गौतम बुद्ध का अमृत और वेदांती पाखण्ड का जहर –Sanjay Jothe

संजय जोठे

ब्रिटेन की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतरराष्ट्रीय विकास में परास्नातक हैं, वर्तमान में TISS मुम्बई से पीएचडी कर रहे हैं। फोर्ड फाउंडेशन इंटरनेशनल फेलो हैं और लीड इंडिया फेलो हैं। मध्यप्रदेेश के भोपाल में निवास करते हैं।

सामाजिक विकास के मुद्दों सहित पर पिछले 14 वर्षों से विभिन्न संस्थाओं के साथ कार्यरत है। ज्योतिबा फुले पर इनकी एक किताब प्रकाशित हो चुकी है और एक अन्य किताब प्रकाशनाधीन है। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं और ब्लॉग्स में भारतीय अध्यात्म और समाज सेवा/कार्य सहित सांस्कृतिक विमर्श के मुद्दों पर शोध आधारित लेखन में संलग्न हैं।

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गौतम बुद्ध ने जिस तरह से अनत्ता (अनात्मा) और निर्वाण की परिभाषा दी है उसे चुराकर हिन्दू वेदान्त ने एक उधार धर्म निर्मित किया है. यह दुनिया की सबसे बड़ी और खतरनाक दार्शनिक चोरी है. इस षड्यंत्र को समझना और इस चोरी को पकड़ना बड़ा कठिन है. लेकिन थोड़ा विचारपूर्वक विश्लेषण किया जाए तो इसे पकड़ा जा सकता है और समझा जा सकता है. इसके लिए हमें वेदांती रहस्यवाद का पोस्टमार्टम करना होगा. आइये ये पोस्टमार्टम करते हैं.

हिन्दू धर्म या किसी भी अन्य धर्म की आत्मा और परमात्मा की धारणा पर खड़े रहस्यवाद को गौर से देखिये. उसका आत्यंतिक चमत्कार या उसकी अंतिम उंचाई जिस तरह से अभिव्यक्त होती है और इस उंचाई तक आने की जो प्रस्तावना या मार्ग बताया गया है वह परस्पर विरोधी है. विशेष रूप से भारतीय वेदान्त में जिस अर्थ में रहस्यवाद के आत्यंतिक शिखर परिभाषित किये गये हैं वे परिभाषाएं विरोधाभासों से होती हुई पाखण्ड और षड्यंत्र में प्रवेश कर जाती हैं. असल में अध्यात्म या रहस्यवाद द्वारा जिस तरह की व्यक्तिगत और सामूहिक मुक्ति (मोक्ष या साल्वेशन नहीं बल्कि निर्भार होने या खुश रह सकने के अर्थ में) की संभावना दिखाई जाती है, उसी संभावना की वेदांत द्वारा ह्त्या भी की जाती है. यह बहुत बड़ा खेल है जो हर आस्तिक धर्म में बहुत गहराई से चलता रहा है और आजकल बढ़ रहा है. खासकर हिन्दू वेदान्त ने इस पाखण्ड और षड्यंत्र में चार चाँद लगा दिए हैं.

आजकल की युवा पीढ़ी को इस बात को बहुत गहराई से समझना चाहिए. शहरी मध्यम वर्ग की मनोवैज्ञानिक और सामाजिक असुरक्षाओं का शोषण करने वाले इस अध्यात्म को समझना बहुत जरुरी है. आइये इस विषय में प्रवेश करें.

वेदान्तिक या आत्मा-परमात्मा- पुनर्जन्म वादी रहस्यवाद की यह उंचाई क्या है? बहुत सरल शब्दों में कहें तो शरीर, मन और समय मात्र से जागृत दूरी बन जाना ही समस्त रहस्यवादी अभिव्यक्तियों का कुल जमा सार है. इसे और सरल करें तो कहेंगे कि जब शरीर, स्मृतियों, कल्पनाओं, अभीप्साओं सहित इन सबसे जन्मने वाले आत्मभाव (मैं के होने के भाव या खुदी के अहसास) पर विराम लग जाता है तब वह अवस्था आती है जिसे समाधि या तुरीयावस्था कहते हैं. इस तरह के ‘नाम रूप और अस्तित्व की हीनता’ ही वह निर्भार होना या मुक्ति है जिसे अतिरंजित ढंग से महत्त्व दिया गया है. इसे बहुत बढ़ा चढाकर बखान किया जाता है और इसी की प्रशंसा में सारे धर्मों के सब शास्त्र भरे हुए हैं. https://littlescholarsnyc.com

