Vivek "सामाजिक यायावर"
डा० राकेश सक्सेना “रफीक” से मेरी पहली मुलाकात आज से तकरीबन ग्यारह-बारह वर्ष पहले मेरे एक पत्रकार मित्र के घर में हुई थी। राकेश युवा-भारत से जुड़े हुए थे। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली से डाक्टरेट राकेश सक्सेना मुरादाबाद के किसी डिग्री कालेज में अतिथि-व्याख्याता के रूप में पढ़ाते थे। एक दिन लखनऊ में राकेश मुझसे कहते हैं कि वे और उनके एक स्थानीय स्तर के नेता मित्र एक विद्यालय खोलना चाह रहे हैं जिसमें बच्चों के ‘मनुष्य’ होने पर प्राथमिकता दी जायेगी और शिक्षा के प्रयोग होगें। राकेश ने कहा कि मैं विद्यालय में शिक्षा निर्देशन का काम संभालूं, शिक्षा से संबंधित अनुप्रयोगों को करने के लिए मुझे सारे अधिकार रहेंगें, संस्थापक-मंडल का हस्तक्षेप नहीं होगा उल्टे मेरे अनुप्रयोगों में सहयोग ही दिया जाएगा। मैं राकेश को नहीं जानता था, ना ही जीवन में कभी उनका मित्र रहा था, केवल चंद औपचारिक मुलाकातें पत्रकार मित्र के यहाँ हुईं थीं। फिर भी ‘शिक्षा’ में प्रयोग के लालच में मैंने अपनी सहमति दे दी। सहमति देने के कारणों में गांवों के बच्चों के विकास के लिए काम करने से प्राप्त होने वाली आत्मिक संतुष्टि और एक अनजान क्षेत्र में अनजान लोगों के बीच जाकर उनके लिए काम करने की सार्थकता आदि भी थे।
विद्यालय में मेरा पहुंचना/प्रथम-दिन
जिन दिनों मुझे विद्यालय पहुँचना था, उन्हीं दिनों मैं व्यक्तिगत रूप से बहुत ही गहरे आंतरिक दु:ख से गुजर रहा था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई खतम हो चुकी थी। भारतीय प्रबंध संस्थान (आईआईएम) व टोक्यो यूनिवर्सिटी जापान की विकेंद्रित ऊर्जा व्यवस्था संयुक्त शोध परियोजना में शोध कार्य भी कर रहा था। माता-पिता ने मेरी सामाजिक गतिविधियों के कारण अपने दिल व पैतृक संपत्तियों से पहले ही बेदखल कर दिया था, आजतक बेदखल हूँ। कई अच्छी नौकरियों के प्रस्ताव थे, नामचीन संस्थानों से पीएचडी करने के भी प्रस्ताव थे। किंतु जीवन में जो प्रताड़नाएं व असंवेदनशीलताएँ भोग चुका था, हजारों किताबों का वर्षों तक रात-दिन जो स्वाध्याय किया था, सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी, जीवन को जिस सामाजिक प्रतिबद्धता व सक्रियता के लिए अनेक वर्षों में ढाला था। अजीब उहापोह में था कि जीवन की दिशा क्या चुनूं। यही वह समय था जब अपने जीवन की दिशा तय होनी थी।
जीवन की दिशा चुनने वाला निर्णय लेने के लिए मैंने सोचा कि सबसे बेहतर रहेगा कि शरीर की जरूरतों से ऊपर उठकर, मन की भोग-लिप्सा व इच्छाओं से ऊपर उठकर, अहंकार से ऊपर उठकर निर्णय लिया जाए। इसलिए लंबा उपवास करने का निर्णय लिया। जीवन का सबसे लंबा उपवास किया, कुल अठारह दिनों का उपवास। लगातार अठारह दिनों तक नींबूं, पानी व नमक के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। नींबू व नमक भी कई दिन के बाद लेना शुरू किया था।
