बाबरी मस्ज़िद-राममंदिर विवादः न्याय ज़रूरी

राम पुनियानी

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एक लंबे इंतज़ार के बाद, उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जेएस खेहर ने कहा है कि काफी समय से लंबित रामजन्मभूमि बाबरी मस्ज़िद विवाद का हल न्यायालय के बाहर निकाला जाना चाहिए। उन्होंने इस मसले को सुलझाने के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाने का प्रस्ताव भी दिया। संघ परिवार के अधिकांश सदस्यों ने खेहर के इस कदम की प्रशंसा की। इसके विपरीत, मुस्लिम नेताओं के एक बड़े तबके और अन्यों ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि उच्चतम न्यायालय समझौते से समस्या का हल निकालने की बात क्यों कर रहा है, जबकि लोग न्यायालय में जाते ही इसलिए हैं ताकि उन्हें न्याय मिल सके।

उच्चतम न्यायालय, बाबरी मस्जिद प्रकरण में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सन 2010 के निर्णय के विरूद्ध की गई अपील की सुनवाई कर रहा है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि विवादित भूमि को तीन भागों में विभाजित कर दिया जाए। यह निर्णय भी सभी पक्षों के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास अधिक था, न्याय करने का कम। इस भूमि पर निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड ने दावा किया था। उच्च न्यायालय ने यह कहा कि भूमि के तीन हिस्से कर उसे निर्मोही अखाड़ा, सुन्नी वक्फ बोर्ड और रामलला विराजमान के बीच बराबर-बराबर बांट दिया जाना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा कि चूंकि हिन्दू यह मानते हैं कि विवादित स्थान भगवान राम की जन्मभूमि है इसलिए जिस स्थान पर मस्ज़िद का मुख्य गुम्बद था, उसके नीचे की ज़मीन हिन्दुओं को आवंटित की जानी चाहिए। इसके बाद, विजयी मुद्रा में आरएसएस के मुखिया ने कहा था कि अब उस स्थल पर एक भव्य राममंदिर के निर्माण का रास्ता साफ हो गया है और इस ‘राष्ट्रीय कार्य’ में सभी पक्षों को सहयोग करना चाहिए।

कई लोगों को इस निर्णय से बहुत धक्का पहुंचा था। इन लोगों का कहना था कि उस स्थल पर बाबरी मस्ज़िद लगभग 500 सालों से खड़ी थी और वह स्थान सुन्नी वक्फ बोर्ड के कब्ज़े में था। विवाद की शुरूआत 19वीं सदी में हुई। सन 1885 में अदालत ने हिन्दुओं को मस्ज़िद के बाहर स्थित चबूतरे पर एक शेड का निर्माण करने की अनुमति देने से भी इंकार कर दिया था। इसके बाद, सन 1949 में मस्ज़िद के अंदर ज़बरदस्ती रामलला की एक मूर्ति स्थापित कर दी गई और इसके बाद से विवाद और बढ़ गया। मूर्ति की स्थापना एक सोचे-समझे षड़यंत्र के तहत की गई थी। यद्यपि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसका विरोध किया था परंतु उत्तरप्रदेश प्रशासन ने उनकी एक न सुनी। इसके बाद, मस्ज़िद के मुख्य दरवाजे़ को सील कर दिया गया। सन 1996 में दक्षिणपंथियों के दबाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मस्ज़िद के ताले खुलवा दिए।

उस समय तक इस मुद्दे पर विहिप आंदोलन चला रही थी। इसके पश्चात, लालकृष्ण आडवाणी ने इस मुद्दे को   हथिया लिया। वे उस समय भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और उन्हें यह महसूस हुआ कि इस मुद्दे से उनकी पार्टी को राजनीतिक लाभ मिल सकता है। इस मुद्दे का इस्तेमाल हिन्दू मतों का ध्रुवीकरण करने के लिए किया गया। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद, आडवाणी के नेतृत्व में देश भर में रथयात्रा निकाली गई। जो लोग अन्य पिछड़ा वर्गों को आरक्षण देने के खिलाफ थे, उन्होंने इस आंदोलन में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया।

भाजपा ने यद्यपि मंडल आयोग की रपट को लागू किए जाने का प्रत्यक्ष विरोध नहीं किया परंतु उसने इसके विरोधियों को राममंदिर आंदोलन की छतरी तले लामबंद करने की भरपूर कोशिश की, जिसमें वह सफल भी रही। कुछ टिप्पणीकारों ने इसे मंडल बनाम कमंडल की राजनीति बताया।