निश्चित ही ये अवस्था बहुत आनंददायक या समाधानकारी है, इसका अनुमान हर व्यक्ति को होता ही रहता है. ये कोई ख़ास बात या दुर्लभ चमत्कार नहीं है. आप दैनिक जीवन में इस मोक्ष या निर्वाण से रोज गुजरते हैं. किसी आनन्द या भय या सावधानी के क्षण में शरीर, मन, समय आदि पीछे छूट जाते हैं तब निर्वाण साकार हो उठता है. निर्वाण का अर्थ है “कोई दिशा न होना” निर्वाण शब्द नि+वाण से बनता है. वाण का अर्थ है – दिशा. इस तरह निर्वाण का सरल अर्थ है कि आपके शरीर और मन दोनों की स्थान या समय में कोई दिशा न रही, दोनों निर्विकल्प अवधान की स्थिति में शुद्धतम वर्तमान में आ गये. चेतना किसी दिशा में कुछ खोज नहीं रही बल्कि निर्विकल्प रूप से सब चीजों का जागृत संज्ञान ले रही है, मतलब कि होश है लकिन इस होश का मालिक कोई नहीं है. जैसे कि कोई पर्वत पर खड़े होकर समंदर के विस्तार को बिना नाम दिए या पसंद नापसंद का निर्णय दिए बिना चुपचाप देखता/देखती हो ऐसे में भूत भविष्य, शरीर, मन सब शून्य हो जाता है. यही बौद्धों का ध्यान है. लेकिन श्रमणों के इस ध्यान या सामायिक को हिन्दू वेदान्तियों ने ‘धारणा और योग’ के मायाजाल की बाढ़ में डुबाकर बर्बाद कर दिया है, बुद्ध द्वारा दी गयी निर्वाण की टेक्नोलोजी को सामाजिक नियंत्रण का हथियार बनाकर बर्बाद कर डाला है.

हिन्दू वेदान्त के अनुसार यह निर्विकल्प अवधान या जागृत चेतना का एक ख़ास व्यक्तित्व है. बौद्ध दर्शन और बौद्ध व्यवहार में इस चेतना का कोई व्यक्तित्व नहीं होता, बौद्धों के लिए यह चेतना “अनात्मा” है. लेकिन हिन्दुओं के लिए यह सनातन शाश्वत और ठोस “आत्मा” है. आत्मा का कुल जमा अर्थ “व्यक्तित्व” या “सेल्फ” या “स्व” होता है. हम अक्सर आत्मा की हिन्दू परिभाषा को ऊर्जा या प्राण से कन्फ्यूज करते हैं, लेकिन हिन्दू अर्थ में आत्मा का अर्थ ऊर्जा या चेतना नहीं होता है बल्कि एक ठोस व्यक्तित्व से होता है जो एक से दुसरे गर्भ में अनंत काल तक छलांग लगाता रहता है. बौद्ध दर्शन के अनुसार यह बात बिलकुल गलत है, बौद्धों के लिए न तो ऐसी आत्मा होती है न ऐसी छलांग (पुनर्जन्म) होता है और इसीलिये इस आत्मा और इसकी उछलकूद (पुनर्जन्म) को नियंत्रित या संचालित करने वाला कोई परमात्मा भी नहीं होता है. गौतम बुद्ध के अनुसार यही समझ अनत्ता और शून्य का सार है.

यहाँ मैं क्यों कह रहा हूँ कि मुक्ति की वेदान्तिक परिभाषा और उसका प्रायोगिक मार्ग परस्पर विरोधी हैं? इसका एक बहुत आसान सा कारण है. वह कारण समझा जा सकता है. वेदान्त के अनुसार मुक्ति की पूरी टेक्नोलोजी का और उसके पूरे प्रेस्क्रिप्शन का विश्लेषण कीजिये आपको वेदान्त का पाखण्ड और षड्यंत्र तुरंत समझ में आ जाएगा. आइये शुरू करते हैं.