स्वयं में इच्छाशक्ति संवर्धित करने व जीवन की दिशा चुनने वाला निर्णय लेने में सक्षम हो पाने के लिए अठारह दिनों का नीबूं-पानी उपवास किया। इसी उपवास की समाप्ति के अगले दिन भीषण शारीरिक कमजोरी की हालत में भी मैंने भारी पिठ्ठू-बैग अपनी पीठ पर लादा और भारतीय रेल के ‘जनरल डिब्बे’ में किसी तरह ठुंसते हुए निकल पड़ा सक्रिय-यायावरी की अपनी यात्रा में। मुरादाबाद रेलवे स्टेशन से पिठ्ठू बैग लादकर पैदल लगभग दो किलोमीटर दूर बस-स्टैंड, वहां से भरी हुई सरकारी खटारा बस में किसी तरह से ठुस-ठुसा कर अत्यधिक खराब हालात के सड़क-मार्ग से गंतव्य तक पहुंचा।
बिलारी तहसील मुख्यालय से कुछ किलोमीटर दूर एक गाँव की सीमा में सुनसान खेतों के बीच में एक छोटा सा विद्यालय था। छोटे-छोटे तीन कमरे, एक दो तरफ से बिना दीवारों का हरी बरसाती-पालीथीन से ढका स्थान, एक हैंडपंप, एक खुला मूत्रालय, एक शौचालय, एक ईटों का ढेर लगाकर ऊपर से ढककर बनाई गई बहुत ही छोटी रसोई और छोटा सा क्रीडा-स्थल कुल मिलाकर विद्यालय-कैंपस था। विद्यालय से सटा हुआ एक और विद्यालय था उसके अतिरिक्त दूर-दूर तक केवल खेत थे।
शिक्षा में मेरे प्रयोग
शिक्षक-शिक्षिकाओं के साथ प्रयोग
विद्यालय की स्थापना का पहला वर्ष था। विद्यालय प्रशासन के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय की सेवानिवृत्त प्रोफेसर डा० शीला डागा को और शिक्षा में अनुप्रयोगों के लिए मुझे बाहर से बुलाया गया था। हम दो लोगों को छोड़कर शेष लोग स्थानीय या आसपास के क्षेत्रों के थे। विद्यालय में प्रि-नर्सरी से लेकर नौवीं कक्षा तक कुल मिलाकर ग्यारह कक्षायें थीं। इन ग्यारह कक्षाओं व तीन सौ से अधिक छात्र-छात्राओं के लिए कुल नौ शिक्षक-शिक्षिकाएं थीं। इनमें भी कुछ शिक्षक-शिक्षिकाएं युवा भारत संगठन के स्वयंसेवक थे, जिन्होंनें जीवन में कभी कोई धरातलीय प्रयोग नहीं किए थे, शिक्षा की समझ नहीं थी फिर भी इनका मानना था कि वे बहुत ही बेहतर शिक्षाविद हैं। शिक्षक-शिक्षिकाओं की इस जमात से केवल अजयवीर ऐसा युवा था जो मेरा सहयोगी बन पाया था और हर कदम पर मेरे अनुप्रयोगों के साथ कंधे से कंधे मिलाकर खड़ा रहा।
शिक्षक-शिक्षिकाओं के लिए जब साक्षात्कार शुरू हुए तो मुझे मालूम पड़ा कि यहाँ शिक्षा पर अनुप्रयोग करना मतलब रेगिस्तान में पानी निकालना है। अंग्रेजी में परास्नातक को साधारण अनुवाद तो दूर की बात है छोटी-छोटी वर्तनी भी शुद्ध लिखनीं नहीं आती हो, गणित से एम.फिल को आठवीं क्लास के सवाल हल करना मुश्किल हो, भूगोल से परास्नातक को नक्शा देखना नहीं आता हो आदि-आदि। ऐसे लोगों में से विद्यालय के लिए शिक्षक-शिक्षिका छाँटना था, ऊपर से इनमें से लगभग सभी को अहंकार कि इनके इतना कोई योग्य नहीं। जो उपलब्ध थे उनमें से तुलनात्मक जो बेहतर थे, उनको लेकर विद्यालय शुरू हुआ। कुछ दिनों तक शिक्षक आते-जाते रहे। सप्ताह दो सप्ताह में ऐसे ही हिचकोले लेते हुए शिक्षा के अनुप्रयोगों के तौर-तरीकों को सुनकर और संस्थापकों के प्रयास से विद्यालय को मनीषा शर्मा, रुपाली शर्मा, सुभाषिनी वर्मा, प्रियंका शर्मा, रेखा सक्सेना व दीपशिखा तोमर जैसी शिक्षिकाएं मिलीं। सुभाषिनी वर्मा व रेखा सक्सेना छोटे बच्चों को पढ़ातीं थीं। पाँचवीं और पाँचवी से नौंवीं कक्षा तक के स्तर के शिक्षकों की भारी कमी थी। विश्वविद्यालयी डिग्रियाँ तो परास्नातक की थीं लेकिन योग्यता नहीं थी। यूं समझिए कि यदि चंद अपवाद शिक्षकों को छोड़ दिया जाए तो उनमें पांचवीं कक्षा के सामान्य विषय पढ़ाने की भी वास्तविक योग्यता नहीं थी। जबकि कोई-कोई तो दो या तीन विषयों में परास्नातक थे एक-दो तो शायद कहीं से डाक्टरेट भी कर रहे थे। शिक्षकों का वेतन पाँच सौ रुपए महीना से एक हजार रुपया महीना तक था।
