक क्षण के लिए यह नहीं सोचते कि जब जीवन ही नहीं रहेगा तो भोगेंगे कैसे।
गंगा को पवित्र या दैवीय न मानिए, क्योंकि ऐसा मानते ही हम उसकी चिंता करना बंद कर देते हैं। बेहतर कि गंगा को नदी मानिए, ऐसी नदी जो हमारे कारण मर रही है, जहरीली हो चुकी है, जो जीवनदायिनी व पापनाशक मानी जाती है उसे हमने अपने पापों से जहरीले पाप में परिवर्तित कर दिया है। हम ही गंगा को बचा सकते हैं।
अन्यथा न देश बचेगा, न देश के लोग। जब देश के लोग ही नहीं रहेंगे तो देश की संस्कृति, अस्मिता, आकार-प्रकार, परंपरा या सभ्यता इत्यादि का कोई मायने क्योंकर हो सकता है।