वेदान्तिक अर्थ में बंधन का अर्थ है मोह, माया. अब मोह का अर्थ है अपने शरीर, वस्त्रों, सम्पत्ति, सम्बन्धियों, पुत्र, पत्नी, जमीन जायदाद इत्यादि से राग इसी तरह अपनी खुद की पहचान, ज्ञान, श्रेष्ठता, संस्कार, अतीत, स्वप्न, योजनाओं, कल्पनाओं और भविष्य से राग. इसी क्रम में माया का अर्थ है जो नहीं है उसको होता हुआ जानना माया है. इस प्रकार वेदान्त के लिए शरीर और मन को सुखी करने वाली हर चीज से राग या लगाव रखना बंधन है, या स्वयं को किसी अन्य विधा वस्तु या तथ्य को अनावश्यक रूप से अस्तित्ववान, श्रेष्ठ अश्रेष्ठ या विशिष्ठ जानना माया है. अब ये मोह और माया ही मिलाकर बंधन अर्थात “तादात्म्य” अर्थात “अटेचमेंट” का निर्माण करते हैं और हम उसमे अपनी मर्जी से उलझे रहते हैं. यही मर्जी से उलझे रहना ही बंधन है. बुद्ध और वेदांत दोनों के लिए इस बंधन से क्रमशः छूटने का अभ्यास ही साधना है. और इससे पूरी तरह छूट जाना मुक्ति या मोक्ष या निर्वाण है. यहाँ तक बात एकदम आसान है. सभी समझते हैं.

इसका मतलब ये हुआ कि शरीर और मन के सुख के जितने साधन हैं उनसे एक दूरी निर्मित हो जाना ही मोक्ष है. यहाँ ध्यान दीजिये अगर यह दूरी अस्तित्वगत रूप से संभव है तभी यह दूरी पैदा की जा सकती है या बढाई जा सकती है. अगर अस्तित्वगत रूप से यह दूरी संभव नहीं है तो न तो पैदा की जा सकती है न बढाई जा सकती है. अगर हिन्दू वेदान्त और बौद्ध धर्म मोक्ष या निर्वाण को मानता है तो इसका अर्थ है कि दोनों के लिए यह दूरी संभव है इसीलिये वे इसे बढाते जाने की बात करते हैं. अब ध्यान से देखिये कि इसका क्या अर्थ है.

अगर दूरी संभव है तो इसका अर्थ हुआ कि चेतना या होश (जो कि आपमें अभी काम कर रहा है) वह न तो शरीर है न ही मन है. अगर वह शरीर और मन ही होता तो शरीर और मन से उसकी दूरी नहीं निर्मित की जा सकती थी, उदहारण के लिए मिट्टी ही ईंट है तो मिट्टी कभी ईंट होने की पहचान से मुक्त नहीं हो सकती. लेकिन मिट्टी ईंट नहीं है तो ही वह ईंट होने के झमेले से मुक्त होकर वापस मिट्टी बन सकती है. इसका मतलब हुआ कि मोक्ष या निर्वाण की संभावना ही तब है जबकि चेतना को शरीर और मन द्वारा दिए गये व्यक्तित्व या स्व से दूर किया जा सके. अर्थात शरीर और मन द्वारा दिए गये व्यक्तित्व या स्व या आत्म से दूर होना ही निर्वाण या मोक्ष की संभावना का आधार है. यह बात बौद्ध दर्शन में विस्तार से समझाई गयी है और इसी को लक्ष्य के रूप में वेदान्त ने भी चुराया है. बौद्ध दर्शन में इस लक्ष्य के संधान का जो मार्ग है वह एकदम इसी तर्क पर आधारित है और सीधा है. लेकिन वेदान्त का मार्ग एकदम उलटा और पाखण्ड पूर्ण है. यह कहना ज्यादा सही होगा कि वेदान्त ने बुद्ध के इस लक्ष्य और इसकी टेक्नोलोजी को चुराते हुए बौद्ध दर्शन से उलटा मार्ग बुना ताकि वेदांती हिन्दू धर्म पर चोरी का आरोप न लगे. लेकिन इस चोरी को पकड़ना आसान है. इसे कैसे पकड़ा जा सकता है?