कौन शिक्षक किस विषय को किस कक्षा तक तुलनात्मक रूप से ठीक से पढ़ा सकता है, यह समझने के लिए मैं लगभग रोज शिक्षकों, कक्षाओं व विषयों को यादृच्छिक रूप से फेंटता था। उनकी कक्षाओं में बच्चा की तरह बैठता था ताकि समझ सकूं कि कौन सा शिक्षक किस विषय को किस कक्षा तक तुलनात्मक पढ़ा सकता है।
मैं रोज विद्यालय समाप्ति के बाद शिक्षकों को लगभग दो घंटे पढ़ाता। छात्र, शिक्षक व शिक्षा पर संवाद की चर्चायें करता। मनीषा, रुपाली, सुभाषिनी व रेखा जैसी कुछ शिक्षिकाओं को छोड़कर किसी को भी इस प्रकार की चर्चाएं पसंद नहीं थीं। मैं शिक्षक-शिक्षिकाओं को जागृत करना चाहता था, उनका बेतहरीन बच्चों के विकास में प्रयोग करवाना चाहता था। बने बनाए दस्तूरों से हटकर जो भी मैंने करना चाहा, उस हर बात में मेरा विरोध व असहयोग हुआ। मैं हार नहीं मानता था, दृढ़ता से अपनी बात में अड़ा रहता था। कुछ दिनों के बाद शिक्षक मेरी बात मानते थे, मेरे हर नये विचार पर बार-बार यही होता था। किसी भी नए विचार को लागू करने के पहले मैं खुद को मानसिक रूप से तैयार करता था कि दो या तीन दिन तक मुझे शिक्षकों का बहुत अधिक विरोध झेलना पड़ेगा। कभी कभी तो शिक्षक स्तीफे तक की धमकी देते थे। किंतु कभी कोई गया नहीं उल्टे समय के साथ-साथ बच्चों के साथ प्रेम के साथ काम करने लगे थे।
विद्यालय, कक्षाएं, छात्रगण और छात्रों से मेरे संबंध
मेरे रहने का इंतजाम विद्यालय से लगभग तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर पास के कस्बे में पतली गंदी गलियों में से चलकर मिलने वाले एक घर में किया गया था जो एक संस्थापक का पैतृक घर था। पैतृक घर होने के बावजूद घर बहुत छोटा था, दो कमरे, एक बाथरूम, एक शौचालय व एक पेड़ था। पेड़ को छोड़कर सभी का आकार बहुत छोटा-छोटा था एवम् छत की ऊंचाई बहुत ही कम थी। घर के सामने से गंदी नाली बहती थी जिसके कारण मच्छरों का भयंकर प्रकोप था। रोज सुबह जल्दी उठकर नगरपालिका की सप्लाई वाला पानी भरना, दो-चार केले खाकर लगभग एक किलोमीटर पैदल चलकर फिर रिक्शा करके विद्यालय पहुंचना, इसी तरह शाम को वापस लौटना। इस प्रक्रिया में रोज का दो से तीन घंटे का समय, मानसिक व शारीरिक थकावट, केलों और रिक्शा के किराए में रुपए खर्चना।
बच्चों व शिक्षकों को अधिक समय दे पाऊं। विद्यालय का खर्च कम से कम हो इसलिए मैंने विद्यालय में ही रहने का निर्णय लिया। जब मैंने कहा कि मैं विद्यालय में ही रुकूंगा, उस समय विद्यालय से लगभग एक किलोमीटर तक कोई घर नहीं था केवल खेत थे। मुझसे कहा गया कि रात में जंगली जानवर आते हैं, बिस्तर नहीं है आदि आदि। मैंने कहा कि यदि जंगली जानवरों के हाथों मारा जाऊंगा तो कम से कम ‘आत्महत्या के दोष’ से मुक्त रहूंगा। मैंने विद्यालय में रहना शुरु किया। मेरे साथ अजयवीर ने भी हिम्मत दिखाई। हम दोनों रात में बच्चों की बैठने वाली बेंचों को जोड़कर बिना गद्दे व बेडशीट के ही सोते थे। मच्छरों के लगातार हमलों से परेशान होकर मच्छरदानी ले आये, फिर एक बेडशीट और दो तकिया। जब तक विद्यालय में रहे ऐसे ही सोए हम दोनों लोग। फिर वीरेंद्र भी हम लोगों के साथ सोने लगे थे। वीरेंद्र भी अजयवीर की तरह परिश्रमी थे, शिक्षक के रूप में बेहतर न होते हुए भी बच्चों को खेलकूद अच्छा सिखाते थे और मेरे अनुप्रयोगों का विरोध नहीं करते थे।
