किसान और अर्थव्यवस्था

वह भी समय ही था जब स्कूल-कॉलेज नहीं थे, बैंक नहीं थे, थे भी तो किसान की पहुंच से दूर थे।बिना स्कूल जाए लोग खेती किसानी करना सीखें, मौसम के हिसाब से फसलों का चुनाव करना सीखें, एक दूसरे की सहायता की, समूह बनाए जितना प्रकृति से लिया उसे बढ़ा कर ही लौटाया। बच्चों का रिश्ता प्रकृति, पशुओं से सहज रूप से अपने आप ही जुड़ता चला जाता। खेतीं किसानी करने वाले परिवार जो अच्छा खा पी रहे , बाकी लोगों के लिए भी खाने का इंतजाम कर रहे, पशु पाल रहे। अपने और पशुओं के रहने की अच्छी व्यवस्था कर रहे। ऐसे परिवारों को किसी डिग्री, मैनेजमेंट से कैसे कमतर आँक सकते। लेकिन जिस देश में जहां हर व्यवस्था में जाति व्यवस्था सर घुसाए खड़ी हो जिस व्यवस्था में सदियों से यह तय होता आ रहा कि जो मेहनती है वह पूरा जीवन शोषण और दुत्कार है दूसरी और वह देखता है की जो मेहनत नहीं कर रहे, झूठ, दलाली , नौकरशाही आदि में भोग के साधन बड़ी मान सम्मान के दिखावे के साथ जुटा रहे, सेवक के नाम पर अधिकारों का दुरुपयोग उसी को दबाने में कर रहे। जहां इस दिखावे के लालच में एक एक पद के लिए लाखों लोग अपने जीवन के कई-कई साल बर्बाद कर देते है।

एक वह व्यक्ति जो खेतीं किसानी कर सकता उसका गुलामी की और ले जाती शिक्षा का कोई मतलब नहीं लेकिन केवल क्लर्क, फौजी, सिपाही की नौकरी प्राप्त करने तक कि केवल अर्य्हता के लिए लाखों रुपए समय स्कूलों, ट्यूशनों आदि में फूंक दिए जाते है।
एक किसान जिसकी पैदा किया गया आलू टमाटर प्याज अन्य सब्जियां एवं अन्य कच्चा माल कौड़ियों के दाम बिक जाती है वहीं प्रोसेस होकर बाजार में कई सौ गुना दाम पर बिकता है।
एक किसान जिसे रासायनिक उर्वरकों की बिल्कुल आवश्यकता नहीं वह हजारों रुपए इन पर फूंक देता है। बाजार से कदमताल के चक्कर में किसान ऐसा फंसा की खुद अपना और अपनी जमीन का दुश्मन बन बैठा। कितने ही लड़को को कहते सुनता हूँ जमीन के बदले में नौकरी और पैसा मिल रहा तो क्या बुरा है। एक पूंजीवादी व्यवस्था के लिए इससे अच्छी बात क्या होगी जहाँ देश एक फैक्ट्री हो जाए और देश के किसान उसके नौकर हो जाए।

जब सूबे का मुख्यमंत्री कहता है की हमने किसानों से बिजली के लिए कुछ नहीं कहा तब लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि चोरी को बढ़ावा दे रहा। किसान जो अन्न उगा रहा , रख रखाव कर रहा , देश दुनिया के लिए भोजन, कपड़े आदि की व्यवस्था कर रहा सारा तथाकथित विकास जिसके शोषण के दम पर खड़ा है वह बिजली चोर हो गया। वह अच्छा खा पी ओढ़ नहीं सकता। इस नैतिकता की दुहाई वो जमात दे रही जिसके लिए बिजली का उपयोग फोन, लैपटॉप चार्ज करने , ऐसी, कूलर, वाशिंग मशीन, फ्रीज आदि उपकरण चलाने भर तक बिना एक बूंद पर्यावरण के बारे में सोचे बिना करते है। बिजली जैसे नोटों से पैदा हो जाती हो। खाना जैसे नोटों से पैदा होता हो, कपड़े जैसे नोटों से पैदा होते हो , पानी जैसे नोटों से बनता हो। केवल समझ या मन में यह सब न कर पाने की टीस भी रखते तो बेहूदी बात कहने से पहले दस बार सोचते।

चलते चलते –

गाँधी जी इन मंसूबों को अच्छे से समझते थे। वह देश को गांव की नजर से देखते थे। वह समझते बूझते थे कि इस देश की आत्मा गांव और किसान है। इनका बाजारीकरण करने के बजाय यहां से सीखने और प्रयोग करने की जरूरत है। वह किसान को नौकर बनने के की बजाय कुटीर उद्योगों और प्राकृतिक खेतीं के माध्यम से मालिक बनने को कह रहे थे। देश-दुनिया पर्यावरण और बेहतर जीवन जा रास्ता इन्हीं अल्टरनेट व्यवस्थाओं से होता हुआ निकेलगा जिसके केंद्र में किसान और कृषि होंगे।
किसानों के पास हमेशा व्यवस्था बदल सकने की ताकत रहीं है, किसान आपकी दयादृष्टि पर नहीं है। किसान की दयादृष्टि पर आप है। देश की अर्थव्यवस्था पहले भी खेती किसानी पर निर्भर थी, आज भी है और आगे भी रहेगी। यह हमें तय करना है की हम किसानों के शोषण पर आधारित व्यवस्था, देश को नरकीय स्थिति में ले जाने के साथ है अथवा उस व्यवस्था के जिसमें किसान और जमीन जो देश की अर्थव्यवस्था का आधार है वह पोषण और लाभ की स्थिति में होने है।

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2 Responses to किसान और अर्थव्यवस्था

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