संस्कृति संस्कार

सामाजिक यायावर

सामाजिक यायावर

जो मेरा बचपन जानते हैं उन्हें पता है कि मैं लगभग पंद्रह वर्ष की आयु तक मातृ-भक्त, पितृ-भक्त तरह का शिशु, बालक, किशोर हुआ करता था। बचपन से मेरे मन मस्तिष्क में संस्कार के नाम पर जो अनुशासन ठूंसा गया उसकी चर्चा भी करना चाहता हूं।
 
बचपन में यदि मेरी माता ने जमीन में गोल घेरा बना कर मुझसे कह दिया है कि जब तक वे न आएं तब तक मैं घेरे से बाहर न निकलूं। मैंने उसी घेरे में टट्टी पेशाब कर दिया है, रोता रहा हूं लेकिन घेरे का उल्लंघन नहीं किया।
 
आज जो मेरे जमीनी साथी हैं वे जानते हैं कि मैं सिर्फ चार से पांच घंटे सोकर रात दिन काम पर लगा रहता हूं। मेरे साथी बहुत मेहनती होते हुए भी इस बात का ताज्जुब मानते हैं कि मैं इतना कम सोते हुए भी कैसे सहज व सक्रिय रह लेता हूं।
 
दरअसल इसका पूरा श्रेय मेरी माता की विकृत अनुशासन को जाता है जिसके कारण उन्होंने मुझे बहुत ही छोटी उम्र से सुबह चार बजे उठकर नंगे पांव घास में पंजो के बल चलने रूपी टहलने के लिए विवश किया क्योंकि उनके मन में कहीं से यह बैठ गया था कि ऐसा करने से आंखें स्वस्थ रहतीं हैं। मेरी आंखें बचपन से खराब हैं बचपन में -3.5D थीं अब सिलेंड्रिकल मिलाकर लगभग -7D के आसपास खराब हैं। सुबह घास में नंगे पांव टहलने से लेकर रात में दस से ग्यारह बजे तक पढ़ने की आदत बना दी। शायद इसी आदत के कारण मेरे शरीर को अधिक नीद की जरूरत नहीं रहती।
 
हो सकता हो कि कुछ वर्षों बाद मुझे “अल्झाइमर” रोग हो जाए, किंतु अभी तक ठीक-ठाक हूं। पिछले लगभग चालीस वर्षों में मेरा शरीर कुछ घंटों में ही अपनी नींद पूरी कर लेने की आदत में ढल गया है।
 
नींद का भी कोई रूटीन नहीं, कभी दस बजे रात में सोया तो दो या तीन बजे जग गया कभी रात में दो बजे सोया तो छः या सात बजे जग गया कभी टुकड़ों-टुकड़ों में सो लिया। कभी कभार नहीं भी सोया तो छत्तीस घंटों तक भी बिना सोए सक्रियता से काम करता रह लेता हूं।
 
मेरी माता मुझे समय-सारिणी बना कर देती थीं। जिसमें यह तक लिखा होता था कि कितने बजे शौच जाना है और कितने मिनट तक शौचालय में बैठना है। कितनी देर तक ब्रश को मुंह के अंदर चलाना है। दिनचर्या का समय निर्धारित था। इसमें चूक हुई तो पिटाई होनी तय और ऐसी गलती दुबारा नहीं होगी उस पर एक निबंध लिखना भी निश्चित था।
 
 
मैं भी दूसरे बच्चों की तरह विद्यालय गया हूं। बड़े होने पर मेकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी की है। B.Stats व BA में भी प्रवेश लिया था। मतलब यह कि मैंने लखनऊ व कानपुर जैसी उस जमाने की घोर राजनैतिक यूनीविर्सिटीज में भी समय गुजारा है। जब मैं लखनऊ यूनीवर्सिटी से B.Stats की पढ़ाई कर रहा था तब वहां के छात्रावासों व कैंपस में छात्रों के बीच में गोलियां चलनी आम बात थी। घोड़ा-पुलिस छात्रों को दौड़ा-दौड़ा कर जानवरों की तरह बर्बरता से पीटती थी। कानपुर यूनिवर्सिटी के बहुत ही सड़ियल कालेज में BA की पढ़ाई में एक वर्ष गुजारा। इंजीनियरी स्नातक के बाद “विकेंद्रित ऊर्जा व्यवस्था व प्रबंधन” में शोध कार्य भी किया है।
 
शिशु अवस्था में शुरुआती शिक्षा कानपुर के गोविंदनगर के सरस्वती शिशु मंदिर में शिक्षा प्राप्त की। जिनको सरस्वती शिशु मंदिरों के बारे में अंदाजा है उन्हें पता होगा कि आज से लगभग सैंतीस वर्ष पहले कानपुर में गोविंदनगर के सरस्वती शिशु मंदिर का संस्कृति संस्कार का क्या मतलब होता था।
 