विद्यालय में ही सोने के कारण सुबह तीन-चार बजे जगना जुगाड़ में बैठकर दूरदराज के गावों से बच्चों को विद्यालय लेकर आना संभव हो पाया। रास्ते में बच्चों से बातें करना, हसते गाते उनसे चर्चा करना, उनको समझना, उनके साथ उनके घर में हो रही घटनाओं को समझना आदि-आदि यही करता था लगभग रोज सुबेरे बच्चो के साथ जुगाड़ की कुछ घंटे की यात्रा में। अधिकतर गांवों के रास्ते मिट्टी व ईटों के खड़ंजे के होते थे। बारिश होने पर कीचड़ में जुगाड़ का फंस जाना, सारे बच्चों का नीचे उतरना, हम सब का मिलकर जुगाड़ में धक्का लगाकर कीचड़ से बाहर निकालना, फिर जुगाड़ में चढ़ना। कभी-कभी यह प्रक्रिया कई-कई बार दोहरानी पड़ जाती थी। जीवन में पहली बार जुगाड़ में यहीं बैठा था। मेरे लिए जुगाड़ की यात्रा बहुत थकावट भरी होती थी लेकिन जुगाड़ में मेरे जाने से मुझे बच्चों के साथ विद्यालय के बाहर उनकी अपनी उन्मुक्तता व सहज जीवंतता के साथ रहने को मिलता था। मेरे व बच्चों के मध्य विश्वसनीय व अपनत्व भरे रिश्ते बनते थे और बच्चे मेरे सामने उन्मुक्त होकर व्यवहार करते थे।
कई बच्चों को घर से निकलते ही भूख भी लगती थी तो वे जुगाड़ में ही अपना टिफिन खोलकर खाना भी खाने लगते थे। मैंने भी उनसे एक-दो कौर लेकर खाना शुरू कर दिया था। विद्यालय में भोजनावकाश होने पर मैंने बच्चों के टिफिन में से एक-दो कौर निकाल कर खाना शुरू कर दिया था। बच्चों को मेरे द्वारा उनके टिफिन से खाना खाया जाना बहुत अच्छा लगा। बच्चे मेरे लिए एक रोटी अतिरिक्त लाने लगे, इस तरह मेरे पास प्रतिदिन बहुत रोटियां हो जातीं थीं। इन्हीं रोटियों में से मैं उन बच्चों को खाना खिलाता जो किसी कारणवश टिफिन नहीं ला पाते थे। इससे दो फायदे हुए, दलितों सहित विभिन्न जाति व धर्मों के बच्चे एक दूसरे के टिफिन से खाना खाते, बच्चों से मेरे मित्रवत रिश्ते बनते। शिक्षक व शिक्षिकाएं भी बच्चों के साथ ही भोजन करेंगे ऐसा नियम बनाया, शुरू-शुरू में मेरे इस नियम का विरोध हुआ लेकिन बेहतर परिणामों को महसूस करके कुछ शिक्षिकाओं ने भी अपने घर से अतिरिक्त भोजन लाना शुरू कर दिया था और बच्चों के साथ अपना भोजन करने लगीं। शनिवार व रविवार को मुझे व डा० शीला डागा को बच्चों के अभिभावक व्यक्तिगत रूप से दूर दराज के गांवो से भोजन के आमंत्रित करते थे।
मैंने बच्चों के साथ बिलकुल उन्हीं की तरह बच्चा बनकर उन्हीं के बनाए नियमों के तहत खेलना शुरू किया। शिक्षकों के द्वारा बच्चों को डांटने व मारने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। धीरे-धीरे मैं छोटे शिशु से लेकर किशोर तक लगभग सभी बच्चों का मित्र हो चुका था और इतना विश्वास प्राप्त कर चुका था कि वे मेरी बात पर अनुप्रयोग करने को तैयार हो चुके थे। विद्यालय में बच्चों व शिक्षक के मध्य का संबंध शिक्षा का मुख्य आधार होता है, यही संबंध सब कुछ तय करता है।
बच्चों व शिक्षकों के साथ विश्वासपूर्ण संबंध बनते ही मैंने आमूलचूल परिवर्तन के लिए दस्तूरों से हटकर कुछ बड़े निर्णय लिए जैसे कि -