ये बहुत आसान है. समझिये, निर्वाण या मोक्ष की तरफ बढ़ते जाने का अर्थ है भौतिक शरीर और मन सहित भौतिक और मानसिक संपत्तियों या परिग्रह (मैं और मेरा) से दूर होते जाना. उन पर अपनी मालकियत को कम से कम करते जाना. मतलब कि सुख/दुःख और सुख/दुःख के साधनों पर अपनी मालकियत और चाह को कम करते जाना. इसका ये अर्थ नहीं है कि सुख को नकार देना बल्कि हकीकत ये है कि ‘मालकियत’ नकारते हुए ही सच में सुखी रहा जा सकता है. जैसे पक्षी किसी पेड़ पर मालकियत का दावा किये बिना भी उसके सौन्दर्य और फलों का सुख ले सकता है वैसा ही हम भी कर सकते हैं. लेकिन हम पक्षियों की तरह ऐसा क्यों नहीं कर सकते? इसके दो बड़े कारण हैं. पहला ये कि हम उस पेड़ और उसके सौंदर्य पर मालकियत चाहते हैं और उससे भी बड़ा कारण ये कि इस मालकियत को संभव समझने वाली सत्ता या व्यक्तित्व को हम एक ठोस रचना या आत्मा मानते हैं. मतलब ये कि न सिर्फ हम मालकियत का दावा करते हैं बल्कि मालिक को भी सनातन या शाश्वत मानने की भूल करते हैं. इस बिंदु पर आकर वेदान्तिक पाखण्ड एकदम नंगा हो जाता है. आइये इसे भी समझें.

बौद्ध दर्शन के अनुसार वह पक्षी जो पेड़ के फलों और उसकी सुरक्षा का आनन्द ले रहा है उसका कोई सनातन या ठोस व्यक्तित्व नहीं है. उसका शरीर और मन दोनों ही क्षणभंगुर है. जैसे पेड़ का फल या पत्ता मौत/पेड़ से गिरने के बाद मिट्टी में मिलकर दूसरे पेड़ों या जंतुओं का चारा/भोजन/शरीर बन जाता है उसी तरह उस पक्षी का मन भी है जो मरने के बाद आसपास के वातावरण में धुवें की तरह फ़ैल जाता है और अगले आने वाले मनों के लिए चारा/भोजन बन जाता है. इस तरह शरीर और मन दोनों की समानांतर “फ़ूड चेन” होती हैं. इसमें आपका शरीर करोड़ों मर चुके लोगों, पेड़ों, जंतुओं के शरीर के टोकरी भर अवशेषों से बना है और आपका मन भी ऐसे ही करोड़ों लोगों के बिखर चुके मनों/विचारों के धुंवे के बादल से एक मुट्ठी धुंआ इकट्ठा करके बना है. इस तरह आपका शरीर भी प्रकृति से आया है और मन भी, आपका अपना कुछ नहीं, आप खुद भी कहीं नहीं हैं. इन दोनों बाहरी चीजों के मिलने से जो शरीर-मन का समीकरण बना है उसमें भी आपका समाज, धर्म, राज्य और परिवार एक ख़ास ढंग से रंग भरता है और एक झूठा व्यक्तित्व पैदा करता है. यही वह ‘व्यक्तित्व’ या ‘स्व’ है जिसे हम अपने होने के रूप में परिभाषित करते हैं. लेकिन सनातन या शाश्वत बिलकुल नहीं है.

यह एकदम सांयोगिक है. आप अगर अभी हिन्दू घर में पैदा हुए हैं तो आपका ‘स्व’ या ‘व्यक्तित्व’ हिन्दू का है, आपको बचपन से ही मुसलमान परिवार रख दिया जाता तो आप मुसलमान का ‘स्व’ या ‘व्यक्तित्व’ बनाकर बैठ जाते. इस तरह कोई सनातन स्व या “आत्मा” या व्यक्तित्व नहीं है. सब क्षणभंगुर, परनिर्भर और संयोग से बना हुआ है ऐसे व्यक्तित्व की कोई ठोस या अनिवार्य या अनंताकालिक पहचान नहीं होती जो सदियों सदियों तक निरंतरता बनाये रखे. ऐसी निरंतरता (पुनर्जन्म) एक झूठ है. ऐसा व्यक्तिव सांयोगिक और क्षणभंगुर है, ये न सिर्फ जन्म और मृत्यु के बीच बदलता है बल्कि यह जीवन के दौरान भी तेजी से बदलता है. आप कोई ट्रेनिंग लेते हैं या किसी से बातचीत करते हैं या कोई नया अनुभव लेते हैं तो ये “आत्म” या “स्व” बदलता है. इसी को सेल्फ इम्प्रूवमेंट कहते हैं. यही व्यक्तित्व विकास या शिक्षा का आधार है. अगर स्व सनातन और अपारगम्य है तो शिक्षा और आत्मा विकास असंभव है तब सीखना सिखाना असंभव है. जैसे शरीर का भोजन बदलकर शरीर बदला जा सकता है वैसे ही मन का भोजन बदलकर मन (व्यक्तित्व, आत्म) को भी बदला या सुधारा जा सकता है.