इस आंदोलन ने देश में सामाजिक सद्भाव और शांति को भंग किया। इस आंदोलन का चरम था बाबरी मस्ज़िद का ध्वंस। इसमें आरएसएस ने प्रमुख भूमिका निभाई और तत्कालीन प्रधानमंत्री पीव्ही नरसिम्हाराव चुप्पी साधे रहे। स्थानीय प्रशासन ने कोई कार्यवाही नहीं की और राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने वहां लोगों को इकट्ठा होने दिया। यह उन्होंने इस तथ्य के बावजूद किया कि उन्होंने उच्चतम न्यायालय से यह वायदा किया था कि बाबरी मस्जिद की रक्षा की जाएगी। जब बाबरी मस्ज़िद गिराई जा रही थी, उस समय नरसिम्हाराव ने अपने आपको पूजा के कमरे में बंद कर लिया। बाद में उन्होंने यह वायदा किया कि ठीक उसी स्थान पर मस्ज़िद का पुनर्निमाण किया जाएगा।

इसके पश्चात्, तथाकथित पुरातत्वविदों ने, जो दरअसल कारसेवक ही थे, यह साबित करने का प्रयास किया कि मस्जिद की नींव, मंदिर के अवशेषों पर खड़ी है। विवादित भूमि पर किसी समय मंदिर था, इसका कोई प्रमाणिक ऐतिहासिक या पुरातत्वीय सबूत उपलब्ध नहीं है। यही कारण है कि उच्च न्यायालय को दो-तिहाई भूमि हिन्दुओं को सौंपने के अपने निर्णय का आधार ‘आस्था’ को बनाना पड़ा। बाबरी मस्ज़िद का ध्वंस, आज़ाद भारत के इतिहास का सबसे बड़ा अपराध था परंतु इसके दोषियों को आज तक सज़ा नहीं दी जा सकी है।

लिब्रहान आयोग ने बाबरी मस्ज़िद के ध्वंस को षड़यंत्र का नतीजा तो बताया परंतु दुर्भाग्यवश उसने अपनी रपट प्रस्तुत करने में बहुत देरी कर दी। जले पर नमक छिड़कते हुए इस अपराध के बाद, आडवाणी और उनके साथी और मज़बूत होकर उभरे। बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के बाद देश भर में भीषण सांप्रदायिक हिंसा हुई। मुंबई, भोपाल और सूरत में सैंकड़ों लोगों ने अपनी जानें गवांईं। दंगाईयों को भी आज तक सज़ा नहीं मिल सकी है।

अदालतें न्याय देने के लिए बनाई जाती हैं। यह दुःखद है कि उच्च न्यायालय ने सबूतों की बजाए आस्था को अपने निर्णय का आधार बनाया। उच्चतम न्यायालय देश की सबसे बड़ी न्यायिक संस्था है। उससे यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह पूरे मुद्दे को केवल और केवल कानूनी दृष्टि से देखेगी और अब तक हुई भूलों को सुधारेगी। अगर अदालत ही समझौते की बात करने लगेगी तो न्याय कहां से होगा। इस मुद्दे पर हिन्दू समूहों ने अभी से यह कहना शुरू कर दिया है कि मुसलमानों को उस स्थान पर राममंदिर बनने देना चाहिए और उन्हें मस्ज़िद के लिए अन्यत्र भूमि दे दी जाएगी। जहां तक सत्ता की ताकत का संबंध है, दोनों पक्षों में कोई तुलना नहीं की जा सकती।

भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी और कई अन्यों ने यह धमकी दी है कि अगर मुसलमान विवादित भूमि पर अपना दावा नहीं छोड़ते तो संसद में भाजपा के सदस्यों की पर्याप्त संख्या होने के बाद विधेयक लाकर भूमि पर राममंदिर निर्माण की राह प्रशस्त की जाएगी। इस तरह की धमकी देना घोर अनैतिक है। सभी पक्षों के साथ न्याय किया जाना चाहिए। अभी से कई मस्ज़िदों को मंदिरों में बदलने की बात कही जा रही है। अगर फैसला अदालत के बाहर होगा तो हिन्दू राष्ट्रवादी, जो दूसरे पक्ष से कहीं अधिक आक्रामक और शक्तिशाली हैं, अपनी मनमानी करेंगे। दूसरी मस्ज़िदों को मंदिर में बदलने के प्रयासों को तुरंत रोका जाना चाहिए। ये अनावश्यक और मुसलमानों को आतंकित करने वाले हैं।

(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

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