विद्यालय व कक्षा में बच्चे को अपनी इच्छानुसार निर्णय लेने की स्वतंत्रता थी
कक्षा में बच्चे अपना मनचाहा विषय पढ़ सकते थे। एक ही समय में एक ही कक्षा में बच्चे गणित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, चित्रकला आदि अपनी पसंद के अनुसार कोई भी विषय पढ़ सकते थे। एक शिक्षक पर्यवेक्षक की तरह कक्षा में रहता था। बच्चे को अपने विषय के लिए आवश्यकता होने पर या तो उस विषय के शिक्षक के पास जाने या यदि शिक्षक खाली है तो शिक्षक कक्षा में आता था। यदि किसी बच्चे की इच्छा कोई भी विषय पढ़ने की नहीं है तो उस बच्चे को कक्षा से बाहर जाकर खेलने कूदने की स्वतंत्रता थी। बच्चे की इच्छा होने पर वह कक्षा के में लेटकर पढ़ व सो भी सकता था। जिन कक्षाओं में यह प्रयोग मैने किया उनके बच्चों की गुणवत्ता व सीखने की क्षमता तेजी से बढ़ी। कभी-कभी कुछ विषयों जैसे कि अंग्रेजी, विज्ञान, गणित आदि के लिए कई कक्षाएं जैसे कि छठवीं, सातवीं, आठवीं व नौवीं कक्षाएं मिला दी जातीं थीं ताकि बच्चे एक दूसरे को सिखाते हुए सीख सकें और उनमें एक दूसरे के प्रति प्रेम, सम्मान व जिम्मेदारी के भाव विकसित हों।
परीक्षा प्रणाली में आमलचूल परिवर्तन
मैंने हमेशा से महसूस किया है कि विद्यालयों में परीक्षा प्रणाली व पाठ्यक्रम का पूरा ढांचा ही गलत है। उदाहरण के लिए मान लीजिए कि गणित की परीक्षा है और दस प्रकार के नियम पढ़ाए गए। एक छात्र आठ प्रकार के नियमों को जानता है और दूसरा छात्र केवल दो प्रकार के नियमों को जानता है। परीक्षा में प्रश्न पत्र बनाने वाले शिक्षक ने यदि दो नियमों पर आधारित प्रश्न पत्र बना दिया तो जिसको आठ नियम आते हैं वह शून्य अंक पाएगा और जिसको केवल दो नियम आते हैं वह पूरे अंक पाएगा। ऐसी परीक्षा प्रणाली में जो बहुत योग्य है वह नाकारा साबित हो जाता है और जो कम योग्य है वह विशेषज्ञ साबित हो जाता है।
मैंने प्रत्येक विषय के प्रत्येक अध्याय/नियम को प्रश्न पत्र में स्थान दिलवाया। प्रत्येक नियम/अध्याय की लिखित परीक्षा करवानी शुरू की। प्रत्येक बच्चा खुद को और अपने सहपाठियों को हर नियम/अध्याय में ग्रेड देता था। मतलब यह कि बच्चा स्वयं व अपनी कक्षा के सहपाठियों का मूल्यांकन उस विषय के लिए करता। इससे बच्चों में एक दूसरे के प्रति स्वीकार्यता बढ़ी और वे एक दूसरे से/को सीखने व सिखाने लगे।
बच्चा प्रत्येक विषय के शिक्षक की ग्रेडिंग करता था और विषय का शिक्षक बच्चे की ग्रेडिंग करता था। बच्चे व शिक्षक दोनों को ही यह मालूम पड़ता था कि वे एक दूसरे के बारे में क्या विचार रखते हैं? इस पद्धति ने बच्चे का शिक्षक और स्वयं के ऊपर विश्वास बढ़ाया।
यह पद्धति बच्चों को इतनी मजेदार लगी कि वे हर दूसरे दिन परीक्षा देने को तैयार रहते, कुछ बच्चे तो जिद करते कि परीक्षा आज ली जाए।
ब्लैकबोर्ड का प्रयोग बंद करवाना
मैंने कक्षाओं में ब्लैकबोर्ड का प्रयोग बंद करवा दिया था। मेरा तर्क था कि ब्लैकबोर्ड से पढ़ाई फेंककर दी जाती है, जो बच्चा उस फेंकी हुई पढ़ाई को लपक लेता है वह पढ़ जाता है जो बच्चा उस फेंकी हुई पढ़ाई को नहीं लपक पाता वह नहीं पढ़ पाता है। पढ़ाई बच्चे के हाथ में ठीक से सहेजकर पकड़ाई जानी चाहिए। शिक्षक को प्रत्येक बच्चे पर ध्यान देना होता था। कक्षाओं में कुर्सी-मेज का प्रयोग भी बंद करवा दिया था।
