त्रिभुवन
प्राचीन भारत में कभी मूर्तिपूजा नहीं होती थी। पूर्व वैदिक काल में लोग मंदिर नहीं बनाते थे। उनके लिए कण-कण में ईश्वर था। मानव-मानव बराबर था। इसका प्रमाण है मनुस्मृति और अन्य ग्रंथ। किसी प्राचीन भारतीय ग्रंथ में मूर्ति का जिक्र तक नहीं है। न चारों वेदों में, न छहों दर्शन में। न उपनिषदों में। किसी स्मृति में भी किसी मूर्ति का उल्लेख नहीं है। प्राचीन भारत के लोग ईश्वर के सर्वव्यापक, निराकार और अमूर्त स्वरूप में विश्वास करते थे। वे इसे दयालु और न्यायकारी भी मानते थे।
और मुसलमान लोग या कहें कि अरब देशों के वासी, जहां यह धर्म पनपा, मुहम्मद साहब और कुरआन के अार्विभाव होने से पहले हमसे कहीं ज्यादा मूर्तिपूजक थे। उनके यहां बड़े-बड़े मंदिर और विशालकाय मूर्तियां थीं। प्रतिमा पूजन के कारण वे बहुदेववादी हो गए थे और आपस में बुरी तरह लड़ते थे। कत्लोगारत मची रहती थी। शांति और बंधुता उनके लिए जैसे स्वप्न था।
अगर ऋषि इब्राहिम पैदा नहीं हुए होते और उन्होने प्रतिमा पूजन के ख़िलाफ़ अलख नहीं जगाई होती तो अरब देशों में ऐसे ताकतवर लोग पैदा नहीं होते, जिन्होंने शांति और बंधुता के लिए संघर्ष किया। इब्राहीम ने ही दुनिया में पहली मस्ज़िद स्थापित की, जो मक्का में थी। ऋषि मुहम्मद ने उनके काम को अंतिम रूप दिया और एक नया धर्म इस पृथिवी पर पनपा, जिसमें मूर्तिपूजा अपराध घोषित की गई। ऋषि मुहम्मद ने मदीना की मस्ज़िद स्थापित की। आप अगर ऋषि इब्राहीम का जीवन पढ़ेंगे तो ऐसा लगेगा, मानो आप भक्त प्रह्लाद, भगवान् क़ृष्ण और स्वामी दयानंद के जीवन का कोई पार्ट पढ़ रहे हैं।
लेकिन कालांतर में समय ने ऐसी करवट ली कि मुसलमानों के अरब में तो हमारा निराकार, दयालु और सर्वशक्तिमान ईश्वरीय और मानव-मानव बंधु का दर्शन पहुंच गया और मुसलमानों के अरब की बुतपरस्ती हमारे यहां आ बैठी। अब यह भी समय का फेर है कि इस्लाम, जिसका अर्थ है शांति है, हिंसा और अशांति का पर्याय बना दिया गया है और सनातन धर्म, जो बिलकुल वैज्ञानिक टेंपरामेंट वाला था, इस्लाम के उत्कर्ष के कारण वहां से भाग कर भारत में आए रूढ़वादियों, अंधविश्वासपरस्तों और पोंगापंथियों के कारण प्रतिगामिता की राह पर चल पड़ा, जहां ऊंचनीच, जातिगोत्र और न जाने क्या-क्या नहीं पनपाया गया।
आप पूछेंगे : क्यों? ऐसा क्यों हुआ और क्या ऐसा हो सकता है कि अरब से कोई चीज़ यहां आए और हम उसे मान लें? यह तो असंभव बात है!
लेकिन यह सच है। हैरान कर देने वाला सच। भारत सदा से ही पराए और पश्चिमी देशों की चीज़ों के प्रति सम्मोहन का शिकार रहा है। पश्चिम-परस्त भारतीयों ने पहले अपने सनातन धर्म का नाम छोड़ा और पर्शियाई लोगाें के दिए विदेशी और घृणासूचक नाम हिन्दू तक को अपनाया। इसके बाद अंग़रेज़ आए तो इंडियन हो गए और देश का नाम बदलकर इंडिया कर लिया। यही नहीं, आज भी हम न्यू ईयर मनाते हैं। बर्थ डे पर केक काटते हैं!
आज भी हमारे प्रधानमंत्री किसी भारतीय पत्रकार को इंटरव्यू देने में आनाकानी करते हैं और विदेशी बबलू टाइप स्ट्रिंगर को बुलाकर साक्षात्कार करते हैं। फिर भले वे पंडित नेहरू हों या अब के अपने प्रिय मोदी।
टाइम पत्रिका किसी को पर्सन ऑव द ईयर घोषित करने का संकेत देती है तो हमारे लोग कलाबाजियां खाने लगते हैं और अगर हमारे यहां की कोई पत्रिका या अखबार क्रिटिसाइज कर दे तो हमारे सत्तापुरुष तमतमाने लगते हैं।
धोती-कुर्ता भले कहीं टंगा रहे, लेकिन विदेशी हैट लगाकर मैं आज भी विदेशी संस्कृति पर प्राण निछावर करता हूं। क्या आपने कभी मुझे धोती-कुर्ते में देखा? नहीं न!
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और अंत में : मेरा विचार वह नहीं है, जो अभी यहां प्रस्तुत है। मेरा विचार होगा, जो आप सबकी प्रतिक्रियाओं और तर्कों के बाद बनेगा। हमें इतना विवेकी और विनम्र होना चाहिए कि हम एक-दूसरे के तर्कों को ससम्मान आत्मसात कर सकें।
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