उदय व शिशु कक्षाओं से लेकर बारहवीं तक की मेरी शिक्षा सरस्वती शिशु मंदिर, सरस्वती विद्या मंदिर व सरकारी इंटर कालेज में हुई।
 
यह सब बताने का तात्पर्य सिर्फ यह है कि कई स्तरों की स्कूली व कालेजी शिक्षण व्यवस्थाएं देखी हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कृति व संस्कार वाले अच्छे विद्यालयों से लेकर सरकारी इंटर कालेज जहां विषयों के शिक्षक भी नहीं होते थे, होते भी थे तो कक्षाएं सिर्फ खानापूर्ती के लिए ही लगतीं थीं, गाली गलौच झगड़े आदि आम बातें थीं।
 
बचपन से ही शिक्षण संस्थाओं में इतनी विभिन्नता देखने के बावजूद बीस से बाइस वर्ष के मेरे पूरे छात्र जीवन में मेरा कभी भी किसी से मुहांचाही व झगड़ा तक न हुआ, मारपीट होना तो कल्पना से परे की बात है।
 
पच्चीस वर्ष की आयु तक किसी भी लड़की से एक मिनट की भी मित्रता करना तो दूर दो चार पंक्तियों की औपचारिक हाय-हेलो भी नही किया।
 
 
चार-पांच वर्ष की आयु से ही मेरी माता ने मुझे युग निर्माण योजना की पुस्तकें पढ़ाना शुरू कर दिया था। स्वामी विवेकानंद का राजयोग, प्रेमयोग, कर्मयोग व जीवनी आदि पुस्तकें मैंने लगभग दस वर्ष की आसपास की आयु में प्रारंभिक तौर पर पढ़ लीं थीं।
 
विश्वकोष के सत्रह खंड, रामायण, महाभारत, गीता, नैतिक कहानियां, महापुरुषों की जीवनियां व महापुरुषों की जीवन पर आधारित अमर चित्र कथाएं आदि पुस्तकें सैकड़ों की संख्या में परिपक्व किशोर होने के पहले ही पढ़ चुका था।
 
भयानक सर्दी की रात में भी पानी बरसने पर खेत की मेड़ में पानी को रोकने के लिए खुद लेट कर, प्रकार की गुरूभक्ति करना। सर्दियों में पिता को गर्म पानी पिलाने के लिए रात भर ठिठुरते हुए पानी के पात्र को पेट से लगाकर रखना ताकि पेट की गर्मी से पानी कुछ गुनगुना सा हो जाए, प्रकार की पितृभक्ति करना। इसी प्रकार की मातृभक्ति वाली कहानियां भी।
 
पौराणिक व नैतिक कथाओं के ये मातृ भक्त, पितृ भक्त, गुरु भक्त प्रकार के पात्र अपने आप ही मेरे आदर्श बन चुके थे।
 
 
मेरे भोलेपन के कारण, मेरे सीधेपन के कारण मेरे माता-पिता को प्रशंसा मिलती थी। मेरे शिक्षक, अड़ोस-पड़ोस वाले कहते थे कि मैं एक अच्छा लड़का हूं। मुझे भी अच्छे लड़का होने का खिताब जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि लगता था।
 
उस समय युगनिर्माण योजना अभियान प्रगतिशील अभियान माना जाता था। औसतन हर महीने कई-कई दिनों के पांच-कुण्डीय, दस-कुण्डीय, सौ-कुण्डीय आदि प्रकार के यज्ञ होते ही रहते थे।
 
जब भी ऐसे यज्ञ होते थे तब प्रभात-फेरी, यज्ञ, कलश-यात्रा आदि से लेकर रात में प्रवचन सुनने तक की दिनचर्या रहती थी। मेरी माता बड़े जोश से पुस्तकें खरीदतीं और मैं पढ़ता था।
 
 
सहपाठियों से या मुहल्ले के लड़कों से मैंने कभी मारपीट नहीं की, कभी झगड़ा नहीं किया, कभी भी मेरे माता-पिता के पास किसी सहपाठी के माता-पिता उलाहना या शिकायत लेकर नहीं आए, कभी लड़कीबाजी नहीं की।
 
लड़के बुरे होते हैं इसलिए अपनी मर्जी से मित्र नहीं बनाने हैं। उनके साथ खेलना नहीं है। इसलिए जिन लड़कों के साथ मेरी माता कहेंगी उन्हीं के साथ शाम को एक घंटे खेलना है। या नहीं खेलना है। इसलिए मुझे उस अनुभव का आनंद नहीं जिसमें लड़कों के साथ क्रिकेट खेलना होता है, शैतानी करना होता है, चीजों को तोड़ना फोड़ना होता है। कभी किसी के पेड़ से आम या अमरूद नहीं चुराए, चुराने की कल्पना तक नहीं की।
 