इस अर्थ में चूँकि शरीर भी बाहर से आ रहा है और मन या स्व भी बाहर से आ रहा है और उनमे समाज भी बाहर से रंग भर रहा है इसलिए इस व्यक्तित्व का अपना कुछ भी नहीं है. सब उधार और बाहरी है. उसका अपना कोई सनातन या शाश्वत गुण या अस्तित्व नहीं है. वह जिस भी परिस्थिति में फंस जाए वैसा ही मन या शरीर बना लेगा. इसीलिये ऐसे मन या शरीर से और इसके समुच्चय स्वरुप “स्व या आत्म व्यक्तित्व” से दूरी बनाना संभव है. अगर ऐसा मन शरीर और व्यक्तित्व सनातन या शाश्वत है तो ये दूरी असंभव है, तटस्थता या निर्भार होना असंभव है.

अब दुबारा देखिये. बौद्ध दर्शन कहता है कि यह शरीर मन और इसका मिला जुला ढेर यानी यह व्यक्तित्व सब बाहरी और उधार माल है इसीलिये इसे और इसे सुख दुःख देने वाली चीजें भी बाहरी हैं. तब भीतर क्या है? बुद्ध कहते हैं कि भीतर शून्य है. यह बहुत बारीक बात है. असल में जो चेतना या होश इन सबको जान रहा है वह स्वयं में निर्वाण है. वह चेतना साक्षी या दृष्टा नहीं है बल्कि वह कोरा होश है. और यह होश पेड़ों में भी है जानवरों और इंसानों में भी है. उस चेतना या होश की संभावना के स्तर पर पूरे जीव जगत में कहीं कोई अंतर या भेदभाव नहीं है. इसीलिये बुद्ध और बौध दर्शन मनुष्य-मनुष्य ही नहीं बल्कि मनुष्य-पशु और मनुष्य-पादप विभाजन को भी खत्म कर देते हैं और एक सर्वसमावेशी एकता बनाकर सिद्ध कर देते हैं. इस प्रकार चूँकि बुद्ध के लिए कोई आत्मा या व्यक्तित्व (शरीर+स्व) है ही नहीं इसीलिये निर्वाण संभव है. न केवल संभव है बल्कि वही सच्चाई है और ‘निर्वाण हीनता’ एक झूठ है. इसीलिये बुद्ध निर्वाण को मानव का स्वभाव कहते हैं.

लेकिन हिन्दू वेदान्त क्या कहता है? वेदान्त बुद्ध की आधी बात स्वीकार करता है और शेष आधी बात को नकारता है. हालाँकि नकार दी गयी शेष आधी बात से आने वाली टेक्नोलोजी को चुराकर उस पर अपना महल जरुर बनाता है लेकिन अपनी विशिष्ठता और मौलिकता की घोषणा करने के लिए एक षड्यंत्र भी बुनता है. वह षड्यंत्र क्या है? वह षड्यंत्र यह है कि अनत्ता या “अनात्मा” के दर्शन से आए वाली टेक्नोलोजी को इस्तेमाल करो और उसे “आत्मा” का नाम दे दो. मतलब ये कि शरीर और मन सहित आत्मा की क्षणभंगुरता के आधार पर शरीर और मन से दूरी बनाने वाले अभ्यास बौद्धों से सीख लो लेकिन उन्हें नाम ऐसा दो कि ये “अनात्मा की अनुभूति” का नहीं बल्कि “आत्मा के साक्षात्कार” करने का अभ्यास है.