बच्चों को शिक्षक व आंतरिक प्रबंधक बनाना
बड़ी कक्षा के बच्चे छोटी कक्षा के बच्चों को शिक्षक की तरह पढ़ाते थे। जिन बच्चों को जिस विषय में बेहतर जानकारी होती थी वे उस विषय को अपनी कक्षा या अपनी से ऊंची कक्षा के बच्चों को पढ़ाते थे। विद्यालय का आंतरिक प्रबंधन भी बच्चों को सौंपा गया, उनके द्वारा लिए गए निर्णय शिक्षकों को भी मानने होते थे।
....... आदि आदि कई अनुप्रयोग मैंने किये।
इन प्रयोगों के लिए मेरे मन में मनीषा शर्मा, रुपाली शर्मा, अजयवीर व डा० शीला डागा का विशेष स्थान है। इन लोगों ने कभी मेरा विरोध नहीं किया। सदैव सहयोग दिया। विद्यालय में दो सत्ता-केंद्रों के होने के बावजूद कभी भी एक पल के लिए महसूस नहीं हुआ कि दो सत्ता-केंद्र हैं। डा० शीला डागा ने कभी अपने अहंकार को तवज्जो नहीं दी। वे बच्चों व शिक्षिकाओं को प्रेम करतीं थीं और उनका विकास देखना चाहतीं थीं। उनके लिए या मेरे लिए एक छोटे से विद्यालय का प्रधानाचार्य या शिक्षाधिकारी होना एक तरह से अपनी पहचान खोकर ही समाज के लिए काम करना था। हम दोनो एक दूसरे के संपूरक की तरह काम करते थे। शिक्षा के मेरे अनुप्रयोगों में डा० शीला डागा सदैव साथ खड़ी रहीं। मेरे व संस्थापकों के बीच संघर्ष होने की स्थिति में बीच में ढाल की तरह खड़ी हो जाती थीं। दिल्ली विश्वविद्यालय की सेवानिवृत्त प्रोफेसर का प्रधानाचार्या के रूप में नाम ही उनके छोटे से विद्यालय को उस क्षेत्र में पहचान देता था, इसलिए डा० शीला डागा का नाम विद्यालय से जुड़े रहना संस्थापकों के लिए ताकत थी।
मेरा विद्यालय को छोड़ना
मेरी इच्छा थी कि लगभग एक साल रह कर इस विद्यालय में शैक्षिक अनुप्रयोगों को स्थापित करके जाऊं। किंतु जैसा सामान्यतयः भारत में विकृतिपूर्ण मानसिकता है कि जो काम नहीं करते हैं उनको काम करने वालों की लोकप्रियता से असुविधा होती है और अहंकार में चोट पहुंचती है। यहां भी ऐसा ही हुआ, संस्थापकों को मेरे अनुप्रयोगों की सफलता व उपलब्धियों को देखने के बावजूद मेरे अनुप्रयोगो से असुविधा होने लगी। मैं सोचता था कि जब तक बच्चे, कुछ शिक्षक-शिक्षिकाओं व डा० शीला डागा साथ दे रहे हैं, संस्थापकों के द्वारा किए जा रहे अपमानों में ध्यान दिए बिना बच्चों के विकास के लिए प्रयोग करते जाऊं। बच्चों का ही कुछ भला होगा, इनके माता-पिता की ही कुछ सोच बदल जाये।
मेरी एक आदत रही है, अब भी है कि मैं सामाजिक कामों को करते समय बिलकुल खुद को भूल कर काम करने लगता हूँ और अपने मान-अपमान व प्रतिष्ठा आदि की जरा सा भी परवाह नहीं करता। तो अधिकतर होता यह है कि बहुत लोग मेरे बारे में यह सोचने लगते हैं कि मेरी कोई विवशता है। ऐसे लोगों को यह लगता है कि आखिर कोई क्यूंकर किसी अनजान जगह जाकर, अनजान लोगों के लिए इतनी मेहनत से काम करेगा। ऐसे लोग जो सिर्फ पहचान, प्रतिष्ठा व सत्ता के लिए ही सामाजिक कामों का दिखावा करते हैं को यह समझ ही नही आता कि कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो निःस्वार्थ भाव से दूसरों के विकास में भारी असुविधाएं व अपमान झेलकर भी भागीदार बनने में आत्म-संतुष्टि की प्राप्ति करते हैं।
