सोलह आने सच

Mukesh Kumar Sinha

झूठ-मूठ में कहा था
तुमसे करता हूँ प्यार
और फिर उस प्यार के दरिया में
डूबता चला गया
‘सच में’ !
डूबते उतराते तब सोचने लगा
किसने डुबोया
कौन है ज़िम्मेदार?
झूठ का चोगा पहनाने वाला गुनाहगार ?
और वजह, इश्क़-मोहब्बत-प्यार ?

हर दिन आँख बन्द होने से पहले
खुद ही बदलता हूँ पोशाक
दिलो दिमाग पे छाए
झूठ के पुलिंदे को उतार
अपनी स्वाभाविक सोंधी सुगंध के साथ
मैं, हाँ मैं ही तो होता हूँ
अपने वास्तविक ‘औरा’ में
सच के करीब
सच से साक्षात्कार करते हुए
खुद से सवाल-जवाब करते हुए

आखिर क्यों झूठ है
है छल-कपट, जंग है,
आखिर क्यों है ऐसा हमारा संसार
क्यों अपने कद को बढ़ाने की
कोशिश करते हैं
जिसके नहीं होते हक़दार
चाहते हैं पा जाएँ वो सम्मान
तर्क-कुतर्क के झंडे तले
क्यों चाहते हैं कहलायें
सर्वशक्तिमान

मृगतृष्णा सा रचा हुआ है भ्रम
झूठ का पहला अंकुरण
कब कैसे क्यों
इस धरती पर प्रस्फुटित हुआ होगा
किसके मन के अन्दर से
छितरा होगा इसका बीज
जो किस उर्वर भूमि पर पला होगा
झूठ की इस अजब गजब बुआई ने
सच के फलक को
बना दिया रेगिस्तान
आज तो झूठ ही झूठ ने रच रखा है
आडम्बर
और बैठा है ससम्मान

तभी तो
झूठ के जंजाल में
खुद को बाखुशी बाँध
दी गयी झूठी तसल्ली की भँवर में
डूबता चला गया मैं
मात्र मैं, या सब, शायद अधिकांश
इस झूठ के तह में छिपा है
कुलबुलाते सच का मौन
तभी तो
ढिंढोरा पीट कर बताते हैं
‘सफ़ेद झूठ’
झूठ झूठ चिल्ला कर
उसको बनाते हैं
सोलह आने सच

अपने अपने नजरिये का सच !!

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