मुझे कभी तकलीफ नहीं हुई इन सब बातों को। क्योंकि मुझे अपने मन के अंदर यह प्रसन्नता थी कि मैं अच्छा लड़का हूं। अच्छा लड़का होना ही अपने आपमें तकलीफों से पार लगा जाता था। वह बात अलग है कि बाद में मुझे अहसास हुआ कि यह अच्छाई थोपी हुई थी, प्रायोजित थी, कंडीशंड थी।
 
इतना सब अनुशासित, संस्कारित किस्म का होने के बावजूद मैं बड़े होने पर अपने माता पिता की नजरों में परले दर्जे का चरित्रहीन, अवारा, लुच्चा, लफंगा, कुसंस्कारी लड़का बन गया वह भी ऐसे घटिया स्तर का कि मेरे माता पिता को मेरी युवावस्था में मुझे लातों जूतों से रात दिन महीनों तक पीटना पड़ गया। यहां तक कि मुझे सुधारने के लिए लगभग उनके एक घर में एक साल तक एक छोटे से कमरे में बंद रखना पड़ गया, जहां वे सप्ताह में एक बार मिलने आते थे और रात रात भर पीटते थे।
 
मेरी गलतियां न होने के बावजूद उन्हें ऐसा क्यों करना पड़ गया वे शायद खुद भी नहीं जानते हैं। उनमें यदि समझने की दृष्टि होती तो वे समझ पाते कि मुझमें देखने व समझने की दृष्टि का विकास होने लगा था, जो उनके रूटीन समझ से परे की बात थी। उनकी समझ से परे होना ही मेरा गलत होना हो गया।
 
 
इन सब झमेलों में मुझे किताबें पढ़ने की आदत लग चुकी थी। पौराणिक कथाओं, युगनिर्माण योजना, विवेकानंद, बंगाली व उड़िया आदि लेखकों के दायरे से बाहर आकर रसियन, फ्रांसीसी, जर्मन, रोमन, अमेरिकन लेखकों की पुस्तकों की दौड़ लगाने लगा था। ढेरों नोबल प्राप्त साहित्यकारों की पुस्तकें पढ़ गया।
 
ज्यों-ज्यों मेरा अध्ययन बढ़ता जा रहा था, त्यों-त्यों मेरे अंदर सवाल खड़े होने शुरू हो गए। मेरी समझ व दृष्टि बढ़ती रही थी। हर बात के पीछे के कारक को समझने की इच्छा होने लगी थी। बिना समझे मान लेना संभव नहीं हो पाता था।
 
मन के अंदर पौराणिक कथाओं पर सवाल खड़े हुए। जिन लोगों के प्रवचन सुनकर खुश होता था वे खुद में जीवन कैसा जीते हैं यह सवाल मन में खड़ा होने लगा। मूल्यों को शब्दों, तर्कों व दर्शन के रूप में मानने की बजाय जीवन में प्रमाणित रूप में देखने की इच्छा बलवती होने लगी।
 
दिखने लगा कि मेरे माता पिता महान नहीं होते हैं, वे दूसरे मनुष्यों की तरह ही होते हैं, उनमें भी कमजोरियां होती हैं भले ही संस्कृति व संस्कार के ढोंगों के कारण उनको जबरन महान मानने की कंडीशनिंग ठूंसी जाए।
 
मेरे अपने माता पिता जो खुद पूरे जीवन आपस में तलाक की मांग करते हुए झगड़ा करते रहे, आपस में कभी तालमेल से नहीं रहे। वे ही मुझे मातृ भक्ति, पितृ भक्ति आदि जैसी नैतिक शिक्षा देते रहे जबकि वे खुद मातृ भक्त व पितृ भक्त नहीं रहे। मेरे माता पिता ने जीवन में अधिकतर झूठ ही बोला है, बचपन में मुझे सच बोलना सिखाते थे, जब मैं बड़ा हुआ तो मेरा सच बोलना ही मेरा हरामखोर होना हो गया। मेरी समझ में आया कि खुद माता पिता को ही नहीं पता कि सत्य किस चिड़िया का नाम है। संस्कृति संस्कार क्या होते हैं।
 
 
ज्यों-ज्यों बढ़ा हो रहा था त्यों-त्यों दुनिया अलग दिखने लगी। नैतिकता का पाठ रटाने वाले व परीक्षाओं में नैतिक शिक्षा के विषय में अंक देने वाले शिक्षकों, रिश्तेदारों व बड़े-बुजुर्गों के असली चरित्र समझ आने शुरु हुए।
 