रात में विद्यालय में बच्चों के बैठने की बेंचों को जोड़कर सोना, बिना एक रुपया वेतन लिए विद्यालय के लिए काम करना, सुबह चार बजे जगकर लकड़ी के पटरों को जोड़कर बनाए गए जुगाड़ में बैठकर बिना सड़कों वाले गांवों में जाकर बच्चों को विद्यालय लाना, बच्चों के टिफिनों से दो-दो कौर रोटी लेकर अपने भोजन का इंतजाम करना आदि-आदि जैसे तौर-तरीकों को देखकर संस्थापकों के अंदर मेरे प्रति आदर भाव या प्रेम भाव जगने की बजाए मेरे प्रति उपेक्षा व तिरस्कार का भाव जगा। उनको यह लगा कि मैं इसी तरह की बेगार मजदूरी के ही लायक हूं, यही मेरा स्तर है। स्थितियाँ यहाँ तक पहुंची कि एक दिन मुझे अपने आपको वहां से अलग करना पड़ा। मेरे हटने के अगले ही दिन से मेरे सारे प्रयोग बंद कर दिए गए और विद्यालय को दूसरे स्कूलों की तरह बना दिया गया। यदि कोई बच्चा कभी यह कह देता कि विवेक सर बहुत अच्छे थे तो उसको दंड दिया जाता। अगले सत्र में बच्चों की संख्या बहुत अधिक घटी और दो-तीन साल में ही विद्यालय बंद हो गया। जबकि मेरे निकलने के बाद विद्यालय में कई कमरे बने, विद्यालय का भवन दुमंजिला हुआ, अच्छे चमकदार शौचालय बने, खेलकूद के सामान आदि भी आये।
मेरी जिद, अनुप्रयोगों को करते हुए संवाद-प्रक्रिया व असहयोगों के बावजूद हार न मानना आदि कारण रहे होगें कि बच्चों के साथ-साथ संवेदनशील शिक्षकों को भी बहुत कुछ सीखने समझने को मिला इसीलिए आजतक मुझे प्रेमभाव से याद करते हैं। मुझे आज भी याद आता है, उस विद्यालय में मेरा अंतिम दिन जब तीन सौ से अधिक बच्चे व शिक्षक-शिक्षिकाओं घंटो रोए थे। बच्चों व शिक्षको के परिवारों ने मेरे साथ पारिवारिक रिश्ते बनाए। उनमें से कुछ के परिवारों का अभिन्न भाग बन चुका हूँ। इन परिवारों के कारण मुझे यूँ लगता है जैसे बिलारी मेरी अपनी ही मातृभूमि है। जब भी बिलारी अपने इन सामाजिक परिवारों से मिलने जाता हूँ तो विद्यालय के संस्थापकों से भी औपचारिक मुलाकात करने जाता हूँ पता नहीं क्यों आज भी उनका व्यवहार उपेक्षा व अपमान से युक्त दिखावटी ही रहता है। संस्थापकों की पता नहीं कैसी मानसिकता व सोच है कि आज तक एक छोटी सी बात नहीं समझ पाए कि मैंने उनको दिया ही है, उनसे कुछ लिया नहीं। मेरे अहसान उन पर हैं, उनका कोई अहसान मुझ पर नहीं। उनको मेरे प्रति आभार व्यक्त करना चाहिए। यह मेरी विनम्रता व उदारता है कि मैं उनसे मिलने जाता हूँ।
जब भी मैं इस विद्यालय के संदर्भ में अपने अनुप्रयोगों के बारे में सोचता हूँ तो यह पाता हूँ कि अयोग्य शिक्षकों व न्यूनतम संसाधनों के बावजूद विद्यालय को जिस मुकाम तक लाकर मैने खड़ा किया था। यदि शिक्षा की समझ संस्थापकों के पास होती तो यह विद्यालय बंद होने की बजाए आज देश में शिक्षा के प्रतिष्ठित माडलों में से एक होता।
चलते-चलते
जिस इलाके में यह विद्यालय था वहां किसी छात्र द्वारा विज्ञान वर्ग से दसवीं कम अंकों से भी पास कर लेना बड़ी बात मानी जाती थी। हमारे पढ़ाए हुए बच्चों ने कुछ महीनों के इन प्रयोगों से प्राप्त अपने आत्मविश्वास व सोच के दम पर कुछ वर्षों बाद दसवीं व बारहवीं की बोर्ड परीक्षाओं के परिणामों में जिले स्तर पर प्रतिष्ठा प्राप्त की। जब कुछ महीनों का रिश्ता बच्चों में इतना आत्मविश्वास व सोच पैदा कर सकता है तो यदि बच्चों को अच्छे शिक्षक मिल जायें तो बच्चे क्या नहीं कर सकते हैं।