इसे ठीक से समझिये, जब अष्टावक्र, ओशो रजनीश, मोरारी बापू, रविशंकर, जग्गी वासुदेव, आसाराम बापू जैसे वेदांती बाबा ध्यान करवाते हुए ये कहते हैं कि शरीर को शिथिल करो, मन को शिथिल करो, मन और शरीर दोनों को भूल जाओ और विश्राम में प्रवेश करो तब असल में वे बौद्ध टेक्नोलोजी का ही प्रयोग कर रहे हैं. वे असल में प्रेक्टिकली यही कह रहे हैं कि शरीर तुम्हारा नहीं और व्यक्तित्व भी तुम्हारा नहीं है. और इसी क्रम में तुम भी तुम्हारे नहीं हो तो फिर झंझट क्या है? इन्हें भूल जाओ और सुखी हो जाओ. यही अष्टावक्र का महावचन है जो कि असल में बुद्ध की टेक्नोलोजी से चुराया गया है. “तू शरीर नहीं है, मन नहीं है, संस्कार नहीं है, स्मृति, कल्पना, भूत भविष्य और व्यक्तित्व नहीं है, – ऐसा जान ले और मुक्त हो जा” यही अष्टावक्र का जनक को उपदेश है. लेकिन अष्टावक्र या ओशो या आसाराम बापू जब ऐसे वेदान्त का पाठ पढ़ाते हैं तो एक भयानक गलती भी करते जाते हैं. उसी गलती से पकड में आता है कि पूरा वेदान्त बौद्ध दर्शन से चुराया गया है. आइये इस गलती को पकड़ते हैं. ये गलती क्या है?

बुद्ध कहते हैं कि शरीर, मन, व्यक्तित्व और यह झूठी सत्ता (आत्मा) सब उधार हैं और बाहर से आये हैं इसीलिये इनको निरस्त कर देना संभव है. वेदान्त भी आधी बात मानता है कि शरीर और मन को निरस्त किया जा सकता है. लेकिन बुद्ध इसके आगे जाकर कहते हैं कि इस निरस्तीकरण के बाद कुछ शेष नहीं रहता, न अनुभव न ही अनुभोक्ता सब कुछ शून्य हो जाता है. यहाँ आकर वेदांती पंडित घबरा जाते हैं. हालाँकि वे निर्वाण की बाकी टेक्नोलोजी को चुराकर प्रयोग जरुर करते हैं लेकिन उसके तर्क की ह्त्या करके लोगों को उलझा देते हैं. इसी उलझन का नाम हिन्दू धर्म है. ये उलझन क्या है? गौर से देखिये. वेदांती पंडित कहते हैं कि यह मुक्ति संभव है और इस मुक्ति का आनंद लेने वाली सत्ता या आत्मा अजर अमर है. अब यह भयानक पाखंडी और विरोधाभासी बात है.

असल में वेदान्त भी मानता है कि मैं और मेरे से मुक्ति ही असल मुक्ति है. लेकिन जब वे साधना, योग, तंत्र, मन्त्र आदि की शिक्षा देते हैं तो “मेरे” से मुक्ति की बात तो जरुर करते हैं लेकिन “मैं” से मुक्ति की असली बौद्ध सलाह को छुपा देते हैं. यही उनका षड्यंत्र है. वेदांती पंडित “मेरे” अर्थात “भौतिक मानसिक परिग्रहों” से मुक्त होने की सलाह और अभ्यास जरुर सिखाते हैं लेकिन “मैं” से मुक्त होने की सलाह नहीं देते, यह बौद्ध सलाह है जिसे वे छुपा देते हैं. वे इस मैं को एक सनातन आत्मा का नाम देकर खूंटे की तरह गाड़कर अमर कर देते हैं. हालाँकि फिर भी “मैं और मेरे” से मुक्ति की ढपली जरुर बजाते हैं ताकि उनकी प्रस्तावना बुद्ध की प्रस्तावना की तरह महान नजर आ सके. लेकिन आप सावधानी से देखें तो पकड लेंगे कि यहाँ क्या पाखंड चल रहा है.

बुद्ध इस मुक्ति या निर्वाण को “मैं और मेरे” से सच्ची मुक्ति की तरह स्वीकार करते हैं और इसी स्वीकार से जन्मी टेक्नोलोजी बनाते हुए “मैं” (आत्मा या मन) और मेरे (शरीर, संबंध, संपत्ति आदि) को क्षणभंगुर और बाहरी करार देते हैं. इस प्रकार बंधन की शारीरिक या मानसिक संभावना पर पूरा विराम लगा देते हैं. लेकिन वेदान्त क्या करता है? वेदान्त “मेरे” से मुक्ति का खूब शोर मचाता है और उस “मेरे” का दलदल या भूसा पैदा करने वाले “मैं” (गेहूं) अर्थात आत्मा को सनातन, शाश्वत और परमात्मा का अंश बनाकर एकदम खूंटे की तरह गाड़ देता है.