जो लोग भाइयों बहनों आदि के प्रेम, त्याग, सहिष्णुता आदि की पौराणिक कथाएं सुनकर रटाकर संस्कृति संस्कार की बातें करते थे उनको अपेक्षाओं, अहंकारों व ईर्ष्याओं के कारण नजदीकी रिश्तों को हमेशा के लिए तोड़ते देखा। समय के साथ यह भी समझ आया कि वास्तव में सच बोलना, विश्वास करना, प्रेम करना मूर्खता मानी जाती है।
 
समाज का खोखलापन, ढोंग व दोहरा चरित्र दिखने लगा। छोटे में पढ़ी गईं पुस्तकें फिर से पढ़ीं तब अहसास हुआ कि इतनी कहानियां, इतने ग्रंथ, इतने कर्मकांड होते हुए भी हमारा समाज खोखला, ढोंगीं व दोहरे चरित्र का क्यों है।
 
दरअसल हमारे समाज की पौराणिक कथाएं व ग्रंथ दावा करते लिखे गए हैं कि वे संपूर्ण ज्ञान को समेट हुए हैं, जरा सा भी टसमस होने की भी जरूरत नहीं। दावे को सच बताने के लिए यह प्रायोजित किया जाता रहा कि ग्रंथ ईश्वर के द्वारा या ईश्वर के सहयोग व दिशा निर्देशन में लिखे गए हैं।
 
यथार्थ तो यह है जड़ता व कुंठा को संस्कृति व संस्कार मानने की भूल हमारा समाज लगातार किए जा रहा है।
 
जड़ता, कुंठा व कंडीशनिंग को संस्कृति व संस्कार के नाम पर महानता साबित किया जाता रहा क्योंकि खुद को महान प्रतिष्ठित किया जा सके। विचारशीलता व संवेदनशीलता को कुंठित करते हुए ऐसा किया जाता है। और ऐसा किया जाता है संस्कृति संस्कार की महानता व विशालता के नाम पर। ऐसा साबित करने के लिए हिंसा, झूठ, कुतर्क, घृणा आदि का भी सहारा लेना पड़े तो इनको भी उचित साबित किए जाने के लिए तर्क व कथाएँ तैयार रहते हैं।
 
 
समझ आने लगा कि संस्कृति व संस्कार के नाम का ढिढोंरा पीटने वाले, खुद को महान व सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए ईश्वर से संवादों, मुलाकातों व मनुष्य योनि से मुक्त होकर ईश्वर बन जाने जैसी कहानियां भी गढ़ने वाले हमारे समाज को यह तक नहीं मालूम कि संस्कृति व संस्कार जीवंत मूल्य होते हैं। न कि तंत्र या ढांचा या कर्मकांड या यांत्रिकता या शाब्दिक दार्शनिकता या अतथ्यात्मक तार्किकता।
 
यह समझ आते ही रटे-रटाए, ओढ़े हुए व ढकोसलों की संस्कृति व संस्कारों के मायाजाल से बाहर आकर मुक्त होने लगा। संवेदना, मानवीयता, भावों, संस्कृति व संस्कार आदि के सही मायनों को समझने में ऊर्जा लगाने लगा।
 
बस इतना शुरू होते ही माता पिता, रिश्तेदारों, परिवार, मित्रों व समाज के द्वारा प्रताणनाओं का दौर शुरू हो गया।
 
लेकिन मैं यह सब झेलता रहा क्योंकि यह मेरी जागृति, स्वतंत्रता व डी-कंडीशनिंग का दौर था। मुझे दर्शन की गूढ़ताएं समझ आने लगीं थीं। मैं अंदर से मनुष्यता की ओर बढ़ रहा था, मैं वास्तव में संस्कारित हो रहा था।
 
समझ आने लगा था कि कपड़े पहनने के तौर तरीकों, खाना खाने के तौर तरीकों, बातचीत के तौर तरीकों, सुविधाएं एकत्र करना, सत्ताएं प्राप्त करना, लोकेषणा भोगना, कर्मकांड, त्यौहारों को मनाने के तौर तरीकों आदि का संस्कृति संस्कार से कोई वास्तविक नाता नहीं होता है।
 
अनुभव हुआ कि हमारा समाज मूल्यों को शाब्दिक रूप में रटाता है। स्वतः स्फूर्त तरीके से जीवन में प्रमाणित होकर पल्लवित नहीं करता है। हमारा समाज जो स्वयं को संस्कृति व संस्कार का स्वयंभू ठेकेदार मानता है, उसे पता ही नहीं कि संस्कृति व संस्कार किस चिड़िया का नाम है तभी समाज में इतने कर्मकांडों व तौर तरीकों के बावजूद लोग अंदर से हिंसक हैं, खोखले हैं, ढोंगी हैं, स्वार्थी हैं, फरेबी हैं, भ्रष्ट हैं।
 
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