मेरा बहुत ही दृढ़ता से मानना है कि किसी समाज या देश का विकास इस बात पर निर्भर करता है कि वह देश या समाज अपने बच्चों से व्यवहार कैसा करता है, अपने बच्चों को शिक्षा कैसे देता है। मेरा यह भी मानना है कि शिक्षा बिना सुविधाओं के भी संभव है किंतु केवल सुविधाओं से शिक्षा संभव नहीं है। बहुत लोग रोज मैकाले की शिक्षा पद्धति की आलोचना करते हैं किंतु उनकी खुद की अपनी समझ भी मैकाले शिक्षा पद्धति की अनुकूलता से बाहर की नहीं होती।
इस प्रयोग की विस्तृत चर्चा मेरी किताब "मानसिक, सामाजिक, आर्थिक स्वराज्य की ओर" में की गई है। आप चाहें तो किताब भी पढ़ सकते हैं। किताब यहां से प्राप्त की जा सकती है - 'मानसिक, सामाजिक, आर्थिक स्वराज्य की ओर'
About author:
Vivek Umrao Glendenning "SAMAJIK YAYAVAR"
- The Founder and the Chief Editor, the Ground Report India group
- The Vice-Chancellor and founder, the Gokul Social University, a non-formal but the community university
- The Author, Books
He is an Indian citizen & permanent resident of Australia and a scholar, an author, a social-policy critic, a frequent social wayfarer, a social entrepreneur and a journalist;He has been exploring, understanding and implementing the ideas of social-economy, participatory local governance, education, citizen-media, ground-journalism, rural-journalism, freedom of expression, bureaucratic accountability, tribal development, village development, reliefs & rehabilitation, village revival and other.
For Ground Report India editions, Vivek had been organising national or semi-national tours for exploring ground realities covering 5000 to 15000 kilometres in one or two months to establish Ground Report India, a constructive ground journalism platform with social accountability.
He has written a book “मानसिक, सामाजिक, आर्थिक स्वराज्य की ओर” on various social issues, development community practices, water, agriculture, his groundworks & efforts and conditioning of thoughts & mind. Reviewers say it is a practical book which answers “What” “Why” “How” practically for the development and social solution in India.
आपके ज़ज़्बे और प्रयास को सलाम । आपके संस्मरण पढ़ कर बहुत कुछ आंखों के सामने तैर गया । कई वर्षों तक ग्रामीण विद्यालयों के एक प्रोजेक्ट से जुड़ा रहा । कई बार बहुत कुछ ऐसे दृश्य देखे कि दुखी हो गया । शायद हमने शिक्षा को सिर्फ रोज़गार का माध्यम समझ कर ही जीना सीखा है । यह बात विद्यालयों के संचालक, शिक्षक, से लेकर विद्यार्थियों , अभिभावकों तक सब पर लागू होती है ।
Very Good report on Bilari experiment that met an untimely end. Choice in study and continuous evaluation need to be followed in educational institutions for better prospect of the students.
Salutations to Vivek for his heroic efforts.