यही वेदान्त का असल षड्यंत्र, कन्फ्यूजन और चालाकी भी है. जब आप आत्मा या स्व को मानकर “मैं” को मजबूत करेंगे तो “मेरा” का दलदल अपने आप पैदा होगा ही. ये एकदम स्वाभाविक है. इस तरह आप अंदर से अधिक परिग्रही और मोही होते जायेंगे. अब जैसे जैसे ये परिग्रह भाव और मोह बढेगा वैसे वैसे आपकी आत्मग्लानि बढ़ेगी, इसी क्रम में आप दुखी और कन्फ्यूज होते जायेंगे और इस तरह आप संशय ग्रस्त होकर कमजोर होंगे और वेदांती पंडित इस कमजोरी का फायदा उठाते हुए आपका शोषण करेगा. तब वह अपना असली खेल शुरू करता है. इस कमजोरी और संशय की हालत में वह अपना रोजगार और अधिसत्ता को कायम रखने का असली जुगाड़ बनाता है और आपको इसकी भनक भी नहीं लगती.

लेकिन इस संबंध में बुद्ध क्या करते हैं? बुद्ध कहते हैं कि “मेरा” तो उधार है ही “मैं” (स्व,आत्मा, मन) भी उधार और बाहरी ही है. इसे जान लेने के बाद “मैं” को बचाने की हवस ही खत्म होने लगती है और मजे की बात ये कि “मेरा” को मिटाने या नकारने की तब कोई जरूरत नहीं रहती. अगर “मैं” (आत्मभाव/ खुदी का अहसास) नाम का गेंहू ही कमजोर होने लगे तो उससे पैदा होने वाला भूसा (अर्थात “मेरा”) कितनी देर टिकेगा और कैसे पैदा होगा? इस तरह बुद्ध मैं और मेरे से मुक्ति का जो दर्शन और लक्ष्य बताते हैं उसे अपनी प्रस्तावना और साधना की टेक्नोलोजी में इमानदारी से अंजाम तक पहुंचाते भी हैं. बीच में कोई कन्फ्यूजन पैदा नहीं करते. इसीलिये उनकी टेक्नोलोजी “आत्म के विश्लेषण” की टेक्नोलोजी है “आत्मसाक्षात्कार” की टेक्नोलोजी नहीं है. आत्मसाक्षात्कार दुनिया का सबसे झूठा जहरीला और पाखंडी शब्द है, ठीक ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ की तरह.

लेकिन ओशो, जग्गी वासुदेव या आसाराम बापू जैसे वेदांती गुरु आधी बात में उलझाकर संशय में डाले रखते हैं और इस संशय में असल सोशल-इंजीनियरिंग और वर्णाश्रम का खेल खेलते हैं और एक ख़ास तरह की धर्मसत्ता और राजनीतिक सत्ता को बनाये रखते हैं. इस तरह गौर से देखें तो वेदान्तिक अध्यात्म असल में ब्राह्मणवादी सत्ता को बनाये रखने का सबसे सूक्ष्म और परिष्कृत हथियार या जाल है. इसमें फंसने वाले को जिन्दगी भर ये समझ नहीं आती कि “मैं और मेरे” से मुक्ति की बात करने वाले “मैं” को सनातन क्यों बता रहे हैं? ये सवाल ही पैदा नहीं होने दिया जाता उनके मन में. वे सोच ही नहीं पाते कि अगर कोई चीज सनातन या शाश्वत है या सर्वय्व्यापी परमात्मा का अंश है तो उससे मुक्ति भी संभव नहीं है. मुक्ति या दूरी उसी चीज से संभव है जो क्षणभंगुर है, सीमित और परिवर्तनशील है.

इस समझ को पैदा होने से रोके रखने के लिए जो षड्यंत्र रचा गया है वही वेदान्त और उसका मायावाद है. इसे सभी लोगों को और खासकर दलितों, आदिवासियों, शूद्रों (ओबीसी) और स्त्रीयों को ठीक से समझ लेना चाहिए.

(लिखी जा रही और शीघ्र प्रकाश्य किताब का एक अंश)

– © संजय जोठे 

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